Friday, December 3, 2010

लिट्ल रोज़ः प्रेम की परतों का उद्घाटन करती फिल्म

(लि़टिल रोज़, प्रेम के वास्तविक परतो को उधेड़ती है..लिख रहे हैं अजित राय) 


भारत के 41वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह के प्रतियोगिता खंड में दिखाई गई पौलेंड के सुप्रसिद्ध फिल्‍मकार जान किदावा ब्‍लोंस्‍की की नई फिल्‍म ‘लिटल रोज’ एक दिलचस्‍प प्रेमकथा का त्रिकोण है। जिसमें इतिहास की कुछ कटु स्‍मृतियां शामिल हैं। 
इजरायल ने 1968 में जब फिलिस्‍तीन पर हमला किया था तो पौलेंड के कम्‍युनिस्‍ट शासकों ने इस अवसर का इस्‍तेमाल यहूदी और कई दूसरी राष्‍ट्रीयताओं वाले नागरिकों को देशनिकाला देने में किया था। उसी दौरान 1968 के मार्च महीने में पौलेंड की राजधानी वारसा में अभिव्‍यक्ति की आजादी को लेकर लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और विश्‍वविद्यालयों के छात्रों ने एक बड़ा आंदोलन किया था जिसे सरकार ने बेरहमी से कुचल दिया। इसी पृष्‍ठभूमि में कम्‍युनिस्‍ट सुरक्षा सेवा का एक सीक्रेट एजेंट रोमन अपनी प्रेमिका कैमिला को एक सत्‍ता विरोधी लेखक एडम के पीछे लगा देता है। जिस पर शक है कि वह यहूदी है। 

एडम एक प्रतिष्ठित लेखक है और लगातार शासन की तानाशाही के खिलाफ आंदोलन का समर्थन करता है। कैमिला उसकी जासूसी करते हुये अंतत: उसके प्रेम में पड़ जाती है क्‍योंकि उसे लगता है कि एडम का पक्ष मनुष्‍यता का पक्ष है। इसके विपरीत उसका प्रेमी रोमन सिर्फ सरकार की एक नौकरी कर रहा है और सरकारी हिंसा और दमन को सही ठहराने पर तुला हुआ है। 

जब पहली बार कैमिला को इस रहस्‍य का पता चलता है तो उसे सहसा विश्‍वास ही नहीं होता कि सरकारी दमन और हिंसा में शामिल खुफिया पुलिस का एक दुर्दांत अधिकारी किसी स्‍त्री से प्रेम कैसे कर सकता है। वह यह भी पाती है कि प्रोफेसर एडम के ज्ञान और पक्षधरता का आकर्षण उसे एक नये तरह के प्रेम में डुबो देता है। 

अपने पहले प्रे‍मी के साथ उसे हमेशा लगता रहता है कि वह रखैल बनकर केवल इस्‍तेमाल होने की चीज है। उसकी न तो कोई पहचान है और न अस्तित्‍व। वह बिस्‍तर में अपने प्रेमी को सुख देने की वस्‍तु बनकर रह गई है। एडम से मिलने के बाद उसे जिंदगी में पहली बार अपने होने का अहसास होता है। 

‘लिटल रोज’ के लिए जान किदावा ब्‍लोंस्‍की को मास्‍को अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में 32वें मास्‍को अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में सर्वश्रेष्‍ठ निर्देशक का पुरस्‍कार मिल चुका है। यह फिल्‍म एक प्रेम कथा के माध्‍यम से 1968 के पोलैंड की नस्‍लवादी राजनीति का वृतांत प्रस्‍तुत करती है। 

फिल्‍म के अंत में पर्दे पर वारसा रेलवे स्‍टेशन से आस्ट्रिया की राजधानी विएना जाने वाली एक ट्रेन छूट रही है। जिसमें देशनिकाला पाये हजारों लोग भेजे जा रहे हैं। पर्दे पर हम पढ़ते हैं कि कितनी संख्‍या में किस तरह के लोगों को पोलैंड से जबर्दस्‍ती निकाल बाहर किया गया था। कम्‍युनिस्‍ट सरकार को लगता था कि इन लोगों के रहते हुए पोलैंड में समाजवाद सुरक्षित नहीं रह सकता।

फिल्मोत्सव के आखिरी दिन लिट्ल रोज की नायिका मैग्लीना को सर्वश्रेष्ठ नायिका का पुरस्कार भी दिया गया। फिल्म की महत्ता पर यह एक मुहर की तरह है।

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

इस बेहद खूबसूरत कहानी वाली फिल्म की जानकारी देने का बहुत बहुत शुक्रिया...कभी मौका मिला तो जरूर देखेंगे...

नीरज

मनोज कुमार said...

शुक्रिया इस जानकारी के लिए। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद - भारतीयता के प्रतीक