बिहार में
विधानसभा चुनाव की ताऱीखों को ऐलान भले न हुआ हो लेकिन सियासी सरगर्मियां कितनी
तेज़ हैं, इसके बारे में किसी टिप्पणी की जरूरत नहीं है। लेकिन इससे
पहले कि हम जातिगत और सामाजार्थिक जनगणना के आंकड़ों और उसके आधार पर बिहार के
चुनावों के समीकरणों और जीत की प्रोजेक्शनों पर अटकलबाज़ियां शुरू करें, जरा अतीत के सफर पर निकलना मज़ेदार होगा। एक-एक कर इन नेताओं के अतीत और सियासी ज़मीन की तलाश करना मजेदार सफ़र होगा।
अभी दो हफ्ते
पहले ही देश में आपातकाल लागू होने की चालीसवीं सालगिरह थी। आपको याद होगा कि सन 74’ के छात्र आंदोलन और जयप्रकाश नारायण की लड़ाई से जो छात्र नेता उपजे उन्हीं
का आज की बिहार की राजनीति में दखल है। चाहे वो लालू हों, या नीतीश, शरद यादव, जाबिर हुसैन या रामविलास पासवान या फिर सुशील
मोदी।
लेकिन इनमें से
लालू का उदय धूमकेतु की तरह हुआ था। नब्बे के शुरूआती साल में लालू प्रसाद का
बिहार का मुख्यमंत्री बनना एक बड़ी राजनीतिक घटना थी। 1990 में जब जनता दल ने बिहार विधानसभा का चुनाव जीता था उस वक्त लालू जनता दल के
दोयन दर्जे के नेता थे। लेकिन रामसुंदर दास और रघुनाथ झा जैसे कद्दावरों को पीछे
छोड़कर लालू मुख्यमंत्री बने थे।
तब लालू ने कई
सियासी जुमले गढ़े थे। दावा किया था, वह बीस साल तक राज करेंगे।
लालू ने गांधी
मैदान में जब जेपी की प्रतिमा के सामने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का फ़ैसला लिया
था तो लोगों को लगा था अब असली माटी के लाल का राज आ गया है।
असल में, लालू प्रसाद ने जयप्रकाश नारायण के जाति तोड़ो के नारे को रंग और आकार दिया
था। लेकिन उनकी उस शुरूआती इमेज और आज की उनकी छवि में गजब का विरोधाभास है।
लालू भ्रष्टाचार
के जिस नारे के ख़िलाफ़ सत्ता पर क़ाबिज़ हुए थे, वही उनका राजनीति आधार बन गया। आज की तारीख़ में
लालू चुनाव नहीं लड़ सकते। उऩकी जेबी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के सांसदों में से
एक भी उनके परिवार का नहीं है। कभी उनके भरोसेमंद रहे पप्पू यादव से उनकी
उत्तराधिकार के मसले पर ठन चुकी है और लालू ने साफ कह दिया है उनका बेटा चुनाव
नहीं लड़ेगा तो क्या भैंस चराएगा।
बहरहाल, लालू जब मुख्यमंत्री बने थे तो उनका क़द भी उतना बड़ा नहीं था। लेकिन रथयात्रा
के दौरान आडवाणी को गिरफ़्तार करके लालू प्रसाद दुनिया भर में मशहूर हो गए। उनकी
इस मशहूरियत को धार दी थी, उनकी शिगूफेबाज़ी ने, उन पर चल निकले चुटकुलों ने, उनके खुद के लतीफो ने। वह कभी पटना की सड़को पर भूंजा खाते, कभी दलितों के बच्चों की हजामत करवाते और कभी उन्हें नहलाते। लेकिन सामाजिक
न्याय को इस तरह प्रतीक रूप में खबरो में लाने वाले लालू उसे आर्थिक न्याय में
नहीं बदल पाए।
हो सकता है या तो
उनकी मंशा ही न रही हो, या फिर इस काम के लिए उनके पास अदद टीम की कमी रही हो। जो
भी हो, लालू का क़द बढ़ता चला गया। और बिहार में उनकी पार्टी के
दूसरे नेताओं, मसलन जॉर्ज, और नीतीश का क़द छोटा होता गया। ऐसे में जॉर्ज फर्नाडीज़ और
नीतीश ने अलग होकर 1994 में समता पार्टी बना ली थी।
1995 का विधानसभा चुनाव जनता दल, कांग्रेस, समता पार्टी और बीजेपी ने अलग-अलग लड़ा था। कांग्रेस को मुस्लिम और दलित वोटों की उम्मीद थी। समता पार्टी को
यादवों के अलावा बाक़ी सभी पिछड़ी जातियों की (पढ़िए कुर्मी-कोयरी)। बीजेपी के पास अयोध्या-कांड के बाद विवादित ढांचे के विध्वंस के चलते अगड़ों के साथ का समीकरण था। लेकिन
लालू ने बैलेट बॉक्स से माई या मुस्लिम-यादवो का नया समीकरण खड़ा कर दिया था।
लेकिन वक्त के
साथ नीतीश की सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) ने लालू को अप्रासंगिक कर दिया। अब दोनों दुश्मन एक पाले
में गलबहियां दिए खड़े हैं, क्योंकि दोनों का साजा दुश्मन एक है।
कभी किंग और
किंगमेकर रहे लालू यादव को अपने बेटों के लिए पप्पू से झगड़ते देखना राजनीति और
इतिहास के चक्रीय होने का सुबूत ही तो है।
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