संसद में विपक्ष के हंगामे और गतिरोध पर आखिरकार राष्ट्रपति को भी बोलना ही पड़ा। अमूमन राष्ट्रपति ऐसी परिस्थितियों में सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहते, लेकिन जिस तरह से संसद की गतिविधि थम सी गई थी, और विपक्ष अपनी मांग पर अड़ गया था, उससे लगा था कि यह पूरा सत्र बर्बाद ही न चला जाए।
लेकिन नोटबंदी के मुद्दे पर संसद में लगातार हो रहे हंगामे से एक बार फिर से संसदीय लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका को लेकर बहस शुरू हो गई है। वैसे माना यह जाता है कि संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है। यह बात भी बहसतलब है, और इसको बदलने को लेकर भी विवाद हो सकते हैं, लेकिन यह तय है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ-साथ मजबूत और रचनात्मक विपक्ष का होना जरूरी है। यानी, लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि विपक्ष वैसा हो जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करे, जनहित से जुड़े मुद्दों पर सवाल करे, बहस शुरू करे। अपने लोकतंत्र ने पिछले सत्तर साल में विपक्ष की इस भूमिका को कई दफा देखा है। आपातकाल के दौरान एकजुट विपक्ष ने इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता को अपने इरादों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिआ था।
राजीव गांधी के शासनकाल में जब बोफोर्स जैसा बड़ा घोटाला उजागर हुआ था तब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी थी और फिर पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बनाया था। यह बात और है कि उस वक्त लोकसभा चुनाव के में उनको जनादेश नहीं मिला और जनता दल बहुमत से दूर रह गया था। उस वक्त भी विपक्ष ने अपनी जिम्मेदारी समझी थी और जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए राजीव गांधी को सत्ता से दूर रखने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी थी। सन 1977 में जनता पार्टीके नाकाम प्रयोग के बाद राष्ट्रीय मोर्चे का यह प्रयोग नायाब था। विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेफ्ट पार्टियों के साथ भारतीय जनता पार्टी का भी समर्थन मिला था। ऐसी कई मिसालें हमारे संसदीय लोकतंत्र ने पेश की हैं।
विपक्ष की सबसे बड़ी भूमिका होती है कि वह सरकार की गलत लग रही नीतियों के खिलाफ जनमानस तैयार करे। नीतियों के सही या गलत होने की बात, पूरी इनकी व्याख्या पर निर्भर है साथ ही, किसी भी नीति पर बहस करके उसके व्यापक असर की समीक्षा करना भी विपक्ष का काम है। सरकार के फैसलों और नीतियों को संशोधित करना विपक्ष का ही काम है।
जो भी हो, कमजोर या बंटा हुआ विपक्ष सत्तासीन दल के लिए चाहे जितना मुफीद हो लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक होता है। खासकर, विपक्ष जब अपनी मुखालफत की नीतियों पर ही एक राय नहीं है। ऐसा ही कुछ अभी नोटबदली के मामले पर भी दिख रहा है। लगभग सारे विपक्षी दल सरकार के इस फैसले के क्रियान्वयन की कमियों के खिलाफ हैं लेकिन सभी अपनी-अपनी डफली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। बंटा हुआ विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक दिखाई दे रहा है। आप को भारत बंद के मसले पर वाम दल और ममता, कांग्रेस और सपा-बसपा के अलग सुर तो याद ही होंगे। विपक्षी दलों के विरोध के चलते संसद का कामकाज ठप है लेकिन इससे कुछ रचनात्मक निकलता दिखाई नहीं दे रहा है।
असल में, आज की तारीख में उस धुरी की कमी है, जिसके चारों तरफ विपक्ष एकजुट हुआ करता है। इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, और राहुल गांधी उस धुरी के रूप में उभरने में ज़रूरत से अधिक वक्त ले रहे हैं, जिस पर सभी दलों को भरोसा हो कि वो नेतृत्व दे सकता है।
इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लागू किया था, तब देश में छात्र आंदोलन शबाब पर था और कहा गया कि जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने जिस तरह सरकार के खिलाफ माहौल तैयार किया, उसी से घबराकर इमरजेंसी लगाई गई। फिर पूरा विपक्ष जेपी के आसपास इकट्ठा हुआ और आपातकाल के हुए चुनाव में कांग्रेस ढेर कर दी गई थी।
उसके बाद कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सभी दलों में अपनी साख की वजह से एक भरोसा पैदा किया, तो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत इस धुरी के रूप में उभरे। इस वक्त वैसा कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा है जो विपक्षी दलों के लिए एक छाते की तरह उभर पाए, और जिसकी शख्सियत पर तमाम दलों को भरोसा हो।
राहुल गांधी नेता के तौर पर अभी भी नौसिखिए लगते हैं, और उनमें अभी वो बात पैदा नहीं हो पाई है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता उनका नेतृत्व ना भी स्वीकार करें तो कम से कम उनकी बात तो मानें। बीजेपी इस मौके को बखूबी भुना रही है। हर मौके पर विपक्ष की कमजोरियां खुलकर सामने आ रही हैं। जनता में यह संदेश जा रहा है कि सरकार के अच्छे कामों में विपक्ष की बेफालतू अड़ंगेबाज़ी हो रही है। मैंने पंजाब से लेकर यूपी के गांवो तक देखा, लोग यही कह रहे हैं कि विपक्ष नोटबदली का सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहा है।
वैसे, अंतरराष्ट्रीय निवेश और बाज़ार के लिए मजबूत सरकारें बढ़िया मानी जाती हैं। इस लिहाज़ से तो सब ठीक है। लेकिन मजबूत सरकार का मतलब कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष नहीं होता। सदन में स्पीकर की वेल के सामने आकर हूटिंग करना और कामकाज रोकना भले ही, विपक्ष की रणनीति का हिस्सा हो, लेकिन हर रणनीति कामयाब सिय़ासी पैंतरा ही हो, यह भी सही नहीं है। विपक्ष को अपने जिद पर फिर से विचार करना चाहिए।
मंजीत ठाकुर
लेकिन नोटबंदी के मुद्दे पर संसद में लगातार हो रहे हंगामे से एक बार फिर से संसदीय लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका को लेकर बहस शुरू हो गई है। वैसे माना यह जाता है कि संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है। यह बात भी बहसतलब है, और इसको बदलने को लेकर भी विवाद हो सकते हैं, लेकिन यह तय है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ-साथ मजबूत और रचनात्मक विपक्ष का होना जरूरी है। यानी, लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि विपक्ष वैसा हो जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करे, जनहित से जुड़े मुद्दों पर सवाल करे, बहस शुरू करे। अपने लोकतंत्र ने पिछले सत्तर साल में विपक्ष की इस भूमिका को कई दफा देखा है। आपातकाल के दौरान एकजुट विपक्ष ने इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता को अपने इरादों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिआ था।
राजीव गांधी के शासनकाल में जब बोफोर्स जैसा बड़ा घोटाला उजागर हुआ था तब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी थी और फिर पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बनाया था। यह बात और है कि उस वक्त लोकसभा चुनाव के में उनको जनादेश नहीं मिला और जनता दल बहुमत से दूर रह गया था। उस वक्त भी विपक्ष ने अपनी जिम्मेदारी समझी थी और जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए राजीव गांधी को सत्ता से दूर रखने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी थी। सन 1977 में जनता पार्टीके नाकाम प्रयोग के बाद राष्ट्रीय मोर्चे का यह प्रयोग नायाब था। विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेफ्ट पार्टियों के साथ भारतीय जनता पार्टी का भी समर्थन मिला था। ऐसी कई मिसालें हमारे संसदीय लोकतंत्र ने पेश की हैं।
