Tuesday, May 6, 2014

बंगाल डायरीः मालदा में आम नहीं, सरेआम है...



मालदा मुझे नॉस्टेल्जिक करता है। मैंने पिछली दफा भी, साल 2009 में यहीं से बंगाल के चुनाव करने की शुरूआत की थी। ठीक पांच साल बाद एक चक्र पूरा हो गया। बंगाल डायरी में 2009 के बाद से आए पोरिबोर्तन की तलाश कर रहा हूं।--मंजीत

दिल्ली से हावड़ा उतरा तो काफी ऊमस महसूस हुई थी। उन दिनों दिल्ली में बारिश के बाद का मौसम था। सुबह और शामें ठंडी हुआ करती थी। जनाब, 15 अप्रैल के आसपास का मौसम याद कर लीजिए।

ट्रेन साढ़े बारह के आसपास पहुंची थी तो हमने कोलकाता में दफ्तर जाकर साथियों से मिलने की बनिस्बत सीधे मालदा का रूख करना बेहतर समझा। लंबे दौर पर गाड़ी में कुछ ज़रूरी चीजें रखना बहुत अच्छा होता है। पानी का कैन इनमें सबसे अहम है।

अगले कुछ घंटे कोलकाता से बाहर निकलने और पानी का कैन खरीदने में ज़ाया हुए। चार के बजे के आसपास हम कोलकाता से बाहर निकल पाए। हाईवे पकड़ी। साल 2011 में विधानसभा चुनाव कवर करने आया था, तब ही यह हाईवे निर्माणाधीन थी, 2009 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी। सात साल से यह हाईवे कभी इस लेन कभी उस लेन में बनती दिखती है। बनती है या नहीं आसमान जाने।
हमने अपने ओबी वैन के साथियों को होटल के लिए कह रखा था। लेकिन फरक्का बराज पार करते-करते रात के दस बीत गए थे। फरक्का बराज पर हैडलाईटें बुझा दी जाती हैं, कौन जाने क्यों। बराज पार करने  के बाद और मुर्शिदाबाद से ऐन पहले एक ढाबे पर रूके, ताकि रात का खाना खा लिया जाए।

रोटी, दाल तड़का और अंडे की भुरजी...।

अंडे की भुरजी में ढाबेवाले ने नमक डालने में कफी दरियादिली दिखाई थी। बहरहाल, मालदा पहुंचने और अगले दिन दोपहर तक नॉस्टेल्जिक होने के सिवा हमने कुछ काम किया नहीं।

लेकिन, मुझे खयाल था कि मालदा अस्पताल ही वह जगह है जहां बहुत सारे नवजात शिशुओं की मौत हुई है। मावदा के आम का मीठापन हल्का हो गया। वैसे भी इस दफा मालदा में आम नहीं आए हैं। आम के पेड़ क्रिकेट में शून्य पर आउट हुए बल्लेबाज़ की तरह सिर झुकाए खड़े थे।

मालदा में बच्चों की मौत एक ऐसा मसला था, जो कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। इसबार भी नहीं। सेहत और शिक्षा जैसे मसले चुनावी मुद्दा क्यों नहीं होते? जरा ग़ौर कीजिएगा—

जुलाई 2011—26 बच्चे, 25 अक्तूबर 2011—24 घंटे के अंदर 11 बच्चे, उसी साल नवंबर में 16 बच्चे, जनवरी 2012 में, 20 दिन के भीतर 82 बच्चे, अप्रैल 2012 में 2 दिन क भीतर 13 बच्चे, और जनवरी 2014 में 25 बच्चे काल के गाल में समा गए।

मैंने सिर्फ वही आंकड़े दिए हैं जो 10 से ज्यादा हैं।

मालदा का जिला अस्पताल इस इलाके का एकमात्र सरकारी अस्पताल है, एकमात्र रेफरल अस्पताल भी। यहां मुर्शिदाबाद, जंगीपुर, उत्तरी और दक्षिणी दीनाजपुर के ही नहीं पड़ोसी राज्य बिहार के लोग भी इलाज कराने आते हैं। सिर्फ मालदा ज़िले की 33 लाख आबादी का बोझ तो खैर है ही इस अस्पताल पर।

इतनी बड़ी तादाद में नवजातों की मौत क्या सिर्फ बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के अकाल का मसला है? नहीं। यह इस इलाके के पिछड़ेपन के साथ एक सामाजार्थिक समस्या भी है।

पश्चिम बंगाल की समाज कल्याण मंत्री सावित्री मित्रा इस समस्या के लिए पूर्ववर्ती वाममोर्चे की सरकार को दोषी ठहराती है। उन्होंने मुझसे साफ कहा, 34 साल की वाम मोर्चे की सरकार ने ही विकास के इस काम में इलाके को पीछे छोड़ दिया था। हम 35 महीने में ही तस्वीर कैसे बदल सकते हैं?’ खैर, दुरुस्त ही कहा।

लेकिन चुनावी घोषणापत्रों से यह मसला गायब है। सिर्फ कांग्रेस ही है जिसने सेहत के अधिकार का वायदा किया है।

जारी...



1 comment:

रामकृपाल said...

Manjit Bhaiya Bahut Accha ..... Sabdo ko thik jagah pe jod kar man ki bhawana ko post mai ubhar kar lane ki kala bejod hai ...