Saturday, June 9, 2018

मधुपुर मेरा मालगुडी है


मधुपुर डायरी पार्ट 2:

मधुपुर की सुबहें दीगर शहरों से अलग हुआ करती हैं. यह शहर मेरा मालगुडी है, और मैं उसका स्वामीनाथन.

सोमवार की सुबह को जब मैं उठा, तो अपनी आदत के उलट तयशुदा समय से काफी पहले उठ गया था. चाय-चुक्कड़ इत्यादि पीने के बाद हमने, यानी मैंने और रतन भैया ने मधुपुर में सोशल विजिट का कार्यक्रम रखा था.

मेरे मुहल्ले में एक विद्यालय है, तिलक विद्यालय. मैं इसका छात्र रहा हूं तो यहां गया भी. उसकी पोस्ट बाद में. पर उसके पिछवाड़े अमलतास क्या उमक कर खिला था. मन का सारा दुख दूर हो गया. दिल्ली में पेड़ पौधे धूल से अंटे रहते हैं. मधुपुर में सारे पेड़ धुले-धुले थे, साफ-साफ. हंसते हुए. खिलखिलाते. 

मुझे तो ऐसे भी गुलमोहर और अमलतास बहुत भाते हैं. अमलतास के पीलेपन को मैने अपने आंखों भी बसाया और मोबाइल में भी कैद कर लिया. 

दिल्ली में रामकृपाल झा ने मुझसे कहा था कि एक दफा नया बाजार चला जाऊं, तो नया बाजार (मधुपुर का एक मोहल्ला) जाना तय ही था. लेकिन रामकृपाल के पिताजी माताजी तीर्थ के लिए कहीं निकल गए थे तो दिन में उनसे मुलाकात की कोई संभावना नहीं थी सो हम लोग उधर जाने के कार्यक्रम को आगे की तारीख पर टाल गए.

तो हमने पहली यात्रा शुरू की दक्षिण की तरफ. मधुपुर में हमारे मुहल्ले को साधनालय कहा जाता है. उसकी सरहद हनुमान जी का एक चबूतरा था, जिसे अब एक छोटे मंदिर में तब्दील कर दिया गया है. मेरे घर से निकलते ही पहले बाएं हाथ पर एक परचून की दुकान हुआ करती थी. शंकर की दुकान. जिसके ऐन पीछे एक विशालकाय यूकेलिप्टस का पेड़ था. उस पेड़ की पत्तियों में मैं बचपन में मुख्तलिफ़ आकृतियां खोजा करता था. घिरते अंधरे में स्याह होते जाते उस पेड़ में कभी मुझे बजरंगबली दिखते थे, कभी अनिल कपूर तो कभी कोई डरावनी चुड़ैल भी.

मेरे मुहल्ले में उमक कर खिला अमलतास. फोटोः मंजीत ठाकुर


अब वह पेड़ वहां नहीं है. कट चुका है. लगा कि मेरा कोई बहुत जिगरी दोस्त नहीं रहा इस दुनिया में.

उस पेड़ के ठीक सामने यानी सड़क के दाहिनी तरफ, शुक्र है, अभी भी खेत हैं. मेरे घर के ठीक दक्षिण में जो बड़ा सा तालाब था. वह आधा भरा जा चुका है. उस में आधे मधुपुर के नाले का गंदा पानी जमा होता है. मछलियां मर चुकी हैं. पानी का रंग गहरा काला हो चुका है. विश्वास नहीं होता कि यह वही तालाब है जिसमें हम अमूमन नहाया करते थे, मछलियां मारते थे और होली के बाद रंग छुड़ाने के लिए तो यही पोखरा तय था.

बहरहाल, बजरंगबली का चबूतरा खत्म होते ही हाजी मुहल्ला शुरु हो जाता है. मेरे कई दोस्त वहां मिले. रोज़े में प्यास न लगे सो नीम के दातुन चबाते लोग. कुछ को छोड़कर पहले वाली गुरबत कहीं नहीं दिखती. सब मकान पक्के और ऊंचे और आलीशान हो गए हैं. बाकी लोग वैसे ही है. हंस कर मिलने वाले.

बरकत भैया मिले थे. जब हम बच्चे थे तब भी उनके बाल सफेद थे. अब तो खैर, नौकरी अभी भी उनकी दो साल बची है पर सिर भौंह दाढ़ी सब सुफेद. बिलकुल बर्फ़ानी.

फिर वह सब मकान, जिसमें कभी होम्योपैथ के मधुपुर के मशहूर डॉक्टर फारूख़ साहेब रहते थे और जिनके घर में एक मस्त-सा हिरन था. शायद उसको उन्होंने किसी बकरीद में क़ुरबान कर दिया. अब उन्होंने कहीं और मकान बनाया पर उनका वह मकान जो पुराने धज का था, अब भी है, पर उसमें वह बात नहीं रही.

