Monday, March 28, 2016

लंदन बनने के कलकतिया सपने

कोलकाता के एक झुग्गी में घूम रहा था। एक नल, न जाने कितने लोग। कतार में खड़े होकर खाली बाल्टी लिए, अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। बस्ती में गंदगी है। सफाई वाला हफ्ते में एक बार आता है।

मैं एक महिला से पूछता हूं- समस्या होती होगी? वह नकार देती है, कहती है बस सफाई हो नियमित रूप से तो कोई समस्या नहीं है। अपनी टूटी झुग्गी को ठीक कर रहे रमेश राम बिहार के मोकामा से यहां आकर रहते हैं। जाहिर हैः रोज़ी के लिए। वह कहते हैं, नल से दोनों वक्त पानी आए तो फिर कोई समस्या नहीं है। बिजली के लिए कोई नियमित कनेक्शन नहीं है, कनेक्शन मिल जाए तो फिर कोई समस्या नहीं है।

कोलकाता सिटी ऑफ जॉय है। आनंद का शहर। उत्सव का शहर। इसलिए समस्याओं के बीच भी कोई समस्या नहीं है। लोग आनंद में हैं। सीमित साधनों में। बुनियादी समस्याओं से जूझते हैं, कहते हैं कोई समस्या नहीं है। कम साधनों, गंदगी और कमियों के बीच उनको जीने की आदत पड़ गई है इसलिए कोई समस्या नहीं है।

रात के दस बजे निकलता हूं, बालीगंज रेलवे स्टेशन के पास फ्लाई ओवर के नीचे नजर जाती है। दिन में जहां दुकानों की कतार थी वहां लोग कतार से सोए पड़े हैं। उनको जगाकर पूछता हूं- यहां सोने में क्या समस्या है? कहते हैं- कोई समस्या नहीं।

बंगाल की राजनीति का एक अनोखा पहलू है। आदमी कहता है कोई समस्या नहीं है। फ्लाई ओवर के पास कतार में सोए आदमियों के ऊपर कतार से तीन लैम्पों वाला लैम्प पोस्ट है। ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनाव में वादा किया थाः कोलकाता को लंदन बना देंगी।

मैं कोलकाता को लंदन होते हुए देखना चाहता हूं। लेकिन ममता ने सबसे पहला काम किया कि पूरे शहर में एक खास किस्म की लाईटें लगवाईं। विपक्षी इनको त्रिकुटी लाइट कहते हैं। विपक्षी आरोप लगाते हैं कि महज 6 हजार वाली इन त्रिकुटी लाइटों को लगाने में 39 हजार का खर्च आया है। आरोप अपनी जगह है। त्रिकुटी लाईटें देखने में बहुत खूबसूरत हैं। उससे भी खूबसूरत है, उसके पोस्ट से लिपटी सफेद-नीली छुटके बल्ब। लैंपपोस्ट के नीचे स़ड़क पर सोने वालों तक इस त्रिकुटी लाईट की रोशनी नही पहुंचती तो क्या हुआ। कोई समस्या नहीं है।

कोलकाता को लंदन बनाने का यह पहला दौर था। फिर, कोलकाता की सभी सार्वजनिक इमारतों का रंग नीला-सफेद करने का दौर शुरू हुआ। कोलकाता में हर फ्लाईओवर, पुल, सड़क के किनारे के पत्थर अब नीले सफेद हैं।

लेकिन लंदन में ऐसा नहीं है। लंदन में कोलकाता की तरह लोग इतने बड़े पैमाने पर शायद सोते भी नहीं होंगे।

वाम मोर्चे वाले पहले कोलकाता को लेनिनग्राद बनाना चाहते थे। जेम्स ओरवेल ने एक किताब लिखी थी। संदर्भ सोवियत संघ का था। उसमें जुमला थाः बिग ब्रदर इज वॉचिंग। बड़े भैया देख रहे हैं। आप उनकी निगहबानी में हैं। वाम के दौर में परिवार के झगड़ो में भी वामी कैडरों का दखल होता था। अब ऐसा ही कुछ दखल तृणमूल के कार्यकर्ताओँ का है।

इसलिए अवाम, वाम से दूर हो गया। अब सत्ता के उसी तरीके को ममता ने भी अपनाया है। उतने ही ठसक भरे अधिनायकत्व से। उनके मंत्री दागी हो गए है। कैमरे ने उनको (क्या पता वीडियो से छेड़छाड़ हुई हो, लेकिन वह तो समय बताएगा) नकद लेते पकड़ा है। सारदा से नारदा तक तृणमूल की छवि धूमिल हुई है। तो अब ममता उसी ठसक से लोगों से कह रही हैं, राज्य की सभी सीटों पर समझो मैं ही खड़ी हूं। वोट मेरे नाम पर दो।

कोलकाता लंदन नहीं बन पाया। कोलकाता में झुग्गी वहीं हैं, नाले वहीं हैं। लोग अब भी सड़कों पर सो रहे हैं। रोजगार और उद्योग वहीं है। सिंगूर का मसला अब भी अनसुलझा है।

लंदन बनाने का सपना बिक गया था। शायद अबकी बार भी बिक जाए। लेकिन ममता बनर्जी सपना भले ही बेच लें, लेकिन याद रखना चाहिए कि लंदन में खुद विक्टोरिया रहती थीं, कोलकाता में तो सिर्फ उनका मेमोरियल है।

मंजीत ठाकुर

1 comment:

जसवंत लोधी said...

बहुत अच्छा लिखते है 'आप ठाकुर साहब ।
शुभ लाभ seetamni. blogspot.in