Monday, January 21, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः पहला दिन

अचानक बॉस का कॉल आया, तो उलझन में था। बॉस का कॉल आना कोई अच्छी बात नहीं होती। लेकिन, मुझसे बड़ी मुलायमियत से बात करते हुए बॉस ने आदेश दिया कि मुझे अगले सात दिनों के लिए एक टूर पर जाना है। टूर है, महात्मा बुद्ध से जुड़े कुछ स्थानों पर दो एपिसोड के एक कार्यक्रम के लिए।

पहला दिनः दिल्ली में धूप भी खिली थी, और हवा भी तेज़ थी। लेकिन 20 जनवरी को कत्तई यह अहसास नहीं हो रहा था कि अठारह-उन्नीस को ज़बरदस्त बारिश हुई हो।

हमेशा से कतार में लग कर टिकट लेने वाले के लिए सफ़दरजंग रेलवे स्टेशन पहुंचकर हुआ स्वागत अजूबे से कम नहीं थी। स्टेशन के गेट पर दो महिलाएं खूबसूरत साड़ियों में सजी खड़ी थीं,, माथे पर तिलक लगाने और गले में गेंदे की माला पहनाने के लिए। जीवन में दूसरी बार किसी कन्या ने गले में हार पहनाया, पहली बार जिसने पहनाया था, वह हार गेंदे का नहीं था। वह हार भी नहीं था, वह माला थी। जयमाला।

भारतीय रेल की एक त्रासदी है। इसका सरकारी होना। सरकारी होने की वजह से अंडगेबाज़ी इसके सबसे अहम लक्षणों में से एक बनकर रह गई है। डेढ़ बजे चलनेवाली ट्रेन सफदरजंग से 3 बजे चली। लेकिन चली, ये सबसे अच्छी बात रही।

हमें एक कूपा दिया गया। मैं और मेरे साथ मेरे कैमरा मैन गोपाल दास। मैंने उस बर्थ को देखा, गौर से देखा, जो अगले सात रातों तक हमारी कुर्सी-बिछौना बना रहने वाला है।

बिस्तर बिछा था। गोपाल जी ने कुछ शॉट्स लिए। लेकिन रात भर में वाया लखनऊ हमें बनारस होते हुए गया पहुंचना था। गया पहुंचने के लिए सुबह साढे आठ का वक्त तय था। नींद हमें जल्दी नहीं आती। फोन का नेटवर्क आता-जाता रहा। कुछ इष्ट मित्रों से फोनियाने की इच्छा दबी की दबी रह गई। 

दूसरा दिनः सुबह नींद खुली, बाहर झांका तो कुहरे की सफेद चादर में सब कुछ लिपटा था। मन में आया एक कविता लिख डालूं...लेकिन उस कविताई पर नींद ज्यादा भारी थी। सो गया...। अगली दफा अटेंडेंट ने चाय दी, तो सात बजे थे सुबह के।

थोड़ी ही देर में सूरज महाराज खुद कुहरे की चादर हटाकर मैदान में कूद पड़े थे। ओस में अलसाए खेत...उनसे निकलते भाप...कैमरा असिस्टेंट राजकुमार नहा-धोकर सामने आ खड़े हुए। नहाने का इंतजाम भी है..? जी हां, बोगी में नहाने का इंतजाम भी है। हमारे बाद वाली पूरी बोगी थाई तीर्थयात्रियों से भरी है। हमारी बोगी समेत ट्रेन की हर बोगी के दरवाज़ों में ताले जकड़ दिए जाते हैं।

विदेशी सैलानी साथ हैं तो एहतियात जरूरी है। हमने देश के आम आदमी की तुलना की, जो कतार लगाकर लात खाता हुआ, कुलियों के ज़रिए जनरल बोगी में सीट हासिल करता है।

