सौजन्यः गांव कनेक्शन |
पिछले हफ्ते
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजस्थान के सूरतगढ़ में थे। विभिन्न राज्यों और देशभर
के किसानों को प्रधानमंत्री ने अधिक अन्न उपजाने के लिए कृषि कर्मण पुरस्कार दिए।
मुझे अच्छी तरह से याद है, पहले यह पुरस्कार कहीं और नहीं, बेहद उबाऊ सरकारी आयोजन
की तरह दिल्ली के विज्ञान भवन में दिए जाते थे। अच्छा हुआ, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश
पर पदयात्रा की खबरों के बीच सरकार किसानों के बीच पहुंची।
सूरतगढ़ में एक
और गौरतलब शुरूआत हुई। यह शुरूआत थी किसानों को उनके खेतों की मिट्टी की सेहत से
वाकिफ कराने के लिए सेंट्रल सॉइल हेल्थ कार्ड स्कीम की। इसके ज़रिए किसानों को
उनकी खेतों की मिट्टी के बारे में लैब में जांच करके बताया जाएगा। केंद्र सरकार ने
इस योजना के लिए फिलहाल तरीब 600 करोड़ रुपये का इंतजाम किया है।
अब इस स्कीम के
लॉन्च के बरअक्स मैं दूसरी खबर के बारे में बताना ठीक समझता हूं। ख़बर उत्तर
प्रदेश के दनकौर की है। दनकौर और जेवर ब्लॉक के करीब 8 हजार खेतों से लिए गए
मिट्टी के नमूनों की जांच ने सबको चौंका दिया है।
रासायनिक उर्वरक
और नमक यहां की जमीन को बंजर कर रहा है। बिलासपुर की लैब में लिए गए मिट्टी के नमूनों
के आधार पर कृषि विशेषज्ञ कह रहे हैं कि खेतों में अच्छी पैदावार लेने के लिए
केमिकल फर्टिलाइजर, नमक और कीटनाशक
दवाइयों के ज्यादा इस्तेमाल से जमीन बंजर बनती जा रही है। इलाके की मिट्टी में ऑर्गेनिक
कार्बन की मात्रा बेहद ही कम पाई गई है। इसके अलावा जीवांश की मात्रा न्यूनतम,
फास्फोरस अति न्यूनतम और
पोटाश की मात्रा भी न्यूनतम ही पाई गई है। इन सभी की मात्रा 80 से लेकर 100
पर्सेंट तक होनी जरूरी है। कृषि एक्सपर्ट की मानें तो अच्छी पैदावार लेने के लिए
मिट्टी में 16 पोषक तत्व होने अति आवश्यक हैं। यहां किसानों को सिर्फ जिंक व सल्फर
डाइआक्साइड जैसे ही पोषक तत्व मिल रहे हैं। आने वाले दिनों में यह भी कम होते चले
जाएंगे। इसकी वजह है
खेतों में केमिकल फर्टिलाइजर, नमक और कीटनाशक दवाओं का भारी प्रयोग।
प्रधानमंत्री से
जुड़ी एक और योजना का जिक्र यहां मैं करना चाहता हूं, वह है गंगा की सफाई का। गंगा
को स्वच्छ बनाने के लिए सरकार अपने तरह से कोशिशें शुरू कर चुकी है और इसके तीन
मुख्य मानक होते हैं पानी में जैव-रासायनिक ऑक्सीजन की मांग, घुलनशील ऑक्सीजन और
कॉलिफॉर्म बैक्टिरिया की प्रति सौ मिलीलीटर संख्या।
एक मिसाल लेते
हैं। अगर गंगा के तट से पचास-साठ किलोमीटर के दायरे में कोई किसान अपनी खेतों में जरूरत
से अधिक उर्वरक का इस्तेमाल करता है। तो यह उर्वरक खेतों में पड़ा रह जाता है।
बरसात में खेतों के पानी में घुलकर यह उर्वरक बरास्ते सहायक नदियों के, गंगा में आ
मिलता है।
इस उर्वरक की वजह
से गंगा में शैवालों की बढ़ोत्तरी सामान्य से ज्यादा तेजी से होती है। मूल रूप से
ये शैवाल पानी के बहाव को बाधित करते हैं और प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए ऑक्सीजन
पानी में छोड़ते भी हैं। इससे पानी मेम घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाएगी,
लेकिन साथ ही पानी में जलीय जीवों का खात्मा हो जाएगा।
इस परिस्थिति को
आप पारिस्थितिकीय जटिलता की श्रेणी में रख सकते हैं। इससे गंगा को साफ करने के सामान्य
तरीके बेअसर साबित होते जाएंगे और फिर जटिल वैज्ञानिक तरीकों का विकल्प ही बच
रहेगा।
यानी, मिट्टी की
सेहत बचानी हो और लंबे वक्त तक पैदावार लेना हो, तो पानी, उर्वरक और रसायनों का
बहुत सोचसमझ कर इस्तेमाल करना होगा। दनकौर हो या पानी से जूझता राजस्थान का कोई
जिला, इन संसाधनों का किफायती इस्तेमाल खेती की लागत को कम ही करेगा। टिकाऊ विकास
की रणनीति भी यही कहती है।
मंजीत ठाकुर
(यह लेख गांव कनेक्शन में मेरे स्थायी स्तंभ, दो-टूक में प्रकाशित हो चुका है)
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