Saturday, March 7, 2015

आई डोंट मिस एनिथिंग!

मेरे घर के बच्चों ने होली की तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट की हैं। उससे पहले बड़े भैया ने चांद की तस्वीरें पोस्ट की थीं...कैप्शन देते हुए। होली पर मेरे भाई, भतीजे, भांजे...सब एक साथ थे। मैं नहीं था।

मेरा घर मधुपुर में था। मेरा घर मधुबनी में भी था। अब मैं वैशाली में रहता हूं। जो न दिल्ली है, न यूपी है। दोनों का अजीब-सा सम्मिश्रण है। यूपी वाली अराजकता है, दिल्ली जैसे लोग हैं। मेरी जड़ें मधुपुर में थीं। मेरी जड़ पर किसी ने टांगी मार दी। टांगी कुल्हाड़ी को कहते हैं।

पहले मैं अपने मधुपुर को बहुत मिस करता था। लगता था कहां आ गया। मधुपुर मेरे आत्मा में थी। मधुपुर का दशहरा, मधुपुर की दीवाली, मधुपुर का छठ...मधुपुर का भेड़वा मेला, मधुपुर का गोशाला मेला, मधुपुर की होली...मधपुर की पतरो नदी। मधुपुर का जंगल, मधुपुर की चिड़िया...मधुपुर की मिठाई, समोसे, आलूचाट, मेरा स्कूल, स्कूल वाले दोस्त..अमड़ा, इमली की चटनी, बेर, काला नमक। मधुपुर की हर चीज़। हर चीज़ में इमोशनल मूर्ख की तरह मिस करता था। 

अब मुझमें मधुपुर कहीं नहीं है। ना मैं मधुपुर में कहीं हूं। ये शहर भूला मुझे मैं भी इसे भूल गया।

किसी ने मधुपुर में मेरी जड़ काट दी है। पटना से दिल्ली प्रवास के लिए निकलने वाला था तो आदरणीय़ शिक्षक बलराम तिवारी ने कहा था, जड़ो को मत भूलना। जड़ से उखड़ा पेड़ कहीं का नहीं होता, न बढ़ता है। सूख जाता है।

तो क्या यह मान लूं कि मैंने सूखने की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं?

होली के रंग में अब वो ताव न रहा। रिश्तों में वह गरमाहट न रही। एक बड़े भाई सरीखे शख्स हैं, वह आपस में मिलते थे, तो कहते आओ मंजीत, तुम आते हो तो अच्छा लगता है। बहुत सीधा सा वाक्य है। लेकिन, भरत मुनि का नाट्य शास्त्र भले ही ऐसे मेलोड्रामाई  रिश्तों पर चुप हो, मैं कहता हूं कि आपसी रिश्तों में बोले गए संवादों में मॉड्यूलेशन बहुत महत्वपूर्ण है। 

उन बड़े भाई सरीखी शख्सियत की बातचीत में इस अनुतान का, मॉड्यूलेशन की सख्त कमी थी। उनके यहां की चाय तब भी बेमज़ा लगती थी। 

आपसदारी के रिश्तों में यह औपचारिकता तब खलती थी मुझे। अब नहीं खलता कुछ भी। दुनिया को बहुत करीब से देख लिया है। अब तो अपने लोगों (अगर रिश्तेदार अपने होते हों तो) ने  औपचारिकता भी छोड़ दी। 

मुझे किसी से शिकायत नहीं। हो भी क्यों। मुझे लगता है मैं बदल गया हूं। पहले कुछ नरम-नरम सा आदमी था। अब कठोर हो गया हूं। अब जानता समझता हूं...सब कुछ। कौन कैसा पैंतरा लेगा, कब। यह भी। 

दुनियादारी की समझ आ गई। देर से सही। मुझे अब अपनी माटी की सोंधी गंध अपनी ओर नहीं खींचती। खुश हूं कि नहीं खींचती। खींचती रहती, तो जाने की अदम्य इच्छा, और न जा पाने की कठोर मजबूरी के बीच पिसकर रह जाता।

