मधुपुर डायरीः पहला दिन
मधुपुर में जब उतरा जो आदतन पूर्वा एक्सप्रेस कोई 4 घंटे लेट हो चुकी थी. बाहर प्लेटफॉरम पर बड़े भैया खड़े थे. हम लोग बाहर निकले तो मधुपुर पहले से अधिक साफ-सुथरा था, स्टेशन पर पान के पीक मौजूद तो थे, लेकिन पहले की तरह हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करा रहे थे. गरमी काफी ज्यादा थी और स्टेशन के बाहर निकलते ही हम जिस तरह हमेशा चाय पिया करते, वह करने की हिम्मत नहीं हुई.
स्टेशन में कुछ अच्छे बदलाव दिख रहे थे. स्टेशन के अहाते के बीच मे लोहे की पटरी से बना गोलंबर जिसमें पहले गुलमोहर के पेड़ हुआ करते थे, अब कट गए थे और उसमें बढ़िया फूल-पत्तियां लगाई जा चुकी थीं.
शाम को हम तीन लोग, यानी मैं, मेरे मंझले भैया रतन ठाकुर, भतीजे रितुराज और अभिषेक बाहर की हवा लेने निकले. हमारे पड़ोस के मुहल्ले में केलाबागान में नया मंदिर बन रहा था. शहीद निर्मल महतो चौक यानी ग्लास फैक्ट्री मोड़ पर भी सब कुछ यथावत् था. वहां से हमलोग पहले के लाओपाला पार्क में घुस गए थे.
हमारे ज़माने में यह पार्क शहर भर के लोग लुच्चों, उचक्कों, लफाड़ियों का अड्डा होता था, हालांकि ला-ओपाला ने इसे बहुत करीने से सजाया था. खैर, जिन लड़कों को अपने एकतरफा या दोतरफा प्यार का चेहरा देखना नसीब नहीं होता था वह यहां आकर दर्शन लाभ लिया करते थे.
लेकिन आज यह बेहद छोटा सा पार्क उपेक्षा का शिकार है.
मधुपुर में जब उतरा जो आदतन पूर्वा एक्सप्रेस कोई 4 घंटे लेट हो चुकी थी. बाहर प्लेटफॉरम पर बड़े भैया खड़े थे. हम लोग बाहर निकले तो मधुपुर पहले से अधिक साफ-सुथरा था, स्टेशन पर पान के पीक मौजूद तो थे, लेकिन पहले की तरह हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करा रहे थे. गरमी काफी ज्यादा थी और स्टेशन के बाहर निकलते ही हम जिस तरह हमेशा चाय पिया करते, वह करने की हिम्मत नहीं हुई.
मधुपुर लाओपाला पार्क में सेल्फी, साथ हैं भैया, रितुराज और अभिषेक |
स्टेशन में कुछ अच्छे बदलाव दिख रहे थे. स्टेशन के अहाते के बीच मे लोहे की पटरी से बना गोलंबर जिसमें पहले गुलमोहर के पेड़ हुआ करते थे, अब कट गए थे और उसमें बढ़िया फूल-पत्तियां लगाई जा चुकी थीं.
शाम को हम तीन लोग, यानी मैं, मेरे मंझले भैया रतन ठाकुर, भतीजे रितुराज और अभिषेक बाहर की हवा लेने निकले. हमारे पड़ोस के मुहल्ले में केलाबागान में नया मंदिर बन रहा था. शहीद निर्मल महतो चौक यानी ग्लास फैक्ट्री मोड़ पर भी सब कुछ यथावत् था. वहां से हमलोग पहले के लाओपाला पार्क में घुस गए थे.
मधुपुर का लाओपाला पार्क अब अव्यवस्था का शिकार है. फोटोः मंजीत ठाकुर |
हमारे ज़माने में यह पार्क शहर भर के लोग लुच्चों, उचक्कों, लफाड़ियों का अड्डा होता था, हालांकि ला-ओपाला ने इसे बहुत करीने से सजाया था. खैर, जिन लड़कों को अपने एकतरफा या दोतरफा प्यार का चेहरा देखना नसीब नहीं होता था वह यहां आकर दर्शन लाभ लिया करते थे.
