Monday, January 28, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः ललितगिरि, उदयगिरि, रत्नागिरि

रत्नागिरि, उदयगिरि, और ललितगिरि...उम्मीद ये थी कि भुवनेश्वर सुबह-सुबह पहुंच जाएंगे। लेकिन, भारतीय रेल जिंदाबाद। हम दोपहर एक बजे, हरिदासपुर उतरे। ये कटक से पहले एक बेहद छोटा स्टेशन था।

स्थानीय लोगों ने भारी भीड़ जमा रखी थी। हमारे आने पर स्वागत का इंतज़ाम भी था।

हरिदासपुर से बस वगैरह से पहले ललितगिरि ले जाया गया हमें। दिन भर में हमें ललितगिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि और धौलागिरि देखना था।

ये तीनों जगहें, महात्मा बुद्ध से सीधे तौर पर जुड़ी हुई नहीं हैं। लेकिन, इनका संबंध विदेशों में बौद्ध धर्म के विस्तार में रहा है। बौद्ध धम्म अगर एक विश्व धर्म के रूप में अपनी जगह बना सका, तो इसकी बड़ी वजह कलिंग पर अशोक की चढ़ाई रही और कलिंग की एक बड़े वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में ख्याति रही।

ललितगिरि में उत्खनित स्थल, उड़ीसा

यह बुद्ध के कुशईनगर में महापरिनिर्वाण के महज दो सौ साल के भीतर ही हुआ। कलिंग का युद्ध 261 ईसापूर्व में हुआ, कहा जाए तो इसने विश्व इतिहास की दिशा बदलने में बड़ी भूमिकी निभाई।

धौलागिरि तो हम जा ही नहीं पाए, सांझ घिर आई थी। पता चला, यही वो जगह थी, जहां अशोक-कलिंग युद्ध हुआ था। आश्चर्यजनक रूप से कलिंग के सम्राट्, जिसे 'महोदधिपति' यानी 'समंदर का राजा' (स्रोतः रघुवंश) और बौद्ध साहित्य 'मंजूश्रीमूलकल्प' के मुताबिक कलिंग सागर में मौजूद सारे द्वीपों का स्वामी 'कलिंगोदरा' कहा गया है--उसके नाम का जिक्र  कहीं नहीं मिला।

ललितगिरि में उत्खनित स्थल, फोटोः इप्सिता बनर्जी


धौलागिरि, भुवनेश्वर के पास है। यहां सन् 1837 में उत्खनन में एक शिलालेख मिला है, जिसे ईसापूर्व 273-236 में यहां अशोक के आदेश से शांतिस्तूप बनाकर स्थापित किया गया था। इसमें मागधी-प्राकृत में ब्राह्मी लिपि में लेखन किया गया है।

उड़ीसा के इन इलाकों में सन् 639 में चीनी यात्री ह्वेन सांग भी आया था। उसने अपने वृत्तांत में लिखा था, कि इस इलाके में यानी आज के जाजपुर, केन्द्रापाड़ा और कटक ज़िले में उसे सौ भी ज्यादा स्तूप मिले। इनमें से तारापुर का केश-स्तूप, लंगुडी पहाडियों में स्थित अशोक स्तूप और रत्नगिरि, उदयगिरि ललितगिरि और पुष्पगिरि (मशहूर विश्वविद्यालय) में विहारों की श्रृंखला सबसे महत्वपूर्ण थी।

ये विहार महायान और वज्रयान शाखा के थे।

रत्नागिर और ललित गिरि में भग्नावशेषों और खुदाई में निकले ढांचों को देखने के बाद बौद्ध धर्म के थेरवाद--जो स्तूपों की सामान्य ढंग से पूजा करते थे--से महायान और वज्रयान (तांत्रिक बौद्ध धर्म) के विकास को परिलक्षित किया जा सकता है।

ललितगिरि के स्तूप से महात्मा बुद्ध के शरीर के कुछ अवशेष भी मिले हैं...जो अब भुवनेश्वर में भारतीय पुरात्त्व सर्वेक्षण के संग्रहालय में रखे गए हैं। हमने इनका भी दीदार किया।


वैसे, धातु वंश के मुताबिक, कलिंग के राजा गुहशिव ने, जो बुद्ध के अवशेषों के रूप में प्राप्त उनके दांतो की पूजा करता था, मगध के राजा पांडु के डर से उन दांतो को अपनी बेटी हेममाला और दामाद दंतकुमार के साथ श्रीलंका के अपने मित्र राजा महासेना के पास भिजवा दिया। उसकी बेटी और दामाद सन् 310 में अनुराधापुर पहुंचे थे, और पवित्र दांतों को महासेना को सौंप दिया था।

खैर, रत्नागिरि, उदयगिरि और ललितगिरि के इतिहास पर थोड़ी रोशनी डालना जरूरी था, ताकि इनका ऐतिहासिक महत्व स्पष्ट हो सके। मेरा वहां का अनुभव कल लिखूंगा।

...जारी







2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बौद्ध के विस्तार में कलिंग का अप्रत्यक्ष योगदान महत है।

eha said...

पूरा इतिहास खंगाल दिए है...नई जानकारियां मिली है...बेहतरीन..