Tuesday, July 4, 2017

टाइम मशीन 3ः शिवः बैराग

अपने घर विशाल यज्ञ की सफलता से सम्मोहित दक्ष प्रजापति ने समारोह में दामाद शिव को न्योता नहीं दिया था. अभिमान से बेटी सती को सुनाया था दक्ष नेः "अघोरी शिव देवताओं में उठने-बैठने लायक नहीं. देवताओं से लकदक कपड़े, सुगंधित तेल-फुलेल और कीमती गहने...कुछ भी तो नहीं पाखंडी शिव के पास." सती की बहनें ओट से खिलखिला पड़ी थीं।

सती का चेहरा गुस्से और अपमान से लाल पड़ता चला गया। उसके खुद के पिता ने त्यागी, सहनशील, सबसे प्रेम करने वाले शिव को पाखंडी कहा! सती गुस्से में भर उठीः मान-अपमान से परे शिव विषपायी हैं तो वह तांडव भी करते हैं!

मानो यह चेतावनी थी आने वाले विनाश की...और देखते ही देखते सती विशाल यज्ञकुंड के भीतर कूद गई थीं.

सन्नाटा छा गया। ऋषियों का मंत्रजाप रुक गया। मंडप के किनारे बज रही वीणाओं की झनकार थम गई। लोगो की मानो सांस रूक गई। सूरज की रौशनी का तेज खत्म हो गया, हवा भी स्थिर हो गई।

दक्ष को काटो तो खून नहीं। वह शिव के विरोधी तो थे लेकिन उनकी अपनी ही बेटी उनकी दुश्मनी की बलि चढ़ गई थी। सती की मां आंगन में पछाड़े खा-खाकर रोने लगी थीं।

पता नहीं कैसे, अचानक चारों तरफ से काले-काले बादल घिर आए थे। घुप्प अंधेरा छा गया। तेज़ हवाएं चलने लगीं। इस मौसम में बारिश नहीं होती थी कभी दक्ष के राज्य में, लेकिन आसमान से कड़कती बिजली के बीच न जाने कैसे मोटे-मोटे बड़े-बड़े ओले गिरने लगे, और बारिश की तो मत पूछिए। धारासार! इतनी जोरदार बरसात कि एक हाथ दूर कुछ नजर न आता था। सारे देवता और आम लोग मंडप से उठकर ओट की तलाश करने लगे थे।

अंधेरे और बरसात के बीच कुछ भी तभी नजर आता था, जब बादलों में तेज़ बिजली कड़कती थी। महल और मंडप की सारी रौशनियां पहले ही बुझ गई थीं। घुप्प अंधेरे में बस एक रौशनी थी, उस हवन कुंड की, जिसमें सती ने कूदकर जान दे दी थी। पवित्र माहौल अचानक डरावना हो गया था।

हवन कुंड की बुझी हुई आग में से बस लाल रंग के अंगारों की रौशनी थी और उसी रौशनी में सबने देखाः जटाएं खोले, हाथों में त्रिशूल लिए, बाघों की खाल कमर में लपेटे, एक भयानक-सा साया वहां खड़ा है। भयानक सायाः जी नहीं, यह तो गुस्से में भरे शिव खुद आ पहुंचे थे। रुद्राक्ष की मालाएं टूटकर नीचे बिखर गईं थी। जिधर देखो सांप ही सांप नजर आ रहे थे।

सती के अंगरक्षक बनकर आए वीरभद्र के ललकारते ही शिव के गण डमरू बजाते हुए पूरे आंगन में फैल गए। लोग सिहर उठे। डमरू की आवाज उस वक्त हमेशा की तरह आशीर्वाद जैसी नहीं, बल्कि दहशत लाने वाली लग रही थी और लग रहा था शिव डमरू की ताल पर नाच रहे होः तांडव नाच।

हर कोई बस अपनी सांस रोके अगली घटना का इंतजार कर रहा था।

पलक तक नहीं झपका सका था कोई कि दक्ष प्रजापति का कटा हुआ सिर आंगन में लुढ़कता हुआ नज़र आया। हर कोई खामोश था। सब जानते थे गलती दक्ष की थी। सबने उसके बाद इतना ही देखाः शिव ने हवनकुंड में सती की बेजान देह उठाकर कंधे पर रखी और चल दिए। 


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शिव-सती की कहानी