Wednesday, June 5, 2013

चौधरी का ब्याह, गांव बलहा, मधुबनी

शादी का मसला बड़ा नाजुक होता है. हमारे एक दोस्त का हाल ही में ब्याह हुआ है। नहीं, उनके ब्याह में कोई लोचा नहीं हुआ, लेकिन दोस्ती निभाना कई दफा कितना कष्टप्रद होता है, इसका तजुर्बा हुआ हाल ही में।

चौधरी जी मेरे मित्र हैं। उनकी तरफ से कोई गलती नहीं हुई, ये पहले ही बता दूं।

शुरू से शुरू करते हैं। मई में गांव गया था, मधुबनी के पास है, बल्कि यूं कहें राजनगर के पास है मेरा गांव। मिथिला। गांव जाने का बहुत दिनों से इंतजार कर रहा था। मज़ा भी बहुत आया। बहुत सारे मांगलिक कार्य ते निबटा दिए।

26 मई को मेरे उन दोस्त का ब्याह थे। बारात जाने की इच्छा थी। (हम मैथिल हैं और भोज खाने में हमारी बड़ी  महारत है, खाते भी अच्छे से हैं, आप भोज पर बुला सकते हैं) लेकिन घरेलू काम में व्यस्त रहा बारात नहीं जा पाया।

तय र हा कि 27 की सुबह जाकर उनसे मिलूंगा। लेकिन 27 की सुबह से मिथिला क्षेत्र में इतनी भारी बरसात शुरू हुई कि जाने का कार्यक्रम टल गया।

बारिश थी कि रूक ही नहीं रही थी, तेज़ हवाएं, लगातार होती बारिश...लेकिन मित्र का ब्याह हमारे गांव के पड़ोस में ही हुआ था। जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। आखिरकार 30 तारीख को बारिश रूकते न रूकते मैंने अपने भतीजे मयंक को रथ निकालने को कहा।

हमारा रथ हीरो होंडा का है। बड़ी भरोसेमंद गाड़ी है। चालक भी भरोसेमंद था। बादलों के घेरे में, ठंडी हवा के थपेड़ों के बीच हम गांव बलहा के लिए निकले।

हमारे गांव से राजनगर की तरफ जाने वाली दो सड़कें हैं। एक खडंजे की दूसरी पक्की। डामर वाली सड़क हमने पकड़ी...अगल बगल फैली हरियाली से मिजाज प्रसन्न हो गया।

डामर वाली सड़क तक नीतीश साधुवाद के पात्र बने रहे, सड़क आगे जाकर खडंजे में तब्दील हो गई। बाईक टलमलाती हुई चल रही थी। आगे जाकर, खडंजा भी खत्म हुआ, सड़क बन रही थी। बड़े बड़े बोल्डर पड़े थे। लगा चले तो टायर पंक्चर हो जाएंगे।

बीच में दो जगह पुलें बन रही थीं, डायवर्जन पर खासी फिसलन थी। चप्पलें कीचड़ में सन गईं।

उतर कर हमने बाइक को ठेलना शुरू किया। एक किलोमीटर तक चलने के बाद बलहा गांव की सीमा में प्रवेश किया। अब समस्या थी कि चौधरी जी की ससुराल कैसे खोजी जाए। उनके श्वसुर जी के नाम से पूछा, तो पता लगा कि कई सारे टोले हैं गांव में। फिर चौधरी से फोन किया तो पता लगा उत्तरी टोले में ससुराल है उनकी।

खैर, अंधेरे के भ्रष्टाचार की तरह फैलते साम्राज्य के बीच हम उनके घर के आगे पहुंचे, तो चौधरी जी खुद अगवानी करने पहुंचे। चौधरी जी कशीदे वाले गुलाबी कुरते और लाल धोती में जंच रहे थे।

उनके अंदर गए तो पहला हमला उनके छोटे साले ने किया। उनने हमसे अनुरोध नहीं किया आदेश सुनाया, आपको खाना खाकर जाना होगा। मछली बन रही है। मछली खाने में हम कभी इनकार नहीं करते, लेकिन मौसम का मिजाज दुश्मन सरीखा हो रहा था। मेघों का गला भी रूंध रहा था,पता नहीं कब रो देते।

