Friday, November 4, 2011

सप्तपर्णी का मौसम

सप्तपर्णी के फूल खिल गए हैँ। उसकी मादक गंध मेरे दिलोदिमाग में छाती जा रही है। यह गंध मुझे अपने दस साल पीछे अतीत में ले जाती है।

दिल्ली खुद से न जाने किस तरह लोगों को जोड़ती है। मुझे इसने सप्तपर्णी की मादक खुशबू से जोड़ा है। हर जगह आपको किसी न किसी तरह जोड़ती होगी। दिल्ली का ख्याल मन में आते ही विजुअल्स अलग लोगों के मन में अलग अलग आते होंगे...किसी के मन में दिल्ली का मतलब लाल किला होगा, कोई इंडिया गेट से तो कोई कुतुब मीनार से जोड़ता होगा, किसी के लिए दिल्ली संसद भवन से आगे कुछ नहीं। जैसे खयालात वैसे विजुअल्स...लेकिन किसी जगह को लेकर कोई खुशबू कौंधती है मन में...??



मेरे मन में दिल्ली, खासकर दिल्ली की रात की गंध सोचते ही यह एक खूशबू में तब्दील होती है।

आप अगर दिल्ली में रहते हैं, तो एक मादक गंध ने आपका ध्यान भी ज़रूर आकर्षित किया होगा। खासतौर यह गंध अक्तूबर के आखिरी महीनों और नबंवर के आखिर तक के कुछ सप्ताहों में ही नाकों तक पहुंचती हैं।

इस मनमोहक गंध ने मुझे शुरु से अपनी ओर खींचा। पहले तो पता ही नहीं चला कि आखिर वो पेड़ है कौन सा। मैं साल 2002 में भैया के घर आश्रम से अपने एक सीनियर के घर जाता था। नॉर्थ में। पहले वो विजयनगर में रहते थे, फिर मुखर्जीनगर की तरफ शिफ्ट हो गए।

मैं महारानी बाग से बस पकड़ता था...रिंग रोड तीव्र मुद्रिका। मुद्रिका सर्विस की ब्ल्यू लाईन की बस के भीतर बदबुओँ का भभका होता था। लेकिन एक बार बस सराय काले खां बस अड्डे को पार कर गई तो खिड़की से इस मादक हवा के झोंके आने लगते थे। मैं प्रायः शाम को जाता था और रात 11 बजे तक लौटता, कुछ पढाई-वढाई करके। जाते समय यह खुशबू कम तेज होती...वापसी का सफर इस खूशबू की वजह से बेचैन रहता।


लगता कि कोई मुझे, मेरे पूरे वजूद को कही से पुकार रहा है, पुकार ही नही रहा, झकझोर कर अपनी तरफ खींच रहा है। बहुत खोज के बाद वह पेड़ पता चल ही गया, जो योजनगंधा की तरह मुझे अपना बनाए हुए थी।

छोटा था तो मां कहती थी रात को इत्र, सेंट खुशबू वगैरह न लगाया कर या देर रात अकेले जाते समय, कही कोई खूशबू पता चले, तो उसकी चर्चा मत किया कर। परियां रात में खुशबू लगाकर कुंवारों को रिझाती हैं। सच तो यह है कि अगर अंगरेज जिस पेड़ को डेविल्स ट्री कहते हैं, या मां के मुताबिक जो खुशबू परी की या अप्सरा की, या किसी चुड़ैल की ही हो..वह रिझाती है, तो सच तो यह है कि सप्तपर्णी ने मुझे रिझा लिया था।


 इस  वृक्ष को भारत में सामान्यतः सप्तपर्णी के नाम से जाना जाता है और इसका वैज्ञानिक नाम एलस्टॉनिया स्कॉलरिस है। अंग्रेज इसे अगर इसे डेविल्स ट्री कहते हैं तो गलत नहीं कहते। कभी कभार इसे  ब्लैकबोर्ड ट्री के रूप में भी जाना जाता है। बॉट्नी वाले जानते होंगे कि यह पेड एपोसाएनेसी परिवार का है।


कभी इतिहास में हमने कही पढ़ा था, सप्तपर्णी की गुफाओं के बारे में। क्या इन्हीं पेड़ो के नाम पर गुफा समूहों का नाम पडा़ था..। जो भी हो, अब जब इस पेड़ से पहचान हो गई है, सप्तपर्णी के पेड़ जहां कहीं देखता हूं, किसी भी मौसम में, बड़ा अच्छा लगता है।

लगता है किसी ऐसे चाहने वाले से मिल रहा हूं, जो मुझसे कुछ मांग नही रही, जिसकी कोई शर्त नहीं है। जो सिर्फ खुशबू दे रही है। जो बड़ी बड़ी आंखों, घनेरी जुल्फों से मेरी तरफ देख तो रही है..लेकिन शिकायत उसकी इतनी ही है, हम काट मत देना।

घनेरी जुल्फें इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि सप्तपर्णी का पेड़ बहुत हरियाला होता है। एक हरा, कचोर, घना। आप को दिखे, ये पेड़, आपको कभी खुशबू मिले इसकी, तो कहिएगा, मंजीत बहुत याद करता है तुम्हे सप्तपर्णी...।

4 comments:

Rahul Singh said...

महानगरों पर हावी खुशबू कुछेक ही महसूस कर पाते हैं.

Smart Indian said...

सुगन्धित पोस्ट! इसी तरह दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में कुछ समय पर मौलश्री की गन्ध भी तैरती रहती है।

Smart Indian said...

सुगन्धित पोस्ट! इसी तरह दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में कुछ समय पर मौलश्री की गन्ध भी तैरती रहती है।

विभूति" said...

khubsurat post....