मधुपुर में तब, जब हम छोटे थे, मुहल्ले के लड़के होलिका दहन के लिए घर-घर गोयठा (उपले) मांगा करते। दस-पंच गोइठा, मांगी ला, मांगी ला हो मांगी ला। हम भीड़ में साथ हो लेते। गोइठा देने में कभी किसी ने मना नहीं किया। होलिका जलती थी...बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देते हुए मुहल्ले की सारी झाड़ियां काटकर जला दी जातीं।

होली में सारे लोग इकट्ठा होते। हर कोई रंग लगाता, शाम को गुलाल खेलते। जो भी यह लेख पढ़ रहे होंगे, ऐसा हर किसी के यहां होता होगा। हर प्रवासी के दिल में अपना-अपना मधुपुर है।

लेकिन मधुपुर में वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। दिल बदलते हैं, और उसके साथ चेहरे भी। होली के रासायनिक रंगों का चटख मिजाज़ बरक़रार रहता है, चेहरे की मुस्कान की रंगत गायब हो जाती है। पलाश से बनने वाले रंग गायब हो जाते हैं, और  चेहरे को कांच के पाउडर सरीखा छील देने वाले नक़ली रंगो का मार्केट ज़ोर पकड़ता है। कॉरपोरेट कहता देगा, पलाश का रंग खतरनाक हो सकता है, कंपनी में बना केमिकल रंग सेफ है। य़ह मानने वालों पर है, कभी क्रॉस चेक किया है आपने?

मधुपुर में पलाश मां जैसी है। मां ही है। पलाश के रंग को कॉरपोरेट डायन कह सकता है। ...भला पलाश का रंग भी कभी खतरनाक हो सकता है? 

दुख है कि मधुपुर जैसे सैकड़ों शहरों में सब बदल गया है। सिदो-कान्हू, चांद भैरव, जबरा पहाड़िया, नीलाम्बर-पीताम्बर...भाईयों का प्यार रहा नहीं। इसके लिए चंदा से गुहार लगानी पड़ती है, चंदा रे मेरे भाईयों से कहना...।

जड़ों से काटकर मुझे ठोस पत्थर बनाने की जिम्मेवारी किसकी है?
तुम लोगों की इस दुनिया में, हर क़दम पर इंसां ग़लत। मैं सही समझकर जो भी करूं...तुम कहते हो ग़लत। मैं ग़लत हूं...तो फिर कौन सहीं। मर्जी से जीने की भी,,,क्या तुम सबको अर्जी दूं। मतलब की तुमसबका...मुझपे मुझसे भी ज़्यादा हक़ है। लिखा इरशाद कामिल ने है। पर कह मैं रहा हूं। 

मधुपुर के पलाश, मधुपुर की लाल माटी, मधुपुर की होली...बस मैं अब कुछ भी मिस नहीं करता। सॉरी, मधुपुर मैं तुम्हें मिस नहीं करता। 


3 comments:

हेमंत देशमुख Hemant Deshmukh said...

इस मधुपुर, न मैं कभी गया, न कभी मधुपुर google किया पर हाँ, यह ब्लॉग पढ़कर समझ आया कि जो मैं अब तक अपने मधुपुर को miss करता था, वह मिथ्या है...

ऋचा विमल कुमार said...

"मै मधुपुर को मिस नहीं करता " इतना सहज तो नहीं है ये कहना !! है न मंजीत !!

कुमारी सुनीता said...

ये हो नहीं सकता …

क्षणिक आवेग में लिए हुए निर्णय लंबे समय तक नहीं चला करते।

इस पूरे संस्मरण में आपने मधुपुर को बहुत मिस किया है।

जड़े इतनी कमजोर नहीं हुआ करती है ,और नाही होने देती है .