चाय पीकर और चौधरी जी की श्रीमती जी से दुआ-सलाम करके हम किसी तरह निकलना चाहते थे। लेकिन उनके साढ़ुओं (उनकी बड़ी सालियों के पतियों) ने रोक लिया। वो दालान में मछली तल रहे थे।

वरिष्ठ बहनोईयों का कर्तव्य होता है कि छोटी साली के विवाह में मछली तलें।

खैर, उनसे कुशल क्षेम हुई, पत्तल भर तली मछली डकारने के बाद मयंक ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। इसबार हमने दूसरा रास्ता पकड़ने का फ़ैसला किया था। रशीदपुर के रास्ते।

रास्ता गांव के बाहर जाते ही सांप की जीभ की तरह दो फांक हो गया। दूसरा रास्ता एक छोटे पुरवे के बाद रसीदपुर को जाता था। हमने वो राह पकड़ी। रास्ते में घनी अमराईयां थीं।

मयंक बच्चा ही है। महज 20 साल का। उसने रास्ते में बताया कि उसको भूतों से डर लगता है। हमने कहा कि हम हैं ना। उसको मुझ पर जरा भी भरोसा नहीं था, उसे कत्तई नहीं लगा होगा कि मैं भूतो का मुकाबला कर सकता हूं, क्योंकि उसी दोपहर क्रिकेट मैच खेलते वक्त में बहुत सस्ते में आउट हो गया था और उसकी टीम हार गई थी।

बहरहाल, टोले के बाद खडंजे की सड़क कच्ची-सी दिख रही थी। नहीं, दिख नहीं रही थी, घने घुप्प अंधेरे में क्या खाक़ दिखेगा..हमें महसूस हुआ कि अरे यह तो कच्ची है। मुंह के भारी-सी वज़नी गाली निकली।

कोने के दालान पर बैठे शख्स से पूछा, रशीदपुर कितनी दूर। उसने जवाब दिया, सड़क ठीक रहे तो दस मिनट में आप पहुंच जाएंगे, लेकिन...

हमने उसके  लेकिन पर ध्यान नहीं दिया। बारह-पंद्रह फुट के बाद ही हम लोग घुटनों क कीचड़ में थे। गाड़ी स्किड कर रही थी। उतरने के बाद भी बाईक स्किड कर रही थी। गाड़ी हमने स्टार्ट ही रखी...ताकि कम से कम रौशनी में दिखता रहे, रास्ते में इक्का-दुक्का लोग मिले भी तो हमने पूछा, रशीदपुर कितनी दूर।

सबने एक ही जवाब दिया, कनिके दूर (थोड़ी ही दूर)

लेकिन, सब झूठे थे। हम चलते जा रहे थे, चल नहीं रहे थे, हम गाड़ी के साथ घिसट रहे थे, गाड़ी हमारे साथ घिसट रही थी, कभी हम गाड़ी से लिपटते, कभी गाड़ी हमसे लिपटती। ऊपर से आम के घने बागीचे...आसमान से बूंदें टपकती, कौंधती रौशनी..गड़गड़ाहट...भुतहा फिल्मों का पूरा परिदृश्य..रामसे ब्रदर्स को हमारे इलाको को भादों की अमवस्या में जरूर चलना चाहिए।

साउंड इफैक्ट की थोड़ी कमी थी...वो कसर झींगुरों के कोरस और सियारों की हुंकारों ने पूरी कर दी। मयंक हनुमान चालीसा पढ़ रहा था, मैं नहीं पढ़ रहा था। काहे कि याद ही नहीं है...वैसे स्थियां ऐसी थीं कि पढ़ा जाना चाहिए था।

बारंबार फोन भी बज रहा था। फोन करने वालो का पता रहना चाहिए कि सामने वाला आदमी किस परिस्थिति में है। बेशर्मों ध्यान रखा करो। फोन किसी भी कीमत में नहीं उटाया जा सकता था।

बारिश में  फोन शर्तिया भींग जाता, दोयम, दोनों हाथ बाईक को पीछे से थामे हुए थे। इससे मैं बाईक को फिसलने से  बचा रहा था और खुद को भी। घुटने भर कीचड़ में उसी दिन धुली साफ पहनी जीन्स का कचरा हो गया। हमारे तरफ की मिट्टी और राजनीति बड़ी फिसलन भरी है। मिट्टी भी चिकनी है, और राजनीति भी।

