लॉकडाउन के अकेलेपन ने हमसे बहुत कुछ छीना है तो बहुत कुछ दिया है. धरती की आबो-हवा भी थोड़ी साफ हुई है, पर इस बात का अलग तरह से विश्लेषण करने की भी जरूरत है. पीएम ही एकमात्र प्रदूषक नहीं है. इस साफ आबोहवा में हमें आत्मविरीक्षण करने की जरूरत है कि 15 अप्रैल के बाद क्या होगा और सबसे जरूरी, कोरोना के बाद की दुनिया हम कैसी चाहते हैं.
हम सब वक्त के उस विमान में बैठे हैं जो लगता है कि स्थिर है, पर आसमान में बड़ी तेजी से भाग रहा है. कइयों के लिए वक्त नहीं कट रहा, वे एक मिनट में पंखे के डैने कितनी बार घूमता है इसका ठट्ठा कर रहे हैं. पर, वक्त के साथ उनके ठट्ठे धीमे पड़ते जा रहे हैं.
हम सबके बीच अकेलेपन का स्वर अब सीलने लगा है, भींगने लगा है. जैसे जाड़ों की सुबह चाय की कप की परिधि पर जम जाता है. हम उदास भारी सांसें लिए बच्चों के साथ खेलने की कोशिश करते हैं. अपने कंप्यूटर पर हम बार-बार काम निबटाने बैठते हैं. काम खिंचता जाता है. नेट की स्पीड कम होती जा रही है. लोगों ने नेट पर फिल्में और वेबसीरीज देखनी शुरू कर दी है. समय की स्पीड की नेट की स्पीड की तरह हो गई है. बीच-बीच में समय की भी बफरिंग होने लगती है.
दिल्ली का आसमान, लॉकडाउन के दौरान, फोटोः मंजीत ठाकुर |
बॉस का आदेश है, हमें अच्छी खबरें खोजनी चाहिए. कहां से मिलेंगी अच्छी खबर? दुनिया भर में मौत का आंकड़ा एक लाख के करीबन पहुंचने वाला है. एक लाख! हृदय कांप उठता है. एक लाख अर्थियां! एक लाख कब्रें! एक लाख परिवारों की पीड़ा. क्या आसमान का हृदय नहीं फट पड़ेगा?
मैं देखता हूं निकोटिन के दाग से पीली पड़ी मेरी उंगलियों से पीलापन मद्धम पड़ता जा रहा है. लग रहा है मेरी पहचान मिट रही हो. आखरी कश लिए तीन हफ्ते निकल गए हैं.
तीन हफ्तों में मैं जान गया हूं कि मेरी बिल्डिंग में मेरी फ्लैट के ऐन सामने दो लड़के रहते हैं, दोनों दिन भर सोते हैं और रात को उनके कमरे की रोशनी जलती रहती है. मुझे हाल ही में पता चला है कि एक पड़ोसी है जिसके घर में दो बच्चे हैं. उनमें एक रोज सिंथेसाइजर बजाता है. मुझे पता नहीं था. सुबह नौ बजे रोज कैलाश खेर की टेर ली हुई आवाज़ में सफाई के महत्व वाला गाना बजाती कूड़े की गाड़ी आती है. मैं पहले उसकी आवाज नहीं सुन पाता था.
मेरी बिटिया को ठीक साढ़े नौ बजे रात को सोने की आदत है और मुझे यह भी पता चला है कि उसको सोते वक्त लोरी सुनने की आदत है.
अच्छी खबरों की तलाश में आखिरकार एक अच्छी खबर मिलती है. कोरोना के इस दौर में भी सुकून की एक खबरः धरती मरम्मत के दौर से गुजर रही है. चीन का एसईजेड, जिसको दुनिया का सबसे प्रदूषित इलाका माना जाता था, वहां की हवा में नासा बदलाव देखता है. नासा कहता है वहां की हवा साफ हो रही है. नासा की खबर कहती है वेनिस के नहरों का पानी फिर से पन्ने की तरह हरा हो गया है जिसमें डॉल्फिनें उछल रही हैं. गांव के चौधरी की निगाह हर जगह है. बस चौधरी अपना गांव न बचा पाया. कल तक सुना था करीब 15 हजार अमेरिकी मौत के मुंह में समा गए. मैंने सुना है, अमेरिका अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर बहुत सतर्क रहता है. क्या सब निबट जाए तो अमेरिका, चीन से बदला लेगा? हम तीसरे विश्वयुद्ध की प्रतीक्षा करें?
वेनिस की नहरें तो साफ हो गईं और अपने हिंदुस्तान में क्या होगा? गंगा-यमुना साफ होगी? मुंबई के जुहू बीच पर भी दिखेगी डॉल्फिन? पर नीला आसमान तो सबको दिख रहा है. दिल्ली में लोग सुपर मून, पिंक मून की तस्वीरें सोशल मीडिया पर उछाल रहे हैं. कुछ कह रहे हैं उन्हें परिंदो की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं. लोग खिड़कियों के पास बैठे परिंदे देख रहे हैं.
मौसम का पूर्वानुमान लगाने वाली स्काईमेट जैसी एजेंसी कह रही है, गुरुग्राम से लेकर नोएडा तक पार्टिक्युलेट मैटर (पीएम) की मौजूदगी हवा में कम हुई है. यह कमी लॉकडाउन से पहले के दौर के मुकाबले 60 फीसद तक है.
जाहिर है, यह लॉकडाउन का असर है. तो फिर 15 अप्रैल के बाद क्या होगा? हालांकि प्रदूषण का स्तर नीचे गया है पर यह तो सिर्फ पीएम के स्तर में कमी है. वैज्ञानिक स्तर पर देखें, तो कारें प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है. कम से कम दिल्ली में तो ऐसा ही है. पर किसी भी सियासी मसले के हल के लिए सिर्फ पीएम (प्रधानमंत्री) और किसी भी प्रदूषणीय मसले के लिए पीएम (पार्टिक्युनलेट मैटर) के भरोसे रहना अनुचित होगा. हमको सल्फर ऑक्साइड आधारित और नाइट्रोजन ऑक्साइट आधारित प्रदूषकों पर भी नजर रखनी चाहिए.
अभी तो प्रदूषण के मसले पर हमारी आपकी स्थिति वैसी ही है, जैसे कबीर कह गए हैं
अहिरन की चोरी करै, करै सुई की दान
ऊंचे चढ़ि कर देखता, केतिक दूर बिमान.
लोग लोहे की चोरी करते हैं और सूई का दान करते हैं. तब ऊंचे चढ़कर देखते हैं कि विमान कितनी दूर है. अल्पदान करके हम सोच भी कैसे सकते हैं कि हमें बैकुंठ की ओर ले जाने वाला विमान कब आएगा?
हमने प्रदूषण को लेकर कुछ नहीं किया. न हिंदुस्तान ने, न चीन ने, न इटली ने...न चौधरी अमेरिका ने. हमने साफ पानी, माटी और साफ हवा के मसले को कार्बन ट्रेडिंग जैसे जटिल खातों में डालकर चेहरे पर दुकानदारी मुस्कुराहट चिपका ली है. कोप औप पृथ्वी सम्मेलनों में हम धरती का नहीं, अपना भला करते हैं.
याद रखिए, यह कयामत का वक्त गुजर जाएगा. बिल्कुल गुजरेगा. फिर खेतों में परालियां जलाई जाएंगी और तब हवा में मौजूद गैसों की सांद्रता ट्रैफिक के पीक आवर से समय से कैसे अलग होती हैं उसका विश्लेषण अभी कर लें तो बेहतर.
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