Tuesday, January 1, 2013

सुनो मृगांकाः28: सिर्फ तुम

अभिजीत उगना के साथ मधुबनी तक गया था। रास्ते भर वह सोचता रहा। पिछले कुछ वक्त से कुछ उसे कोंचता रहा था।

गांव के तालाब सूखे थे। जिनमें थोड़ा-बहुत पानी था भी, उनमें सेवार और जलकुंभियां अंटी थीं। अभिजीत को जब तब तेज़ बुखार आ जाया करता। रात को सोता, तो अंदर ही अंदर उसे लगता कि पता नहीं अगली सुबर उठ भी पाऊंगा या नहीं।

ऐसी ही किसी अलसाई रात, जब कानों में मच्छरों का मद्धम संगीत बज रहा था। उसे लगा कि भैंसे के गले की घंटियां बज उठी हों। काली-सी छाया उसे सामने दिख रही थी। शायद यमराज हो।

अभिजीत को अपनी मौत का कोई ग़म न था। बल्कि उसे तो इंतजार था...इस वक्त-बेवक्त के दर्द से छुटकारा तो मिले। लेकिन हर वक्त मृगांका का साया उसके हर काम पर रहता।

रास्ते पर लकड़ियों का गठ्ठर ढोकर लाती हुई लड़की उसे मृगांका लगती, तो कभी चूल्हे सुलगाती हुई लड़की, कभी मछली पकड़ती हुई लड़की। उसे लगा था कि शायद उसके प्रेम का विस्तार हो रहा है, और शायद एक क़र्ज-सा था उस पर। प्रेम का अर्थ सिर्फ पाना ही नहीं होता।

मृगांका, मजलूमों की खबरें करती थी, उनके दुख साझा करती थी...उसे याद आया। अपनी पहली रिपोर्टंग में मृगांका एक स्लम ही गई थी। उस  स्लम में, राजस्थान के गांव में, जहां बिजली तक न थी।

अभिजीत ने तय किया, वह मृगांका के रास्ते पर चले तो भी प्रेम की राह पर ही होगा। प्रेम की कई परिभाषाएं है। नए अर्थ हैं प्रेम के, कई और अर्थ हैं जिनका खुलासा होना बाकी था।

गांव की तस्वीर बदलनी है, उसके अंदर स्वदेस का मोहन भार्गव जागने लगा था। उगना ने लोटे में हैंडपंप का ताजा पानी रख दिया था। प्लेट में प्याज टमाटर खीर हरी मिर्च, तीखी वाली।

पहले पैग के साथ ही अभिजीत योजनाओं पर विचार करने लगा था। गांव की हर लड़की को वह शिक्षा देगा, उनकी पढाई का खयाल रखेगा। गांव के हर वंचित लड़के-लड़की के लिए....। प्रेम विस्तार पा रहा था।

अभिजीत के पास वक्त बहुत कम था, इस बात का एहसास खुद उसे भी था।

चार पैग के बाद अभिजीत को याद आने लगा...कैसे मुंबई जाने के लिए मृगांका का रिज़डर्वेशन राजधानी एक्सप्रेस में कन्फर्म नहीं हो पाया था, तो वह किसी साधारण ट्रेन में चढ़ गई थी। पश्चिम एक्सप्रेस थी शायद।

मृगांका पहली बार दूसरे दर्जे में सफर कर रही थी। ट्रेन की तमाम गंधों और आवाजों से उसका पहला परिचय था...वो भी वेटिंग में किसी और के बर्थ पर।

सफ़र में जितना कष्ट मृगांका को हुआ था उतना ही कष्ट अभिजीत को हुआ था, दिल्ली में। रास्ते में कई दफा हाल चाल लेने की कोशिश की। जितऩी दफा, फोन कनेक्ट नहीं हा पाता, उसके दिल की धड़कनें तेज हो जातीं।

मृगांका, मुंबई पहुंच गई थी। लेकिन अभिजीत को देश के मर्दों के मिजा़ज पता थे। ट्रेन तो खैर सुरक्षित क्या होते, देश की सड़के भी सुरक्षित नहीं। न बस, न कार, न घर तो सड़क।

अभिजीत, निढाल था। मृगांका उसके वजूद पर छाई हुई थी। हमेशा की तरह।

कमरे के एक किनारे उन किताबों का ढेर था, जो गांव के बच्चों के लिए खरीद कर लाया था। कुछ कपड़े भी थे, कुछ खाने के सामान भी थे। कल से स्कूल शुरु करने वाला है।

सोच रहा है कल प्रशांत से बात करे। और मृगांका से....उसने आंखें बंद कर मुस्कुराती हुई मृगांका की तस्वीर को दिलो-दिमाग़ में बसाया।

दिमाग़ के काले परदे पर एक तेजस्वी सा चेहरा पसर गया। अचानक, अभिजीत को अपने बचपन के दिन याद आने लगे, सारे दृश्य....स्कूल, कॉलेज, अपना शहर, ्पना गांव, सारे टीचर, मृगांका से मुलाकात....सुना था उसने मौत आने लगती है तो पूरा अतीत घूम जाता है आंखों के सामने।

नहीं, मुझे अभी नहीं मरना। कुछ कर के जाना है। इसी मौत की तलाश में वह दर दर भटक आया है, और जब मौत आई है तो वह मोहलत मांगना चाहता है। उसका हाथ अपने गरदन की तिल पर चला गया, मृगांका इस तिल को बहुत बार चूम चुकी है...बहुत बार मृगांका ने इस गरदन पर अपना प्यार बिखेरा है।

आज अभिजीत खुद बिखर रहा है तो मृगांका कहां होगी?


....जारी

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