प्रत्यक्षा की किताब 'ग्लोब के बाहर लड़की' को विधाओं के खांचे में नहीं बांधा जा सकता है. पर इसको पढ़कर आप प्रत्यक्षा के रचना संसार में विचर सकते हैं जहां की दीवारें पारदर्शी हैं. यह किताब रचनात्मकता के एक नए अंदाज का आगाज है, जिसको आने वाले वक्त में कई लेखक आगे बढ़ा सकते हैं.
प्रत्यक्षा की किताब या ज्यादा बेहतर होगा उनकी सृजनात्मकता का आईना 'ग्लोब के बाहर लड़की' ऐसी ही एक किताब है. यह शब्दों और कूचियों दोनों से रचे गए रेखाचित्रों और शब्द-चित्रों का संग्रह है. इस किताब में शब्दों की बिनाई और तानाबाना एकदम बारीक है. इसे सृजनात्मकता का आईना इसलिए कहना सर्वथा उचित है क्योंकि इस किताब में बीसेक रेखांकन भी हैं और वह भी प्रत्यक्षा की कूची से निकले हैं.
'ग्लोब के बाहर लड़की' को पढ़ना शुरू करते ही लगता है कि यह छोटी कथाओं का संग्रह है, कुछ आगे बढ़ने पर यह डायरी की प्रविष्टियों सरीखा लगता है, और कहीं कहीं से ये उधर-उधर लिखे नोट्स जैसे लगते हैं.
किताब की शुरुआत में एक पन्ने की छोटी सी भूमिका में प्रत्यक्षा खुद कहती हैं कि ये ‘सतरें दिल की बहकन’ हैं.
इनको न आप कविता कह सकते हैं, न कहानी, न कथा, न यात्रा, न डायरी. पर ऐसा लगता है ब्लॉगिंग की लोकप्रियता के दौर में प्रत्यक्षा ने अपने ब्लॉग पर जो प्रविष्टियां डाली थीं उनको हार्ड कॉपी में उतारा है. पर आपको इसमें बासीपन नजर नहीं आएगा.
जहां वह गद्य लिखती हैं उनमें कविताओं जैसा प्रवाह है और जहां कविता है वहां गद्य जैसी दृढ़ता है. उन्होंने विधाओं का पारंपरिक अनुशासन तोड़कर ऐसी अभिव्यक्ति रची है जिसमें कविता की तरलता भी है और गद्य की गहनता भी. इसे गद्य कविता जैसा कह सकते हैं, पर इस लेखन में गद्य कविता जैसी भावुकता नहीं है.
उनके रचना का स्थापत्य भी कोई सोचा-समझा नहीं है, थोड़ा अनगढ़-सा है. इतना अनगढ़ कि पाठक शब्दों को इस तरह कुलांचे भरता देखकर थोड़ा हैरान भी होगा.
'ग्लोब के बाहर लड़की' में चार खंड हैं. पहले खंड, 'ये जो दिल है, दर्द है कि दवा है' में यदा-कदा अंग्रेजी (और रोमन) के नोट्स दिख जाते हैं. दूसरा खंड, 'घर के भूगोल का पता' है. यह कमोबेश डायरीनुमा है. और इसमें आपको थोड़ा संदर्भ भी मिलता जाता है. तीसरा खंड, 'किस्से करमखोर' है जिसमें कुछ किस्सागोई-सा है. चौथे खंड 'दोस्त दिलनवाज' में प्रत्यक्षा अपने पहले तीन खंडों के मुकाबले अधिक मुक्त होकर लिखती दिखती हैं.
असल में, प्रत्यक्षा के रचना संसार में घूमने का तजुर्बा भी अलग आस्वाद देता है. इसमें ढेर सारे लोग हैं जो बकौल प्रियदर्शन, ‘कसी हुई रस्सी से बने हैं, जहां ढेर सारे लोग बिल्कुल अपनी जि़ंदा गंध और आवाज़ों-पदचापों के साथ आते-जाते घूमते रहते हैं.’
हिंदी में इन दिनों धड़ाधड़ किताबें छप रही हैं, कुछेक उपन्यासों और लेखकों को छोड़ दें, तो अधिकतर किताबों के कथ्य और शिल्प विधान में कोई नयापन नहीं है. इस मायने में प्रत्यक्षा का यह संग्रह थोड़ा अलहदा भी है और विलक्षण भी. 'ग्लोब के बाहर लड़की' पाठक को वह नया जायका दे सकती है.
प्रत्यक्षा ने एक नई विधा की शुरुआत की है और हो सकता है आने वाले वक्त में हमें ऐसी और किताबें देखने को मिलें
किताबः ग्लोब के बाहर लड़की
लेखिकाः प्रत्यक्षा
प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स
कीमतः 160 रुपए
***
No comments:
Post a Comment