Sunday, April 15, 2012

ज़िंदगी ख़िज़ा-ओ-बहार का फलसफ़ा है

पिछली बार जब मैंने जॅतो खाबने तॅतो मॅजा पाबेन लिखा तो लगा कुछ छूट-सा गया है। कई दिनों से सोच रहा था कि क्या जिंदगी और क्रिकेट के नियम एक ही हैं..? दोनों को एक ही तरह से लागू किया जा सकता है क्या? चार्ली चैप्लिन ने कहीं लिखा है कि, जिंदगी लॉन्ग शॉट में कॉमिडी और क्लोज शॉट में ट्रैजिडी है।

सुखांत और दुखांत, क्लोज शॉट और लॉन्ग शॉट...दुखों की अपनी-अपनी परिधियां हैं।

मेरे दुख का वृत्त कई बार बहुत बड़ा हो जाता है। कई बार दूसरों का दुख दुखी करता है, कई बार अपना निजी दुख व्यापक लगता है। लेकिन हेकड़ी यह है कि उन दुखों को लेकर कभी मन्नत नहीं मांगी।

याद आता है, बचपन में कई बार लगा कि चारों तरफ़ से घिर गया हूं। एक कविता के अंश हैं, कुछ उन्ही परिस्थितियों के लिएः

हमारी वादी में अब ख़िज़ां है
सभी दरख़्तों ने अपने पत्ते उतार फ़ेंके
किसी की आंखों में आने वाली हसीं दिनों की चमक नहीं है
किसी के चेहरे पर ज़िंदगी की रमक़ नहीं है

सभी ने शायद समझ लिया है
कि कल कोई मोजज़ा न होगा
कभी ये मौसम हरा न होगा
ये दिन जो अब है, तवीलतर है
कि हर दुआ अब के बेअसर है

(ख़िजां-पतझड़, रमक़- आभा, मोजज़ा-चमत्कार, तवीलतर-अत्यंत लंबा)

कई बार ऐसा लगता है कि जिंदगी का ये मोड़ कभी न सुधरे। कभी अच्चा मौसम आएगा ही नहीं। अँधेरे रास्ते, सूझती नहीं मंजिल...की तरह का।

महज ढाई साल का था तो पिताजी का निधन हो गया। सबसे बड़े भैया थे, जिनपर सारे घर का भार आ गया। चाचा और दायाद बांधवों जैसे रिश्तों के साथ बदकिस्मती ये है कि मौके पर धोखा देना कोई इनसे सीखे। गांव पर हमारे हिस्से की जमीन पर कब्जा कर लिया। इन मौकों पर ही दबी-सकुचाई रहनेवाली मां ने दिखा दिया कि वो लौह महिला हैं।

बड़े भैया 15 साल के ही थे महज उस वक़्त। गुल फैक्ट्री ( एक तरह का पाउडर होता है तंबाकू का) उसके डिब्बों पर लेबल लगाने लगे। मां को पेंशन  मिलना तीन साल बाद शुरु हुआ। इन तीन सालों ने और जो कुछ किया हो, बचपन छीन लिया हमारा। मुझसे 9 साल बड़ी मेरी बहन, और सात साल बड़े मेरे भाई..और मैं। घर में हमीं लोग रह जाते। घर के अहाते के ठीक सामने एक बड़ा पोखरा था। अहाते की दीवार और पोखरे के बीच इमली का बड़ा पेड़...घना..। अंधेरे में बाहर निकलते ही लगता कि कोई आके दबोच लेगा। भूत-प्रेत। इँसानों का डर तो पहले खत्म हो चुका था।

उस वक्त लगता था कि हमारा ये वक़्त, ये बुरा वक्त कभी खत्म नहीं होगा। अपने चाचाओं के व्यवहार ने मुझे बहुत धक्का पहुंचाया। छह-सात साल का होते न होते मुझे दुनियादारी की बहुत सी बातें समझ में आने लगीं। और यही वजह है कि मैं अपने भतीजों को वह प्यार देना चाहता हूं जो मैंने अपने चाचाओं से नहीं पाया।

हमारे आंगन में भी पेड़ों की कमी न थी। पिताजी को बागवानी का बहुत शौक़ था। आंगन में हरसिंगार के, नीम के, और आंता (एक तरह का फल जो शरीफे जैसा ही होता है) के दो बड़े पेड़ थे। इतने पेड़ थे कि अंधेरा डराने लायक तमाम आकृतियां बना देता।

मेरी दीदी हनुमान चालीसा पढ़ने लगती थीँ। बड़े भैया और मां पेंशन के लिए प्रायः पटना जाते। सरकारी बाबुओं का रवैया कुछ ऐसा कि उन्हें हमसे हमदर्दी तो खैर क्या होती, अड़ंगेबाजी के लिए बहाने मिल ही जाते। 

ऐसी परिस्थितियों में बहुत सी चीजों, संस्थाओं से विश्वास छीज गया। ईश्वर भी उन्हीं संस्थाओं में हैं। हालांकि उस वक्त तक मैं ईश्वर के खिलाफ़ गुस्से में था, बाद में विज्ञान का छात्र हुआ तो गुस्से की बजाय अविश्वास को तार्किक आधार मिले।

लेकिन, वक़्त बड़ा मरहम है। जिंदगी के उस फेज़ से हम निकले। हम अपनी राह पकड़ ली।

क्रिकेट का बड़ा शौक़ रहा था मेरे भैया को। उनको खेलते देखता था...। प्रतिभावान् क्रिकेटर थे। लेकिन 15 साल की उम्र अगर कमाना पड़े। पांच लोगों के पेट के आगे...कौन खेल को ध्यान देगा। लेकिन भैया भी और मैं भी क्रिकेट को जिंदगी की पाठशाला मानता हूं।

बुरे वक्त पर बाउंसरों के सामने डक करना हो या कमजोर गेंद पर चौका मारना, अपने ऑफ स्टंप का पता रखना हो या फील्डिंग सजाना...जिंदगी को कायदे से जीने का हर गुर क्रिकेट में है। लेकिन इस बारे में चर्चा फिर कभी...अभी तो अंत करुंगा इसी लाईन पर कि.--

मैं अब भी ये सोचता हूं
कोई तो होगा
गई बहारों के फूल कुछ, जिसके घर में होंगे
कोई तो होगा
मेरे ही जैसा
कि दूर के सब्ज़ाज़ार जिस की नज़र में होंगे

(सब्ज़ाज़ार- हरियाली)

3 comments:

अनुपमा पाठक said...

दुःख दर्द का साथ और जीवन एक दूसरे के पर्याय से हैं... पर राह निकल ही आती है, यही तो जीवन है!

प्रवीण पाण्डेय said...

दुख आते ही जिन्दगी को लम्बा कर देते हैं हम..

अनूप शुक्ल said...

बहुत मार्मिक संस्मरण! दुख के दिन बीत जाते हैं लेकिन याद बहुत आते हैं। आपकी जिजीविषा को सलाम।