Friday, August 21, 2009

बदलता दौर, बदलते नायक-२




इस तिकडी़ के शबाब के दिनों में ही बिमल रॉय ने दो बीघा ज़मीन के ज़रिए मार्क्सवादी विचारों को सिनेमाई स्वर दिए। प्यासा में गुरुदत्त ने एक शायर की मन की उथव-पुथल और भावुक गीतों के ज़रिए कहा कि , ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो... गुरुदत्त बेहद निजी किस्म की फिल्में बनाते थे। लेकिन उन फिल्मों का दायरा बेहद सार्वजनिक हुआ करता था।


दरअसल, रचनाशीलता के बारें में हमारे गुरु बलराम तिवारी कहा करते थे कि जभ तक आपके विचार आपके मन में हैं, वह आपकी निजी संपत्ति हैं, लेकिन काग़ज़ पर उतरते ही अभिव्यक्तियां सार्वजनिक संपत्ति हो जाती हैं। गुरुदत्त की रचनाओं के बारे में, जो काग़ज़ पर भी थी और सिल्वर ब्रोमाइड से रंगी प्लास्टिक पर भी, यही कहा जा सकता है।


गुरुदत्त ने परदे पर एकत अलग तरीके के नायक की रचना की। भावुकता में करीब-करीब शरतचंद्रीय बाना लिए इसनायक पर दुखों का पहाड़ था। काग़ज़ के फूल की बात करें तो इस नायक ने दुनिया के बेगानेपन पर अपनी तल्ख़ टिप्पणी छोड़ी। और जहां तक निजी अभिव्यक्तियों की बात है, वहीदा उनकी फिल्मों का मुख्य स्वर बनकर उभरी। गुरुदत्त की फिल्मों में परदे पर वहदा के बेहतरीन क्लोज शॉट्स इस बात की तस्दीक करते हैं।


दो बीघा ज़मीन की बात करें, तो उस ज़माने की यह पहली फिल्म थी, जिसमें इटालियन नव-यथार्थवाद की झलक तो थी ही, इसका कारोबार भी उम्दाा रहा था। फिल्म वायसिकिल थीव्स से एक हद तक प्रेरित थी और रचनाशीलता के स्तर पर भी कलात्मस विचारधारा झलक रही थी।


फिल्म में बलराज साहनी थे, बेदखल सीमांत किसान की भूमिका को बलराज ने जीवंत कर दिया था। वह ज्यादा आश्चर्यजनक इसलिए भी था क्योंकि उन्हीं दिनों देव-दिलीप और राज कपूर परदे पर रोमांस ही उकेर रहे थे।


हालांकि, दिलीप कुमार ने आवाज़ के मामले में अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना लिया, और ज्यादातर अँडरप्ले कर अदाकारी की। फिर भी, असल जिंदगी में बेहद अभिजात्य बलराज साहनी ने गरीबी को परदे पर जी दिया।


इसी दशक में मदर इंडिया भी आई। परदे पर विद्रोह दिखा। महबूब ख़ान ने जो दिखाया, उसमें भी आदर्शवाद था। नरगिस ने मां को उकेरा...भारत माता के रुप में। अपने ही डकैत बेटे को गोली मारकर इस मदर इंडीया ने आदर्शवाद की नई छवि गढ़ दी। लेकिन दर्शकों का एक ऐसा वर्ग तैयार होना शुरु हो चुका था, जिसकी सहानुभूति डकैत बेटे सुनील दत्त से थी।


लेकिन, साठ के दशक में भी फिल्मों में नायक आते तो रहे लेकिन उनका स्वरुप कमोबेश वैसा ही रहा। पेड़ों के इर्द-गिर्द घूमकर गानेवाले हीरो की। साठ के दशक में लेकिन बदलाव की रुपरेखा तैयार होनी शुरु हो गई थी। मुग़ल-ए-आज़म ने दिलीप कुमार को ट्रैजिक रोमांस के शिखर पर बैठा दिया। लेकिन इसी दशक में एक देशभक्त नायक का आविर्भाव भी हुआ। उपकार में मनोज कुमार ने देशभक्ति को एक नया एंगल दिया और जल्दी ही भारत कुमार बन बैठे।


संगम ने विदेशों में शूटिंग करने का ट्रेंड शुर कर दिया। लेकिन बॉलिवुडीय नायक कुछेक अपवादो ंको छोड़ दें तो रोमांस की परिक्रमा ही करता रहा। 1969 को शक्ति सामंत की ब्लॉकबस्टर आराधना ने रोमांस के एक नए महानायक को जन्म दिया। जो पूढ रहा था मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू....

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