मैं अपने दुश्मनों को हमेशा आम आदमी हो जाने का शाप दिया करूंगा।

बहरहाल, पता चला आने वाला स्टेशन बनारस ही है। काशीनाथ सिंह ने लिखा ही है, जो मज़ा बनारस में, न पैरिस में, न फारस में। मन मचल उठा..प्लेटफॉर्म पर टहल आऊं। एक दो ठो अखबार ही उठा लाऊं। (अखबार की ख़ब्त ज्यादा थी) कुछ इस तरह की मैं आज का अखबार न पढूं, तो राहुल बाबा उपाध्यक्ष पद छोड़ ही देंगे।

अटेंडेट ने टोक दिया। दरवाजे नहीं खुलेंगे। अखबार मै ला देता हूं। मेरा मिजाज़ गर्म हो गया। अबे, ट्रेन है कि बिग बॉस का घर। दरवाजे नहीं खुले। पर अखबार हासिल हो गया। हिंदुस्तान का बनारस संस्करण। दोनों भाषाओं में।

गया पहुंचते-पहुंचते शाम के तीन बज गए। भारतीय रेल का कुछ नहीं हो सकता। सात बजे सुबह से ही आसमान साफ था, धूप खिली थी, ट्रेन भी विश्वस्तरीय सेवा के डींगों के साथ चल रही थी, तो भी सुबह के साढे आठ की बजाय हम दोपहर बाद तीन बजे गया पहुच पाए।

लेकिन वहा उत्तम भोजन ने इस जन्मना ब्राह्मण को तृप्त किया। अंत में गरमा-गरम गुलाब जामुन।

इस सफ़र में फिर हमारा काफ़िला पहुंचा, जापानी मंदिर। बुद्ध की 80 फुट की प्रतिमा के पीछे सूरज डूब रहा था। ऐसा लग रहा था कि किसी बढ़िया फिल्म की शूटिंग के लिए शानदार बैक-लाइट दिया गया हो।

इससे पहले में सन् 1994 में आया था। इसी 80 फुट वाले बुद्ध की प्रतिमा भी देखी थी। यादें ताज़ा हो गई। बड़े भाई साथ थे तब उस सफ़र में।

वहा से महाबोधि मंदिर। मुलाकात हुई पर्यटन विभाग में कभी डिप्टी डायरेक्टर रहे, और अब सेवानिवृत्त हो चुके रामबली सिंह से। रामबली जी ने लयात्मक और ठेठ बिहारी हिदी-अंग्रेजी में सबको इस जगह की जानकारी दी। सारी जानकारी जो आप पहले ही नेट से पढ़कर जाते हैं, या अपने फोन पर गूगलिंग कर सकते हैं।

फिर भी, वापस बस में ठुंस कर हम ट्रेन में पहुंचे। ट्रेन में पहुंचने से पहले मैंने एक अच्छा काम किया। गया स्टेशन के पास एक भड़भूंजे की दुकान से मूंगफली और भिंगोये चनों को भुनवा कर साथ में मिर्च और नमक रखवा लिया। शाम को सूप के बाद काम आने वाले थे।

अब ट्रेन चल रही है, रूक रही है। रूक-रुक कर चल रही है, और चल-चल कर रूक रही है। कल सुबह भुवनेश्वर पहुंचूंगा, तो वहां के आवारेपन का रोज़नामचा कल शाम को।





5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बुद्धं शरणम् गच्छामि, जीवन सहन और वहन दोनों ही करना आ जायेगा।

Soumitra Roy said...

फल्‍गु नदी के कुछ शॉट्स लिए या नहीं। भुवनेश्‍वर का आवारापन। वाह। इंतजार रहेगा। अभी दिसंबर में ही हो आया था भुवनेश्‍वर।

NEERAJ TIWARI said...

Intezaar rahega..

eha said...

यात्रा वृतांत...बढ़िया..

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा रोजनामचा है। आगे के रोजनामचे का भी इंतजार करेंगे। अखबार मिलते रहें। चना-चबेना भी।