Wednesday, November 23, 2011

कभी पूजे जाते थे पलायन करने वाले-भाग दो

....पिछली पोस्ट से आगे...

क्षिणी मध्य-प्रदेश और खानदेश के सिवनी, छिंदवाडा, चंद्रपुर के गोंड साम्राज्य में तालाब बनवाने के लिए बनारस के कारीगरों को बुलवाया गया था. ये लोग विस्थापित होकर यहीं बस गए और उन्होंने न सिर्फ गांव-गांव में हजारों तालाब बनाए, बल्कि पानी के वितरण की एक चाकचौबंद व्यहवस्था भी निर्मित की. इस व्यवस्था में तालाब के कारण विस्थापित होने वालों को तालाब के पास की जमीन देने और गांव के भूमिहीन को पानी के वितरण की समिति का मुखिया बनाने जैसे प्रावधान थे.

मर्जी और मजबूरी में पलायन, विस्थापन की ऐसी कहानियां ऊपरी तौर पर भले ही दाल-रोटी के लिए रोजगार के लिहाज से की गई लगती हों, लेकिन इनमें वैसी गरीबी, दयनीयता दिखाई नहीं देती जैसी आज के थोकबंद पलायन में पग-पग पर दिख जाती है. परदेस जाकर रोजी-रोटी कमाना तो हमेशा मजबूरी में ही हुआ करता है, मगर यह आज की तरह अपने आत्मसम्मान को बेचकर नहीं होता था. आमंत्रित या जजमानी करने वाला समाज भी पलायन करने वालों की मजबूरी का उपहास उडाने के बजाए उनकी क्षमताओं, हुनर का सम्मान करता था.

ऐसा पलायन, विस्थापन समाज को आपस में एक-दूसरे को समझने का मौका देता था. जहां एक तरफ खेतिहर मैदानी समाज पहाड़ी आदिवासियों के रहन-सहन, खान-पान और कठिन हालातों से निपटने की आदतें सीखता था, वहीं दूसरी तरफ सुदूर आंध्र, उत्तराखंड या ओडीशा के लोग उसे नई तकनीकें सिखाते थे. कुंए से पानी निकालने के लिए रहट की तकनीक मध्य-प्रदेश के किसानों को पंजाब से करीब सौ साल पहले विस्थापित होकर आए लोगों ने सिखाई थी.

ऐसा नहीं है कि आज के पलायनकर्ता, विस्थापित हुनरमंद नहीं हैं. अपने-अपने इलाकों में खेती-किसानी और दूसरे रोजगार करने वाले ये लोग सीखने, समझने में माहिर होते हैं. आखिर बुंदेलखंड में बेहद संवेदनशील पान, परवल और सब्जियों की खेती और हाल में आया पीपरमेंट ऐसे लोगों की बदौलत ही फला-फूला है.

दूसरे इलाकों की तरह शिक्षा में बदहाल, लगभग पिछड़ा माने गए पर्यटन क्षेत्र खजुराहो के दर्जनों युवा आजकल फ्रेंच, जर्मन, पुर्तगाली जैसी भाषाएं सीख रहे हैं. इसी बुंदेलखंड में कपड़े, धातु और मिट्टी के कलात्मक कामों की लंबी परंपरा रही है. ऐसी हुनरमंद आबादी को उनके घर के आसपास ही काम उपलब्ध करवाया जा सकता है. सरकारें विकास को केवल भारी-भरकम बजट आकर्षित करने का जरिया मानती हैं, लेकिन क्या समाज और उसके साथ जुड़ी ढेरों औपचारिक-अनौपचारिक संस्थाएं ऐसा कर सकती हैं?
 

1 comment:

डॉ .अनुराग said...

ओर विस्तार से लिखो...आँखों देखे अनुभव बहुत सारी हकीक़तो से रूबरू करते है