नीलेश मिसरा का कॉल आया तो मैं बेचैन हो उठा था। गांव कनेक्शन देशज अखबार है। गांव का अखबार। पहले भी कई दफा उसमें लिख चुका हूं, लेकिन स्थायी स्तंभ? मुझ जैसे अदना आदमी को सर पर चढ़ाना नीलेश मिसरा की पुरानी आदत है। बहरहाल, 2 फरवरी के अंक के साथ गांव कनेक्शन में स्तंभ शुरू हो चुका है। पहला अंक, गणतंत्र दिवस हाल ही में बीता था, उसी पर है। और हां, स्तंभ का नाम मैं कुछ आवारगी टाइप रखना चाह रहा था, लेकिन कंटेट को देखते हुए नीलेश दा ने दो-टूक पर मुहर लगा दी। --मंजीत
"गणतंत्र दिवस की
पूर्व-संध्या पर राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संदेश आया। यह कर्मकांड की तरह
रस्मी हो गया था। इस दफ़ा, संबोधन में कम से कम दो बातें ऐसी हैं जिनपर गौर किया
जाना ज़रूरी है। अव्वल, राष्ट्रपति ने कहा कि बिना चर्चा किए क़ानून बनाया जाना
लोकतंत्र के हित में नही है। ज़ाहिर है, यह उन अध्यादेशों की तरफ इशारा है जो हाल
के महीनों में सरकार लेकर आई है।
इनमें से सबसे
अधिक गौर की जाने लायक भूमि अधिग्रहण अधिनियम पर आया अध्यादेश है। पुराने कानून
में, जो 1984 में बना था, मनमाने तरीके से अधिग्रहण होते थे। किसानों को पर्याप्त
मुआवज़ा भी नहीं मिल पाता था। यूपीए की सरकार ने विपक्ष को भी अपने पक्ष में करते
हुए पहले के मुकाबले बेहतर कानून तो बना दिया, लेकिन यह कानून चुनाव केन्द्रित था।
कांग्रेस को लगा था कि यह कानून उसके लिए वही काम करेगा जो मनरेगा ने यूपीए-एक के
लिए किया था।
अध्यादेश के
ज़रिए इस कानून को नरम बनाया गया है। पहले से ही झेल रहे किसानों के लिए ज़मीन
बचाने का आधार और सख्त हो जाएगा। ज़मीने किसी के लिए विशुद्ध रोज़गार होती हैं तो
किसी के लिए किसी प्रोजेक्ट का बुनियादा आधार।
ऐसे में बड़ा
सवाल है कि आखिर ज़मीन हासिल करने के मामले में किसे वरीयता दी जानी चाहिए। किसान
का फायदा कहां है और अगर ज़मीन किसी परियोजना के लिए उद्योगपतियों को दी जानी है
तो उसके लिए मापदंड क्या होंगे।
बहरहाल, राष्ट्रपति
के संबोधन में दूसरी बात यह गौर की जा सकती है कि उन्होंने गणतंत्र दिवस के बहाने
संविधान के चार मुख्य स्तंभों की याद दिलाई है। इनमे से एक है, गरीबों को उनकी
हालत से बाहर निकलने में मदद करना।
इधर, कुछ खबरें
ऐसी आई हैं, और सही ही आई हैं कि देश में यूरिया का संकट है। यह संकट घना है। गांव
कनेक्शन जैसे अखबार को छोड़ दें, तो कुछेक अखबारों या पत्रिकाओ ने ही इस पर स्टोरी
की है। टीवी के लिए किसान तबतक स्टोरी नहीं होते, जब तक वह चैनल खुद दूरदर्शन न
हो। या फिर किसानों ने बहुत बड़ी संख्या में आत्महत्या न कर ली हो।
रिपोर्टों के
मुताबिक, देश में 15 से 20 लाख टन तक यूरिया की कमी है। देश में 3.2 करोड़ टन
यूरिया की मांग है, उत्पादन होता है 2.3 करोड़ टन। सत्तर-अस्सी लाख टन यूरिया आयात
किया जाता है।
बरौनी, सिंदरी
खाद के सारे कारखाने बंद हो गए हैं। किसानों का क्या होगा..यह किसी के सोचने के
दायरे में नहीं आता। बुंदेलखंड, कर्नाटक, नियामगिरि, श्यौपुर-शिवपुरी हर जगह किसान
हाशिए पर है। किसानी का नारा देना, उनके वोट बटोरने के लिए सिर पर हरी पगड़ी पहन
लेना आसान है। किसान के हित में काम करना मुश्किल।
आंकड़ेबाज़ यह
तर्क देंगे कि देश के जीडीपी में आखिर खेती की हिस्सेदारी है ही कितना। मुझे
आंकड़े परेशान करत हैं। किसानों की हालत के बारे में जब भी सोचता हूं, पहली तस्वीर
चित्रकूट जिले के पवा गांव की बदोलन बाई की कौंधती है।
बदोलन बाई का घर
किसी कोण से झोंपड़ा भी नहीं लगता था। तीन तरफ से गिरी हुई दीवारों की वजह से,
मुमकिन है इसे आप खंडहर कह लें। बदोलन के पति भूमिहीन मज़दूर थे। सूखे की वजह से
इस खेतिहर मज़दूर को काम मिलना बंद हो गया। बदोलन के दो बेटे थे, बड़ा बेटा दिमागी
रूप से कमजोर है। भुखमरी हुई तो छोटा घर से निकल गया, उसका कहीं पता नहीं।
पति को एक रात
आख़री बार भूख लगी। अब गांव वाले उसे कुछ खिला देते हैं दया दिखाते हुए तो बदोलन
और उसके बड़े बेटे का पेट चलता है। मैं उस गांव में गया था, तो मेरी दादी की उम्र
की बदोलन बार-बार पैरों पर गिरी जाती है थी। ‘सब राज-काज होत दुनिय़ा
मा...एक हमरे सुधि न लैहे कोय’....बदोलन का विलाप मुझे भारतीय गणतंत्र का विलाप लग
रहा है।
राष्ट्रपति के संबोधन में भारत के सभी गरीबों को एक पंक्ति में समेटा गया है।
लेकिन अच्छा है कि कम से कम जिक्र तो है। न होता तो हम क्या कर लेते।"
(यह लेख गांव कनेक्शन अखबार में प्रकाशित हो चुका है)
No comments:
Post a Comment