विपक्ष की सबसे बड़ी भूमिका होती है कि वह सरकार की गलत लग रही नीतियों के खिलाफ जनमानस तैयार करे। नीतियों के सही या गलत होने की बात, पूरी इनकी व्याख्या पर निर्भर है साथ ही, किसी भी नीति पर बहस करके उसके व्यापक असर की समीक्षा करना भी विपक्ष का काम है। सरकार के फैसलों और नीतियों को संशोधित करना विपक्ष का ही काम है।
जो भी हो, कमजोर या बंटा हुआ विपक्ष सत्तासीन दल के लिए चाहे जितना मुफीद हो लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक होता है। खासकर, विपक्ष जब अपनी मुखालफत की नीतियों पर ही एक राय नहीं है। ऐसा ही कुछ अभी नोटबदली के मामले पर भी दिख रहा है। लगभग सारे विपक्षी दल सरकार के इस फैसले के क्रियान्वयन की कमियों के खिलाफ हैं लेकिन सभी अपनी-अपनी डफली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। बंटा हुआ विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक दिखाई दे रहा है। आप को भारत बंद के मसले पर वाम दल और ममता, कांग्रेस और सपा-बसपा के अलग सुर तो याद ही होंगे। विपक्षी दलों के विरोध के चलते संसद का कामकाज ठप है लेकिन इससे कुछ रचनात्मक निकलता दिखाई नहीं दे रहा है।
असल में, आज की तारीख में उस धुरी की कमी है, जिसके चारों तरफ विपक्ष एकजुट हुआ करता है। इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, और राहुल गांधी उस धुरी के रूप में उभरने में ज़रूरत से अधिक वक्त ले रहे हैं, जिस पर सभी दलों को भरोसा हो कि वो नेतृत्व दे सकता है।
इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लागू किया था, तब देश में छात्र आंदोलन शबाब पर था और कहा गया कि जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने जिस तरह सरकार के खिलाफ माहौल तैयार किया, उसी से घबराकर इमरजेंसी लगाई गई। फिर पूरा विपक्ष जेपी के आसपास इकट्ठा हुआ और आपातकाल के हुए चुनाव में कांग्रेस ढेर कर दी गई थी।
उसके बाद कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सभी दलों में अपनी साख की वजह से एक भरोसा पैदा किया, तो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत इस धुरी के रूप में उभरे। इस वक्त वैसा कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा है जो विपक्षी दलों के लिए एक छाते की तरह उभर पाए, और जिसकी शख्सियत पर तमाम दलों को भरोसा हो।
राहुल गांधी नेता के तौर पर अभी भी नौसिखिए लगते हैं, और उनमें अभी वो बात पैदा नहीं हो पाई है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता उनका नेतृत्व ना भी स्वीकार करें तो कम से कम उनकी बात तो मानें। बीजेपी इस मौके को बखूबी भुना रही है। हर मौके पर विपक्ष की कमजोरियां खुलकर सामने आ रही हैं। जनता में यह संदेश जा रहा है कि सरकार के अच्छे कामों में विपक्ष की बेफालतू अड़ंगेबाज़ी हो रही है। मैंने पंजाब से लेकर यूपी के गांवो तक देखा, लोग यही कह रहे हैं कि विपक्ष नोटबदली का सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहा है।
वैसे, अंतरराष्ट्रीय निवेश और बाज़ार के लिए मजबूत सरकारें बढ़िया मानी जाती हैं। इस लिहाज़ से तो सब ठीक है। लेकिन मजबूत सरकार का मतलब कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष नहीं होता। सदन में स्पीकर की वेल के सामने आकर हूटिंग करना और कामकाज रोकना भले ही, विपक्ष की रणनीति का हिस्सा हो, लेकिन हर रणनीति कामयाब सिय़ासी पैंतरा ही हो, यह भी सही नहीं है। विपक्ष को अपने जिद पर फिर से विचार करना चाहिए।
मंजीत ठाकुर
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