लेकिन आज यह बेहद छोटा सा पार्क उपेक्षा का शिकार है.
मधुपुर के इस पार्क में कभी जमघट लगता था युवाओं का. फोटोः मंजीत ठाकुर |
हम तीनों फिर भगत सिंह चौक होते हुए मधुपुर में बन रहे फ्लाईओवर देखते हुए (जी हां, फ्लाई ओवर्स पर अब सिर्फ बड़े शहरों का हक नहीं. मधुपुर जैसे छोटे शहर भी फ्लाईओवरों के चक्कर में हैं) गांधी चौक पर गए. गांधी चौक का नजारा भी बदला हुआ था. साफ-सफाई थी. न कहीं मिट्टी के कुल्हड़ों का ढेर था न कूड़ा था. जगह-जगह कूड़ेदान लगे थे.
पंचमंदिर के पास लगे कूड़ेदान और पृष्ठभूमि में गोयठे फोटोः मंजीत ठाकुर |
इतनी सफाई! वाकई प्रशासन इस मामले में दुरुस्त हुआ था. पर इसे बनाकर रखने की जिम्मेदारी तो सिर्फ और सिर्फ मधुपुर वासियों की ही है. मधुपुर के सामने यहां से दो रास्ते जाते हैं, पहलाः यहां से वह विकास की अंधी दौड़ में सामिल होकर कंक्रीट के जंगल में बदल सकता है. दूसरा, यहां से वह अपनी हरी-भरी विरासत, हरियाली, नदियों, झरनों को बचाते हुए देश भर के लिए मिसाल बन सकता है.
खूबसूरत लक्ष्मी-नारायण मंदिर फोटोः मंजीत ठाकुर |
बहरहाल, गांधी चौक पर हमारे स्कूली मित्र अटल चौरसिया आने वाले थे और साथ में विजय सिंह और प्रमोद झा भी. कामयाब कारोबारी बन चुके अटल जी अपनी लंबी कार के साथ आए थे. विजय और प्रमोद ने अपनी बाइक गांधी चौक पर ही पार्क कर दीं और हम सब नीमतल्ला भेड़वा की तरफ निकल पडे. हल्की चांदनी में खुली हवा में मन कर रहा था खूब खींच-खींचकर सांस लूं और ऑक्सीजन अपने फेंफड़ों में भर लूं. गोकि दिल्ली में प्रदूषण ने फेफड़ो में कालिख भर दी होगी.
मधुपुर में गांधी चौक ने अपनी रंगत बदल दी है. पहले चाय के ठेलों से रौनक ज्यादा होती थी. फोटोः मंजीत ठाकुर |
गांधी चौक पहले हमारा गजब का अड्डा हुआ करता था. जहां, कोने पर लिट्टी, मुड़ी-घुघनी, सिंघाड़े (समोसे) खाए जाते थे. चाय की अनेकानेक ठेलियां होती थीं, जिनमें एक रूपए की चाय पी जा सकती थी. कोल्हा डोसा बनाता था और छोटू की चाट मशहूर थी. लेकिन अभी वहां यह सब नहीं है. गांधी चौक पर रोजन ठाकुर के राजबोग और जिलेबियों का स्वाद तो नहीं ले पाया पर बर्दवान मिष्टान्न भंडार में राबड़ी चाभते वक्त पता चल गया कि क्यों इस दुकान ने कृष्णा स्वीट्स की रंगत फीकी कर दी है.
बहरहाल, इन्ही विषय़ों पर विजय, प्रमोद और अटल के साथ चर्चा में वक्त पंछी की तरह उड़ गया. फिर रात घिरने लगी थी और हम सब अपने घोंसलों में वापस लौट पड़े थे.
अगले दिन का किस्सा कल.
1 comment:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अमर क्रांतिकारियों की जयंती और पुण्यतिथि समेटे आया २८ मई “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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