Saturday, April 21, 2012

कविताः दरमियां

कहते हैं यह मुक़द्दर का ढकोसला है,
जो हमारे दर्मियां फ़ासला है।

न कहीं तुम हो,
न कहीं मैं हूं
ना कहीं कोई कारवां है।

कुछ नहीं है।

लगता है ऐसा कि
मेरे पास अब कुछ भी नहीं है।
जो भी था,
ज़ाया कर चुका हूं
जिंदगी नोनी की तरह
मुझको खा चुकी है।

आहिस्ता-आहिस्ता
चौकड़ी उठ गई है
शराब की वो बोतल हूं मैं
जो पी जा चुकी है।

(ऩोनी- मिट्टी का नमक जो ईंट को खराब कर देता है)

3 comments:

विभूति" said...

न कहीं तुम हो,
न कहीं मैं हूं
ना कहीं कोई कारवां है।प्यार की खुबसूरत अभिवयक्ति..

प्रवीण पाण्डेय said...

यह खालीपन हर ओर से भरने का प्रयास करता है मन।

दीपिका रानी said...

इस छोटी सी कविता में एक पूरा जीवन है। आज पहली बार पढ़ा आपको। वैसे भी कविताओं से कुछ ज्यादा प्रेम है मुझे.. और अच्छी कविताएं आजकल कम ही देखने को मिलती हैं। यह कविता भले ही एक सोच हो जो यूं ही बहकर कागज पर उतर गई हो, मगर इसमें जो सहजता है वह इसका आकर्षण है..