Wednesday, August 10, 2011

बेपानी होते समाज की कहानीः बुंदेलखंड का सच

पिछली पोस्ट से आगे...

 पानी की कमी ने बुंदेलखंड के समाज को बेपानी बना दिया है। बादल रुठे, तो केत वीरान हो गए। हर गांव में कई बदोलन बाई हैं, जो भूख से रिरियाती फिर रही हैं, कहीं बच्चों को घास की रोटी खाने पर मजबूर होना पड़ रहा है..यह सब उस देश में जहां पॉपकॉर्न और पित्सा कल्चर पॉपुलर कल्चर के नाम से जाना जा रहा है। क्या हमें शर्मिन्दा होना चाहिए?

हमारे एक ब्लॉगर दोस्त राहुल सिंह ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि क्या बुंदेलखंड में यह समस्या हमेशा से रही है? क्या यह इलाका पहले से खुशहाल रहा है...?

मुमकिन है मेरे पोस्ट से उन्हें एक एक कर जवाब मिलता जाएगा। 
बुंदेलखंड के ज्यादातर लोग खेती करते हैं...तकरीबन 85 फीसदी लोगों के पेट भरने का ज़रिया खेती ही है। लेकिन, पिछले कई साल से बादल रुठ गए..खेत वीरान हो गए। 

सूखा...जिसने किसानों के हलक सुखा दिए। हालांकि, सूखा बुंदेलखंड के लोगों के लिए नई बात नहीं है, नई बात जो है वह है इससे होने वाली तबाही। सूखे ने उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड की आधी से ज्यादा खेती को तबाह कर दिया है। 

गहराते सूखे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2008 में एक केंद्रीय टीम बनाई। 2008 में आई उसकी रिपोर्ट के मुताबिक, 19वीं और 20वीं शताब्दी के 200 वर्षों में इस इलाके में केवल 12 साल सूखे के थे। यानी इस दौरान  सूखा हर 16 साल में एक बार पड़ता था। लेकिन 1968 से लेकर पिछली सदी के आखिरी दशक में हर पांचवां साल सूखा रहने लगा। 

....और अब तो पिछले दस साल से बुंदेलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है।

पिछले दशक भर से बारिश की मात्रा साल दर साल कम होती गई है। बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश के सात जिलों की बारिश की मात्रा बताती है कि स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैँ।

साल 2 हजार तीन-चार में औसत सालाना बारिश की मात्रा 987 मिलीमीटर थी, जबकि साल 2 हजार 4-05 में यह 530 मिलीमीटर, 2005-06 में 424 मिलीमीटर, 2006-07 में 330 मिलीमीटर, 2007-08 में 240 मिलीमीटर ही हुई।


सूखे की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बुंदेलखंड के अधिकतर किसान पिछले साल खरीफ फसल की अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पाए। खेती चौपट होने के कारण आपदा जैसी स्थितियां तो बननी ही हैं।

..आपदा जैसी इस स्थिति ने बदोलन बाई का परिवार ही उजाड़ दिया। 
बदोलन की भूख से देश को शर्मिन्दा होना चाहिए.


बदोलन बाई का घर किसी भी कोण से झोंपड़ा भी नहीं लगता। तीन तरफ की गिरी हुई दीवारों ने घर को खंडहर कहलाने लायक नहीं छोड़ा है। 

चित्रकूट जिले के पवा गांव की बदोलन के पति भूमिहीन मजदूर थे। कई साल से चल रहे सूखे ने जब 2007 में भयावह रुप अख्तियार किया तो बदोलन के पति को मजदूरी मिलनी भी बंद हो गई। पूरा परिवार भुखमरी की चपेट में आ गया।

..आखिरकार बदोलन के पति को आखिरी बार भूख लगी...। पिता की मौत के बाद बदोन का बड़ा लड़का दिमागी संतुलन खो बैठा, छोटा दिल्ली जाकर रिक्शा चलाने लग गया।

अब गांव में बदोलन अकेली भूख से जूझ रही है। उसके विक्षिप्त हो चुके लड़के को गांववाले दया से कुछ खिला देते हैं। लेकिन, ये सारी स्थिति बयान करते समय विगलित होने का दौर आता है। उम्र में मेरी दादी जैसी बदोलन कभी मेरे तो कभी अभय निगम (कैमरामैन) के पैरों पर गिरी जाती है। 'सब राज-काज चलत दुनिया में, एक हमारे सुधि न ले है कोई...' उसकी शिकायत में भारतीय प्रजातंत्र का पोस्टमॉर्टम हो जाता है।




मेरे मन में एक साथ शर्मिंन्दगी और गुस्से के भाव आते हैं। व्य़वस्था के खिलाफ़ मेरे मन में एक और परत बैठ जाती है।

लेकिन भूख से जूझने वाली बदोलन अकेली नहीं है। चित्रकूट के पाठा इलाके में कई ऐसे घर हैं, जहां के बच्चों को खर-पतवार यानी चौलाई की रोटी खानी पड़ रही है। घर में आटे की कमी है, लेकिन भूखों की पेट का क्या करें...जंगली खर-पतवार को पीसकर आटे में मिलाकर खाने का बंदोबस्त किया जा रहा है। 

