Wednesday, January 30, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः उड़ीसा में

रत्नागिरि, सूरज की तिरछी किरणों में

हरिदासपुर उतरे, तो छोटे से स्टेशन पर भारी भीड़ जमा थी। कौतूहल से ताकती-निहारती औरतें, लंबी गाड़ियों को छू-भर लेने की तमन्ना से उसके आसपास मंडराते छोकरे। मुंह में गुटखा दबाए मोबाइल पर उड़िया फिल्मी गाने बजाते चंट किशोर। बीड़ी धूंकते बूढ़े। लेकिन सबके चेहरे पर मुस्कुराहट।

हमारे साथी देशी-विदेशी सैलानी तो गेंदे की मालाओं से लद गए।

हरिदासपुर से हम सीधे ललितगिरि गए। ललितगिरि को पिकनिक स्पॉट जैसा माना जा सकता है। उत्खनन स्थल के ऐन पहले, आप पारंपरिक उडिया गांवो का दीदार कर सकते हैं। यह कटक से केन्द्रापाड़ा की तरफ जाने के रास्ते में है।

उदयगिरि, यहां पुष्पगिरि नामक विख्यात विश्वविद्यालय था

 ललितगिरि में स्तूपों के अवशेष मिले हैं। कुछ मजदूर अब भी उत्खनित अवशेषों की साप-सफाई में लगे थे। उड़ीसा में टूरिज़म महकमा उसे प्रोडक्ट बनाकर बेचने को बहुत उत्सुक है।

वहां से हमारी बस निकली तो सीधे रत्नागिरि...। स्कूली छात्रो का हुजूम कतार बनाकर खड़ा था। बच्चों को स्कूली यूनिफॉर्म में स्वागत के लिए खड़ा देखकर, मुझे लगा कि ओडिशा टूरिज़म ने इनको क्योंकर खड़ा कर दिया है।

मैंने एक बुजुर्गवार से बात की, पता चला ये स्वागत इंतज़ाम गांववालों ने अपनी मर्जी से किया है। पर्यटन बढ़ेगा तो उनके गांव का विकास होगा।

हमारे हाथों में छात्रों ने गुलाब का फूल दिया था। कांटे लगे ही थे डंठलो में, खरीदा हुआ नहीं था...किसी न किसी के बागीचे का था। मन प्रसन्न हो गया। फूलवाले की दुकान से खरीदा गुलाब इतना ख़ूबसूरत होता है कि नक़ली लगता है।

बहरहाल, स्थानीय पत्रकारों और न जाने कहां से आ जुटे लोगों ने तोशाली ग्रुप (उड़ीसा सरकार के साथ पीपीपी मॉडलपर टूरिज़म के काम में लगा होटल समूह) के खाने का बंटाधार कर दिया। हमारे साथियों में कईय़ो को खाना नहीं मिल पाया।

खाना नहीं खा सकने वाले लोगों में हम नहीं थे। ऐसी भीड़ में खाना बटोर कर खा लेने का हमारा दिल्ली वाला पत्रकारीय प्रशिक्षण बहुत काम आता है। पहले तो हम रेकी कर लेते हैं, और यह मन में बिठा लेते हैं कि ससुर क्या-क्या नहीं खाना है। और उधर का रूख़ ही नहीं करते।

लोगों के कतार में आने से ऐन पहले हम अंग्रेजी के बॉयल्ड राइस अर्थात् भात और दाल के साथ सिर्फ सलाद और मटन या चिकन (जो भी उपलब्ध हो) से थाली भर कर कोने में खिसक लेते हैं।

जब बाकी लोग अपनी थाली में रोटी, रायता, दाल, नामालूम किस्म की सलादें, हरी चटनी, प्याज, सूख चला खीरा, करीने से कुतरी मिर्च, भात, कम उबली सब्जी वगैरह के मेन्यू का डिमॉन्स्ट्रेशन दिखाते हुए खाने की जद्दोजहद में लगते हैं, मैं सीधे मिठाई की तरफ लपकता हूं। मिठाई के साथ मेरा मोह आदिम है।

रत्नागिरि में खीर के साथ कलाकंद था। अद्भुत। मुंह में लिया तो आनंद अखंड घना था।

खैर, रत्नागिरि के उत्खनन अवशेष देखने के बाद सूरज छिपने लग गया था। हमारे साथ एक बेहद प्रतिबद्ध कैमरामैन थे, खुद डीडी के गोपाल दास और एक अन्य किसी एजेन्सी के लिए, धीरज। हर शै को अपने फ्रेम में कैद कर लेने के लिए ललायित।

रत्नागिरि में सूरज की तिरछी रोशनी में भग्नावशेष बहुत खूबसूरत लग रहे थे। धीरज और गोपाल बहुत धैर्य से एक एक पल कैद कर रहे थे। हेंतमेंत में वहां से निकले, तो उदयगिरि के लिए गए, जहां पहुंचने तक द्वाभा फैल चुकी थी।

खुदाई में वहां स्तूप तक आने के लिए इस्तेमाल आने वाली पगडंडी भी मिली है। कई मूर्त्तियां, स्तूप, अवशेषों पर जो टीला बन गया उस पर काली का एक मंदिर भी था।

मुझे लगा कि इतिहास के दरीचों में सैर कर रहा हूं।

वापसी में हम साढे आठ बजे तक भुवनेश्वर पहुंचे। ट्रेन पहले से ही प्लेटफॉर्म नंबर एक पर खड़ी थी। अपने कूपे में जाने के साथ ही हमें लगा कि हम कितना थक चुके हैं...अटेंडेंट ने सूप का प्याला रख दिया था।

भुने हुए चने एक बार फिर हमने खरीद ही लिए थे...अब सूप कौन पीता भला?


2 comments:

Rahul Singh said...

8 PM का विज्ञापन याद आया.

प्रवीण पाण्डेय said...

संस्कृति का दर्शन और खीर का स्वाद, संयोग सुन्दर है।