Tuesday, September 7, 2010

कचनार, गुलमोहर, अमलतास

लोगों को घर की याद आती होगी, घरवालों की याद आती होगी। याद आती होगी दोस्तो की, जो कहीं न कहीं नून-तेल-लकड़ी के जुगाड़ में व्यस्त होंगे। किन्ह-किन्ही महानुभावों को अपनी प्रेमिका या प्रेमिकाओं की याद आती होगी। इन सारी यादों से मैं भी गुज़रा हूं लेकिन आज मुझे बेतरह याद आ रही है एक पेड़ की।


हमारे आंगन में एक पेड़ था, कटहल का।

उस पेड़ को मैंने ही लगाया था। तब हमारा आंगन इतना सिकुड़ा नहीं था।

मधुपुर में, और हमारे आसपास के इलाके में शरीफे और कटहलों के बहुत सारे पेड़ होते हैं। वहां उनके फलने-फूलने के बहुत सारे औजार हैं। बहरहाल, बरसात के दिन थे और हमारे किसी जानने वाले ने एक कटहल भिजवाया था. पका हुआ।

खूब सोंधी, सोंधी ख़ुशबू आ रही थी उसमें से। हमने उसके एक बीज को गमले मे यो ही ऱोप दिया। स्कूल से आकर तकरीबन रोज ही हम उस रोपी जगह पर देखते कि कोई हरापन दिख जाए।

एक दिन जब बरसात धारासार हो रही थी, और भींगते हुए स्कूल से आए, तो हमने देखा कि गमले में एक करीब दो इंच ऊंचा हरा-सा, लौंडा-सा अंकुर सीना तान कर खड़ा है। उसे शायद मेरा ही इंतजार था। दो नन्हें-नन्हें पत्ते..और एकदम तुनुक पतली हरी डंडी जो जमीन में जा गड़ी थी।

दसेक दिन बाद हमने उस तोड़े मज़बूत हो चुके अंकुर को सलीके से मिट्टी समेत उखाड़ कर ज़मीन मे लगा दिया। अब उसे केजी से नर्सली में दाखिला दिलवा दिया था हमने।

हम सातवी में थे, पौधा नर्सरी में। उम्र में भी करीब ग्यारह साल का फर्क था। लेकिन पौधे को थोड़ी देखभाल और थोड़ा गोबर वाला खाद मिला कि बस..एक साल में ही वह मेरे घुटनों तक पहुंच गया। उस समय तक मैं उसके पत्ते भी गिनने लगा था। सूखी पत्तियों को कैंची से अलग कर देता। बिलकुल नए ललछौंह पत्तियों को किसी को छूने न देता।
उसके अगल बगल से निकल रही शाखाओं को मैंने कुतर दिया, ताकि पेड़ सीधा बढ़े। और भाई साब, पेड़ ऐसा बढ़ा कि जब मैं दसवीं में पहुंचा वो मेरे सिर के ऊपर पहुंच गया। ग्यारहवीं में पढने अपने कस्बेनुमा शहर से बाहर निकल गया। वापस आता था, तो पेड़ और तन गया होता था। फिर वह इतना मजबूत हो गया कि मैं उसकी डालियों पर चढ़ कर हवा से बातें करता।

कटहल का वो पेड़ फला भी, और खूब फला। खूब स्वादिष्ट।

मां ने पड़ोसियों को खूब भिजवाए, उपहार में।

लेकिन जब हम बढे, तो पेड़ के लिए जगह कम पड़ने लगी। मकान का विस्तार करने की बात की जा रही थी, लेकिन घर का आकार सिकुड़ने वाला था। कमरे बढ़ने वाले थे..आंगन का आंचल छोटा करके।

मेर तमाम विरोधों के बावजूद मेरे दोस्त का सीना छलनी कर दिया गया। मैं नाराज होकर हॉस्टल वापस चला गया। लेकिन मेरे नाराज होने का तब भी किसी पर कोई असर नहीं पड़ा, आज भी नही पड़ता है।

हरे पत्ते सझली चाची नाम की पड़ोसन ले गईं, अपनी बकरियों को खिलाने। लकड़ी से भैया ने खिड़की-दरवाजों के चौखट-पल्ले बनवा लिए। मेरा दोस्त आज भी मौजूद है अपने उस रुप में..मेरे घर में।

बहरहाल, उसी दिन मैंने प्रण लिया कि अपने इसी पेड़ दोस्त की याद में अपने शहर से सटी पहाड़ी को गोद लूंगा। उसे भी लोगों ने उजाड़ कर रख दिया है। उस पहाड़ी पर भटकटैया, धतूरे, और तमाम ऐसे पौधे लगाऊंगा जो अनाथ हैं। जिन्हे कोई नहीं पूछता। साथ ही वहां गुलमोहर भी होगा, अमलतास भी, कचनार भी, पलाश भी..सारे देशी पौधे। गुड़हल या अड़हुल, सदाबहार, हरसिंगार के जंगल भी होंगे। सिर्फ फूलों के पेड़..फलों के नहीं। फलों के पेड़ों को लेकर स्वामित्व का झगड़ा खडा हो जाता है।

सोचा है एक वहां एक तालाब भी बनाऊं, जहां देशी कमलिनियां हों, जिसे लिलि कहते हैं।

पूरी पहाड़ी पर फल का सिर्फ पेड़ होगा...कटहल का...सबसे ऊंची जगह पर। जिसे कोई घर बनाने के लिए काट नहीं पाएगा।

5 comments:

ekal !!! ek awaaz said...

कुछ महाशयो को अपनी प्रियतमा की याद आती होगी ,यहाँ थोडा सा जर्क है क्योकि अब यादो के साथ सबसे सटीक शब्द यही है 'प्रियतमा' | लोगो को आप जैसी यादें नहीं आती क्योंकी आप ने अपना अगन सिकुड़ते देखा या यूँ कहिये की अपने कमरों को फैलते देखा, पर कुछ को तो ये सौभाग्य ही नहीं हुआ , क्योकि उनके बाप को ही नही हुआ तो उनका न होना लाज़मी लगता है |
पर कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने आपने गाँव को, अपनो के अरनान को तुच्छ करार के आज उसे ज़ेहन में लाना ही नहीं चाहतें है, किसी गुलनार में वो इस कदर खोगये की उन्हें याद ही नहीं कुछ भी,
"माँ के आँचल ने हर सितम को औधे मुह गिराया, बाप के पसीने ने रगो में खून को बढाया
आज बेटा फुरशत में शायरी करता है कि मुझे अपनो ने जीने न दिया ....."
बहुत ही खुबसूरत लगेगी शहर से सटी हुयी पहाड़ी जिसे आप गोद लेके हरा भरा बनायेगे गुंग ,भटकटैया , कटहल ,कनेल,... गुज़ारिश है थोड़ी सी पथरी भी उस ख़ाली जगह में लगाईयेगा जहां पे लोग उसे रौद न सके, आप भी नहीं यकीं मानिये बहुत ही अच्छा दिखेगा दूर से ये नज़ारा ...

vidhi mehta said...

I like that u are also interested in trees.nature is always helps human beings.Its the social duty of human beings to use of nature and also take care of it.But it seems that human beings are become selfish nowdays.

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी पोस्ट।
हरीश गुप्त की लघुकथा इज़्ज़त, “मनोज” पर, ... पढिए...ना!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर विचार ...बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट

abhishek said...

वाकई बढ़िया ,,, पेड़ लगाने की प्रेरणादेने वाला,, बधाई,,,