Thursday, October 3, 2013

बिहारी होने की परिभाषा को बदलिए मीलॉर्ड!



भगवान की कसम खा कर कहता हूँ भाई, हम वो बिहारी नहीं हैं जो लालू बताते रहे हैं आपको। हम वो बिहारी हैं जैसा दिनकर, नागार्जुन, विद्यापति ने आपको बताया होगा।

सच कह रहा हूँ भाई, हम वैसे नहीं ठठाते हैं जैसा लालू ठठाते थे, हम वैसे मुस्कुराते हैं जैसे बुद्ध मुस्कुराते थे। आप तय मानिए भाई, वो लाठी हमारी पहचान कभी नहीं रही जिसे लालू ने चमकाया था। हमारे पास तो वो लाठी थी जिसे थाम कर मोहनदास, 'महात्मा' बन गए।

अब तो मान लीजिये प्लीज़ कि हमारी वीरता 'भूराबाल' साफ़ करने में नहीं थी, हम तो 'महावीर' बनना सीखते रहे थे। माटी की कसम खा कर कह रहा हूँ साहब, हम कभी 'बिहारी टाईप' भाषा नहीं बोलते रहे हैं। हम मैथिली-भोजपुरी-मगही-अंगिका-बज्जिका बोलते हैं सर। 

तय मानिए सर हम चारा नहीं खाते, गाय पालते हैं। सच कह रहा हूँ मालिक, हम लौंडा नाच नहीं कराते, सोहर-समदाउन और बटगबनी गाते हैं भाई। 

हम घर नहीं जलाते भाई, सच कह रहा हूँ, सामा-चकेवा के भाई-बहन के पावन त्योहार में हम चुगले (चुगलखोर) को जलाते हैं। आप मानिए प्लीज़ कि लालू हमारे 'कंस' महज़ इसलिए ही नहीं हैं की वे पशुओं का चारा खा गए। वे हमारे लिए बख्तियार खिलजी इसलिए हैं क्यूंकि उन्होंने हमारी पहचान को जला डाला, हमारी पुस्तकें जला डालीं, हमारी सभ्यता, संस्कृति सबको लालूनुमा बना डाला। 
 
तय मानिए प्रिय भारतवासियों, हम भी उसी देश के निवासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। लालू के 'बथानीटोले' का बिहार दूसरा था जहां खून की नदियाँ बह गयी थी, हमारा तो दिनकर वाला सिमरिया है जहां के गंगा किनारे कोई विद्यापति गाते थे 'बर सुखसार पाओल तुअ तीरे....! 

नयनों में नीर भर कर हम अपने उसी बिहार को उगना की तरह तलाशते हुए द्रवित हो पुकार रहे हैं 'उगना रे मोर कतय गेलाह.' ठीक है अब चारा वापस नहीं आयेगा. हम जैसे लोगों का भविष्य लौट कर नहीं आयेगा. लेकिन प्लीज़ सर, प्लीज़ प्लीज़ हमारी पहचान लौटा दीजिये. 'भौंडे बिहारीपना' की बना दी गयी मेरी पहचान को सदा के लिए बिरसा मुंडा जेल में ही बंद कर दीजिये मेरे भाई. त्राहिमाम.

--पंकज कुमार झा के फेसवुक वॉल से
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5 comments:

Pradeepika Saraswat said...

सचमुच, बिहारी होना जैसे गुनाह बना दिया गया है. इस सोच को बदलने की ज़रुरत है. इस विषय पर इन विवेकपूर्ण शब्दों के लिए बधाई!

richa srivastava said...

स भावऩात्मक आलेख के लिए बधाई। आज वास्तव में समय आ गया है कि बिहार और बिहारी होने की नई परिभाषा गढ़ी जाए।गौतम बुद्ध,,महावीर, और डा. राजेन्द्र प्रसाद की थाती को फिर से सहेजा जाय।सुंदर आलेख..

सञ्जय झा said...

aise hi apne vichar-punj pravahman banaye rakhiye..........'kisi me-lord' ko agrah ki jaroorat nahi...


sadar.

प्रवीण पाण्डेय said...

हम बिहार में रहे हैं, हमें बिहार की संभावनाओं पर पूर्ण विश्वास है।

अनूप शुक्ल said...

खूब!