खैर, डेढ़ घंटे तक बाईक खींचने और बाईक के साथ खिंचने के बाद रशीदपुर का वह कोना--टी पॉइंट--आया, जहां से हम पक्की सड़क पर चढ़ने वाले थे। लेकिन, वह मोड़ जीवन के जवानी के मोड़ सा था, जहां जरा-सी असावधानी से आदमी फिसल ही जाता है।

हम दोनों चचा-भतीजे तकरीबन कीचड़ में लोट ही गए थे कि टॉर्च पकड़े कुछ दयालु नौजवानों ने हमारी बाईक, और हमें  भी कीचड़ से खींच निकाला। हम पसीने से लथपथ थे, बारिश की बूंदो ने पूरे कपड़े तर कर दिए थे। पहियों और इंजने वाली जगह तकरीबन एक ट्रक कीचड़ लिथड़ा हुआ था। हाथ से कीचड़ की सफाई की।

सड़क के गड़ढे में जमा पानी से हाथ धोया, यह जानेत हुए कि उस गड्ढे में कई लोग मलत्याग के बाद धोते होंगे। तथापि कष्टों का अंत यहीं नहीं हुआ।

चौधरी जी के गांव में खाई मछली कब की पच गई थी। चौधरी जी अपनी चतुर्थी की तैयारियों में व्यस्त होंगे, उधर उनके मित्र इस घनघोर संकट में पड़े थे, पता होगा उनको?? नहीं ना।

तो साहब, बाईक स्टार्ट कर अपन जब चढ़े ही, तब ही इंद्र देवता ने घनघोर बरसात शुरू कर दी। पता नहीं इंद्र मुझसे जलता क्यों है,मुझे देखते ही उसका सिंहासन डोलने लगता है।

वहां से महज 8 किलोमीटर है हमारा गांव, लेकिन जनाब छक्के छूट गए। पूरा रास्ता ऐसा है जिसमें टिकने केलिए कोई जगह नहीं, ना सड़क के ऐन किनारे कोई पेड़. पेड़ नीचे हैं, जहां झाड़ियों में शंकर जी का सांप मुलाकात के लिए मौजूद होता।

गांव पहुंचे तो भाभी से गुजारिश की कि गरमागरम कॉफी पिलाई जाए। भैया काफी परेशान थे, कि इतनी रात को बलहा से लौटेगा कैसे..लेकिन हम लौट आए।

बारिश में लौट तो आए, लेकिन ऐसी खांसी लेकर लौटे, तेज़ जुकाम हुआ और जनाब 5 दिन बीतने के बात आज भी ऐसे खांस रहे हैं, कि कई मित्रों को लग रहा है कि तपेदिक का मरीज तो नहीं हो गया।

चौधरी साहब, प्रायश्चित करना होगा आपको इसका...समझे आप। आपके ब्याह में जाकर हमने भी किसी न किसी पाप का प्रायश्चित ही किया होगा।






5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

ब्याह में जाना सदा याद रहता है, न जाने कितने किस्से जुड़े रहते हैं, रोचक।

Manish Jha said...

हम तो इतना कहेंगे की चौधरी जी को अवश्य हीं प्रायश्चित करना चाहिए क्योंकि
चौधरी जी के चतुर्थी में आपके साथ चमत्कार हुआ है ...
''पढ़ के खूब सारी चीज़े जो बरसात के मौसम में अपने यहाँ होता है याद आया ...अतिसुन्दर लेख ...धन्यवाद.

कुमारी सुनीता said...

Maja aa gya aapki "ADVENTURE DAASTAAN" padh kr.

Rath, indraasan, barish, bhoot ... Ha ha ha ......... interesting

Ab tak to RAMSEY BROTHER nikal chuke honge.

Aapke saath-saath is adventure ko hum logo ne bhi mehsoos kiya (indirectly).

once again writing skill is SupB.

सञ्जय झा said...

rasidpur tak gelahun aa 'karmouli' naih ailaunh ..... bhoj udhar rahal..


pranam.

Unknown said...

wow. Great interpertion of situation in rainy season in bihar.

aapke blog ko padkar Madhubani main biteye apne bachpan ke din yaad aa gaye.

SHIV K JHA
RANTI.