उसके आगे संताल आदिवासियों के घर थे और शरीफों, कठ-लीची (लीची का जंगली पेड़ जिसमें कंचों के आकार के छोटे फल होते थे) वगैरह के जंगल थे. जंगल अब कम हो गए हैं. गोयठे-उपले बेचने वाले संतालों ने कोई और धंधा अपना लिया है. उसके आगे धान के खेत हुआ करते थे, जिनके बीच में ऊंची मेड़ थी. चौड़ी भी. बाईं तरफ एक और तालाब, जिससे मेरे एक मित्र प्रशांत का एक मजेदार वाकया भी जुड़ा है. 


रेल से मधुपुर घुसते समय पात्रो (पतरो) नदी के पास का विहंगम दृश्य फोटोः मंजीत ठाकुर


प्रशांत का मकान बन रहा था. और शाम को उसके अधबने मकान को देखकर वापसी में जब आसमान में चांद उग ही रहा था और अंधेरा हो चुका था, प्रशांत को तेज हाजत आ गई. (पाखाना लग गया)

गरमियों के दिन थे और तालाब में चांद की परछाईं देखकर प्रशांत समझे कि तालाब में पर्यापत् पानी मौजूद है. लेकिन जब वह शंका निवारण के बाद धुलाई के लिए आए, तो सिर्फ कीचड़-ही-कीचड़ था. बाद में हमने भौतिकी में पढ़ा कि पानी की पतली परत भी एक फिल्म की तरह काम करती है और प्रकाश को परावर्तित कर सकती है, जबकि उतने पानी में शौचक्रिया तो खैर क्या ही होगी, हाथ भी गीला नहीं हुआ था. बाद में झाड़ियों के पत्तों से काम चलाया गया, जो बाद में प्रशांत ने बताया, बेहद दर्दनाक था.

अस्तु, वह तालाब भर दिया गया है. एक गड्ढा जैसा है, लेकिन उसमें पड़ोसी लोग कूड़ा डालते हैं. असंख्य मकान उग आए हैं उस तालाब के चारों तरफ. पहले जो इलाका पेड़ों, तालाबों से अनिंद्य खूबसूरती का वायस था, अब ईंट-गारों के मकानों के बोझ से दब गया है.

पहले वहां ताड़ के पेड़ों के पीछे सूरज छिपता था. पर अब वो बात नहीं रही.

कोई साढ़े दस बजे सुबह में हम दोनों भाई पहले अपने एक पारिवारिक घनिष्ठ ललित भैया के यहां गए थे. पर उनके यहां ठंडा इत्यादि ठेलने के बाद मैं प्रो. सुमन लता के यहां गया.

हम सभी उनको मौसी कहते हैं. मां की मुंहबोली बहन हैं. लेकिन वहां गया तो एक सुखद आश्चर्य हुआ. मेरे बचपन का दोस्त पीयूष का मुस्कुराता चेहरा दिखा. संभवतया 1997-98 के बाद उससे पहली बार मुलाकात हुई थी.

बता दें कि पीयूष सौरभ लखनऊ कार्ट ऐंड क्राफ्ट कॉलेज से ललित कला (फाईन आर्ट) में स्नातक और परा-स्नातक हैं. कैनवस पर उसकी कूची ऐसे चलती है जैसे इंद्रधनुष बिखेर दी हो.

बढ़ी हुई दाढ़ी और सफेद बालों के साथ पीयूष थोड़ा बीमार लग रहा था. पर ऊर्जा वैसी ही. वही सृजनात्मकता. वही मुस्कुराहट. वह हंसता है तो गालों में डिंपल पड़ते हैं उसके.

मैं वहां उसके यहां चाय-मिठाई के बाद चलने को हुआ तो मैंने इसरार किया कि शाम को गांधी चौक पर मिलने से पहले शेविंग भी कर ले, और बाल में डाइ भी.

फिर हम शाम को गांधी चौक पर मिले.

वहां से किस्सा, कैसे और कहां गया, वह कल बताएँगे.

4 comments:

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-06-2018) को "रखना कभी न खोट" (चर्चा अंक-2998) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

रेणु said...

बंधु ! मुझे भी अपना गाँव ऐसा ही लगता है जहाँ की सुबह- शाम का कोई सानी नहीं ---

ना वैसी है मुंडेर कोई-
ना सानी कोई उस छत का | --
अत्यंत ब्जव्नाओं से लिखा गया हृदयस्पर्शी लेख | हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार हों |

रेणु said...

बंधु ! मुझे भी अपना गाँव ऐसा ही लगता है जहाँ की सुबह- शाम का कोई सानी नहीं ---

ना वैसी है मुंडेर कोई-
ना सानी कोई उस छत का | --
अत्यंत ब्जव्नाओं से लिखा गया हृदयस्पर्शी लेख | हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार हों |

Alaknanda Singh said...

यूूं तो गांव कभी ज़हन से निकलता नहीं फिर भी ....हमें अपने गांव की याद दिलाने के लिए धन्‍यवाद,बहुतही खूबसूरती से उकेरा है विवरण