Thursday, December 22, 2016

गांवों की बात कौन करेगा

लोगों से एक खचाखच भरे ऑडिटोरियम में कभी शीलू राजपूत दमदार आवाज़ में आल्हा गूंजता है, फिर एक मदरसे की लड़कियां क़ुरान की आयतों को अपना मासूम स्वर देती है, ओर फिर गूंजती है वेदमंत्रो की आवाज़। लोगों के चेहरे विस्मित हैं। इन प्रतिभाओं में एक बात समान थी। यह सभी लोग गांव के थे। ठेठ गांवों के। जिनके लिए मुख्यधारा के मीडिया के पास ज़रा भी वक्त नहीं।

तो जब मुख्यधारा का मीडिया बहसों और खबरें तानने की जुगत में लगा रहता है, उस दौर में गांव की घटनाएं, नकारात्मक और सकारात्मक दोनों खबरें हाशिए पर पड़ी रह जाती हैं।

खबर दिल्ली की होंगी, या फिर बड़े शहरों की और बहुत हुआ तो दिल्ली जैसे शहरों के सौ किलोमीटर के दायरे में घटने वाली घटनाएं कवर कर ली जाती हैं। क्या वजह है?

चलिए, हम मुख्यधारा के मीडिया की आलोचना करने की बजाय यह देखें कि इस दिशा में कौन काम कर रहा है। निश्चित ही, यह नज़ारा देखने के लिए आपको स्वयं फेस्टिवल में मौजूद होना होता।

अपनी अकड़, अपने तेवरों और अपनी खूबियों-खामियों के साथ गांव इस अखबार में मौजूद है। गांव के लोगो के लिए भले ही सरकार ने रर्बन मिशन शुरू किया है, यानी गंवई इलाको में शहरी सुविधाएं उपलब्ध करने का। केन्द्र सरकार ही नहीं, देश के हर राज्य में गांवों के लिए और गांव के लोगों के लिए योजनाएं बनती हैं। कभी पीने के पानी के लिए, कभी सिंचाई के लिए, कभी रोजगार के लिए तो खेती के लिए...लेकिन उन योजनाओं के लागू करने में हुई देरी या मान लीजिए कामयाबी ही, उनकी खबर को कौन छापता-दिखाता है?

मुख्यधारा की मीडिया पर गांव तभी आता है, जब कोई कुदरती आपदा हो, या कोई बड़ी घटना हो जाए। लेकिन अमूमन किसान आत्महत्याओं जैसी बड़ी और त्रासद घटनाएं भी बगैर नोटिस के रह जाती हैं। दिल्ली से या बड़े शहरों से गांव रिपोर्टिंग करने वाले लोग आखिर खबर क्या ढूंढते हैं और क्या छापते हैं। और ग्रामीण विकास की रिपोर्ट के लिए मंत्रालय की पहलों, खामियों और कामयाबियों पर रिपोर्टें दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में बैठकर छाप दी जाती हैं।

गांव का मतलब इनमें से ज्यादातर मीडियावालों के बीच खेती-बाड़ी ही है। समस्या है, लेकिन क्या गांव के लोग सिर्फ खेती ही करते हैं?

अगर दूरदर्शन को छोड़ दें, तो मुख्यधारा की मीडिया से या सिनेमा से ओरिजिनल गांव गायब था और इसी परिदृश्य में गांव कनेक्शन ने अपनी अभिनव शुरूआत की थी। गांव कनेक्शन के इस सार्थक पहल, जिसकी नकल अब कई मीडिया हाउस कर रहे हैं, के बारे में आज इसलिए चर्चा क्योंकि मेरा यह स्तंभ मेरा सौवां स्तंभ है और हाल ही में स्वयं फेस्टिवल में हिस्सा लेने के बाद मैं यूपी के चौदह जिलों में आयोजित स्वयं फेस्टिवल की कामयाबी से आश्चर्य-मिश्रित सुख से आह्लादित भी हूं।

ऐसे में, गांव की कहानियां सबके सामने आ रही हैं, सरकार इस अखबार में छपी खबरों को संज्ञान लेकर गांव के लोगों की समस्याओं का निपटारा कर रही है। गांव कनेक्शन इस अर्थ में एक अखबार होने के साथ, जो गांव के लोगों को गांव-जवार और दुनिया-जहान की खबरें देता है, उनकी समस्या को सही दरवाज़े तक पहुंचाने के उम्मीद के केन्द्र के रूप में उभरा है।

वक्त की रेखा में चार साल कुछ नहीं होता, खासकर अगर वह कोई अखबार हो।

कई दशक पुराने पीत और प्रेत-पत्रकारिता करने वाले अखबारों को ठीक है कि अपने लीक पर चलते रहना चाहिए, क्योंकि इसके पीछे उनकी व्यावसायिक मजबूरियां भी होंगी, लेकिन अपनी सामग्री में अगर वह दस फीसद भी गांव कनेक्शन के स्तर की खबरें शामिल कर सकें, तो यह उन अखबारों की विश्वसनीयता में इजाफा तो करेगा ही, गांव के लोगों को भी आबादी के हिसाब से अपना प्रतिनिधित्व मीडिया में मिलेगा।

फिलहाल तो, जिस जुनून और जज्बे के साथ, जिस ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करके गांव कनेक्शन ने चार साल में चार कदम शिखर की तरफ बढ़ाए हैं, मुझे लगता है दूसरे अखबारों के लिए प्रेरणा-स्रोत बना रहेगा।





मंजीत ठाकुर

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-12-2016) को गांवों की बात कौन करेगा" (चर्चा अंक-2566) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'