Monday, August 17, 2009

बदलता भारत, बदलते नायक-1

सन 47 में जब देश आजा़द हुआ, तो उस समय एक नया जोश था, अपनी आजादी और भविष्य को लेकर। कैसा भविष्य हिंदुस्तान को चाहिए, ये आदर्शवाद फिल्मों में भी दिख रहा था। उस जमाने में जो भी फिल्म बनती थीं उनके चरित्रों में उस वक्त की जिंदगी की झलक साफ दिखाई देती थी।

इसी दौरान सिनेमाई परदे पर देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार सितारे की तरह उगे। लंबे समय तक भारतीय सिनेमा का दर्शक इन तीनों अभिनेताओं में अपने को और अपने आसपास को तलाशने की कोशिश करता रहा।



इस तिकड़ी में दिलीप कुमार असल में रोमांटिक रोल करते थे और दिलीप कुमारनुमा रोमांस का मतलब था ट्रैजिक रोमांस। दिलीप कुमार, रोमांस हो या भक्ति, मूल रुप से अपनी अदाकारी को केंद्र में रखते थे। एक ट्रैजिक हीरो के रुप में उनकी पहचान बन गई थी और वे ट्रेजिडी किंग के नाम से मशहूर भी हो गए।



आजादी के बाद के युवाओं में रोमांस का पुट भरा, देवानंद ने। देवानंद कॉलेज के लड़कों में, एडोलेसेंट लेवल पर काफी लोकप्रिय थे। खासतौर पर शहरों के युवा वर्ग में उनकी गजब की पकड़ थी।



राज कपूर का मामला इन दोनों से अलग था। वे एक अच्छे अभिनेता तो थे ही लेकिन अभिनेता से भी बड़े निर्देशक थे। अपनी फिल्मों में अदाकार के तौर पर उन्होंने हमेशा आम आदमी को उभारने की कोशिश की। एक सामान्य आदमी को गढ़ने में उन्होंने अपनी पूरी प्रतिभा लगा दी। आर के लक्ष्मण के आम आदमी की तरह के चरित्र उन्होने रुपहले परदे पर साकार करने की कोशिश की।



एक आम आदमी, किस तरह देश और समाज के भीतर के बदलावों को समझता है, कैसे इस दुनिया को देखता है, उस किस्म के किरदार उन्होंने करने शुरु किए। 10-12 सालों तक उन्होंने इसी तरह की फिल्में बनाईं। ऐसी ही फिल्मों के सहारे वे एक अभिनेता के साथ-साथ एक मंझे हुए निर्देशक के रुप में उभर कर सामने आए।



राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद, इन तीनों का एक खास स्टाइल था। वह स्टाइल अब भी एकतरह से कायम ही है, क्योंकि हिंदुस्तानी दर्शकों के लिए ये तीनों एक स्टाइल आइकॉन थे।



पहले हम देखें तो देवानंद और दिलीप कुमार की अदाकारी का वही सिलसिला चला जिसके लिए वो मशहूर थे। लेकिन राज कपूर ने कुछ- कुछ जगहों पर खुद को बदला भी, वो एक आम आदमी बन गए जिसमें चार्ली चैपलिन किस्म का चरित्र भी उन्होंने कई तरीकों से दिखाया।



लेकिन इन तीनों का जादू तब चुकने लगा...जब एक किस्म का रियैलिटी चेक (जांच) जिदंगी में आया। परदे पर जो दृश्य बन रहा था, उसका धरातल से कोई रिश्ता नहीं बन पा रहा था। ऐसे में इनकी अदाकारी चलती तो रही लेकिन उसमें वो दीवाना कर देने वाली अपील बची नहीं रही, जिसके लिए लिए तीनों मशहूर थे।


2 comments:

अनिल कान्त said...

वक़्त बदलते देर नहीं लगती...वैसे मुझे देव आनंद की फिल्में आज भी समाज से जुडी हुई सी लगती हैं

Anonymous said...

Hamesha ki tarah lajawab jaankari bhi hai aur maza bhi.

shanti deep verma