Tuesday, August 25, 2015

जबरजस्त, जिन्दाबाद...नवाज़!!

मुझे यह कहने में क़त्तई गुरेज़ नहीं कि मांझी पूरी तरह नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की फ़िल्म है। केतन मेहता निर्देशक हैं जरूर, लेकिन यह फिल्म पूरी तरह नवाज़ की है।

इस फिल्म के ही बहाने दशरथ मांझी अचानक चर्चा में आ गए हैं। गहलौर चर्चा में आ गया है। नवाज़ तो खैर फिल्म कहानी के बाद से अपनी हर फिल्म की वजह से चर्चा में रहते ही हैं, चाहे किक हो, लंचबॉक्स हो या फिर बजरंगी भाईजान...लेकिन अब तो लोग उनकी पुरानी फिल्में देखकर उनकी भी चर्चा करने लगे हैं। मिसाल के तौर पर, सरफरोश में वह 45 सेकेन्ड की भूमिका में थे, पीपली लाइव में थे...शॉर्ट फिल्म बाईपास में थे।

नवाज़ अपनी हर अगली फिल्म के साथ निखरते जाते हैं, और इस बिनाह पर कहें तो हैरत की बात नहीं कि मांझी उनकी अब तक की सबसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म है।

फिल्म शुरू होते ही आप ख़ून से लथपथ नवाज़ को देखते हैं जो सीधे पहाड़ को ललकारता है। फिर आप पत्थरों पर हथौड़े पड़ते देखते हैं। फिर ज़मींदार के उत्पीड़न, पत्रकारिता को देखते हैं। कहानी के साथ आप बहते जाते हैं। मेहता को यह सब करना ही था, क्योंकि 22 साल के दौर में बिहार में जो कुछ हुआ, उसे दर्ज किए बगैर यह फिल्म पूरी ही नहीं हो सकती थी। इस लिहाज़ से यह बहुत जरूरी फिल्म है।

एक बार फिर मैं यह कह रहा हूं कि बेहद शानदार यह फिल्म, सिर्फ नवाज़ की है। थोड़ी बहुत राधिका आप्टे की है। तिग्मांशु धूलिया और पंकज त्रिपाठी में गैंग्स ऑफ वासेपुर की छाप है और दोनों ही अभी तक उसके हैंगओवर से बाहर नहीं निकल पाए हैं।

जाति प्रथा पर चोट करती हुई यह फिल्म मारक लगती है। लेकिन मुसहरों का कोई बड़ा रेफरेंस नहीं देती है। अब बिहार-पूर्वी यूपी के अलावा बाकी देश और विदेश के लोगों को मुसहरों का व्यापक संदर्भ नहीं मिल पाता। सिर्फ इतना रजिस्टर हो पाता है कि मुसहर एक अछूत जाति है।
तो यह फिल्म इसके कलाकारों और दशरथ मांझी की है। लेकिन यह फिल्म केतन मेहता की नहीं है। फिल्म शुरू होते वक्त अधूरा लगता है और बिना किसी संदर्भ के शुरू हो जाता है। (यह निजी अहसास है) कैमरा पहाड़ को उसकी विशालता में क़ैद तो करता है लेकिन निर्देशक बारीकी में पिछड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर, सन् 1975 में भारतीय रेल का कोई डब्बा नीला नहीं था। पूरे देश में रेल के डब्बे सिर्फ लाल रंग के होते थे।

तब, यानी 1975 में जब मांझी इंदिरा गांधी से मिलने दिल्ली जा रहे होते हैं, तो रेल के भीतर तीसरे (या दूसरे?) दर्जे की साफ-सफाई भी अचंभित करती है। वह जाहिर है, वज़ीरगंज में चढ़ रहे थे लेकिन...चलिए इतनी साफ-सुथरी रेल से बिहारवासियों को ईर्ष्या हो सकती है।

जमीन्दार वाले कुछ दृश्य ढीले हैं और उसमें और कसावट लाई जा सकती थी।

लेकिन, केतन मेहता की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने नवाज़ुद्दीन के मोहब्बत के अंदाज़ को एकदम अलहदा अंदाज़ में पेश किया है। राधिका आप्टे और नवाज़ का प्रेम परदे पर अल्हड़ भी है, मज़ेदार भी और कई दफ़ा उन्मुक्त भी। लेकिन अब तक रूखड़े किरदार निभा रहे नवाज़ ने साबित कर दिया कि उनका रोमांस—मैं दशरथ मांझी वाले किरदार की नहीं, नवाज़ के इस किरदार को निभाने की बात कर रहा—शाहरूख वाले रोमांस से बेहतर है।

वैसे, मेरे छिद्रान्वेषण और गुस्ताख़ी को छोड़ दें तो केतन तो केतन ही हैं। ज्यादातर दर्शक और संभवतया समीक्षक भी नवाज़ में चिपककर गए होंगे। लेकिन गरीबी हटाओ का नारा दे रही इंदिरा गांधी के टूटते मंच को जिसतरह मांझी जैसे चार लोगों ने कंधे का सहारा दिया है, यह मेटाफर ही उस वक्त के सियासी कहानी के कहने के लिए काफी है। केतन मेहता की इसके लिए मैं जी खोल कर तारीफ करना चाहता हूं।

संवाद तो शानदार हैं ही। जब तक तोड़ेगा नहीं...या फिर क्या पता भगवान आपके भरोसे बैठा हो..पहले ही हिट हैं। और दिलकश भी।

दशरथ मांझी की कहानी पहले ही बहुत प्रेरणादायी है, नवाज़ की अदाकारी और केतन मेहता के कमोबेश आला दर्जे के निर्देशन ने इसे नए आयाम दिए हैं।

3 comments:

sanju baba said...

great..

Ajay kumar Banty said...

जानदार जबरदस्त विश्लेषण

k m dubey sagar said...

नवाज के कायल हुये हम 'बजरंगी..: से!
अब ये फ़िल्म जरूर देखना चाहेंगे।