तीन-चार घरों में जाता हूं, महिलाएं सिल-बट्टे पर चौलाई कूटती हैं, उसे आटे में मिलाकर रोटियां तैयार करती हैं। दिखने में यह रोटीपालक-परांठे जैसा ही है, लेकिन घास की रोटी मूलतः घास की रोटी होती है। दिखने में चाहे जैसी हो...।


मुझे याद आते हैं दिल्ली के मॉल्स में घूमते वो बच्चे, कैप्री पहने बच्चे, कई सौ रुपये की आइसक्रीम पर हाथ साफ कर जाने वाले, सिनेमा देखने जाएं तो मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न के साथ कोक के कॉम्बो ऑफर के लिए सैकड़ों खर्च कर देने वाले, अपनी ही उम्र के न जाने कितने बच्चों की रोटी का हिस्सा खा जा रहे हैं। 



मौज-मजे के लिए पॉपकॉर्न खाने के आदी हो रहे देश में यह घटना दिल दहला देने वाली है।

बेपानी होते समाज की कहानी
यह भूख अकेली नहीं, इसका साथ दे रही है प्यास..।


यूपी-बुंदेलखंड के सात जिलों के कुल 4551 गावों में से करीब 3 सौ में ही साल भर पीने का पानी रहता है, जबकि 74 गांवों में सिर्फ एक महीने पीने का पानी मिलता है।

पानी के संकट का सबसे बडा असर पड़ता है महिलाओं पर। उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी का बड़ा हिस्सा पानी ढोने में गुज़र जाता है। 

पूरे बुंदेलखंड के लगभग 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं - या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या वे सूख गए हैं। 

पानी का संकट पूरे बुंदेल समाज को बेपानी बना रहा है। पूरा समाज पानी के लिए तरस रहा है। लोग गंदा पानी पीने के मजबूर हैं। 

आपने शायद पहले कभी देखा न होगा...कि एक ही गड्ढे से सूअर और इंसान दोनों ही पानी पी रहे हैं। लेकिन सड़क के एक ओर गड्ढे से पानी लेती लड़की को देखता हूं, पानी बेहद गंदा है। उससे भी जुगुप्सापूर्ण बात ये कि लड़की के ठीक पीछे पानी पी रहा सूअर दिखता है। 

सारी मानवीयता भूलकर मैं राजकुमार पर चिल्लाता हूं, शूट कर, शूट कर, विजुअल बना। वह पूरी ईमानदारी से अपना काम करता है। मेरे अंदर का आदमी धीमी मौत मर रहा है उस वक्त। उस वक्त मैं सिर्फ एक रिपोर्टर की तरह देख रहा हूं। 

बोतलबंद पानी के बढ़ते बाजार भारत में मैं अगर अमानवीय रुख अपना रहा हूं, तो यह घटना अमानवीयता से कुछ ज्यादा ही है। 

हम केन नदी तक पहुंचते हैं। कुछ लोग पीने के लिए पानी ढोकर ले जा रहे हैं। पानी बैलगाडियों से ढोई जा रही हैँ। किनारे गंदा पानी है, मछलियां मरी पड़ी है, बगल में बैल भी पानी में घुसे हैं, कुछ लोग नदी की बीच धारा से पानी ले कर आ रहे हैं, कमर भर पानी में घुस कर...इन लोगों को लग रहा है कि शायद नदी की बीच धारा से पानी लाने पर उसकी गुणवत्ता बोतलबंद पानी जैसी हो जाएगी। 

पानी ढो रहगी महिला शिकायत करती है, सारे नल और कुएं सूख चुके हैं। इसी पानी में मुरदे पड़े रहते हैं...लेकिन पानी कहीं और मिलता ही नहीं। पानी के इसी संकट ने कई बार आबरु का व्यापार भी करवाया है। एक बाल्टी पानी रके लिए एक महिला को अपनी इज़्ज़त तक दांव पर लगानी पड़ी। लेकिन वह कहानी अगली कड़ी में।




जारी....

3 comments:

Shanti Deep said...

dardnaak dastan hai, phir bhi aapne jis tarah se likha hai lagta hai poori film parde par chal rahi hai aur saare charitr aur yatharth aankho ke saamne goom raha hai.

Gaurav Srivastava said...

बहुत ही जादा दर्दनाक है , ये सब पड़कर दिमाग सुन्या हो रहा है
कुछ समझ में नहीं आता , शर्म , दुःख के साथ साथ बहुत गुस्सा भी आ रहा है
लेकिन अपने आप को बहुत असहाय महसूस करता हूँ
मुझे समझ में नहीं आता , क्या ये सब वंहा के प्रशासन को नहीं दीखता .
क्या वंहा के प्रशासन में बैठे लोगो की मानवता और इंसानियत भी मर चुकी है .

कुमारी सुनीता said...

"यह भूख अकेली नहीं, इसका साथ दे रही है प्यास..।" ............. उफ़्फ़