Tuesday, March 1, 2016

हिन्दी खड़ी बाज़ार में

हिन्दी खड़ी बाजा़र में

हाल ही की बात है, नीलेश मिसरा एक रेडियो शो के लिए मैं एक पौराणिक कहानी लिख रहा था। नीलेश मिसरा रेडियो की जानी-पहचानी आवाज़ हैं और गीतकार होने के साथ-साथ किस्साग़ो भी हैं। तो उस पौराणिक कथा की भाषा, जाहिर है हिन्दी, के संदर्भ में उन्होंने मुझे कहा कि इस कहानी की भाषा का तुम एमटीवीकरण कर दो। मैं थोड़ा हिचकिचाया क्योंकि मैं रावण या कुंभकर्ण के मुंह से क़त्तई फ़ारसी नहीं बुलवा सकता था। उन्होंने साफ किया कि हमें भले ही देशकाल के संदर्भ में रामाय़ण के पात्रों से उर्दू-फ़ारसी बुलवाने की छूट नहीं है, लेकिन हर हालत में हमें हर पात्र से आसान हिन्दी बुलवानी होगी।

हिन्दी के फैलते साम्राज्य के पीछे यही सफल रणनीति काम कर रही है। मैं हिन्दी को आज की सफल भाषाओं में गिनना चाहता हूं और उन लोगों की कतार से दूर ही रहना चाहता हूं जो हिन्दी का भाषा का मर्सिया पढ़ने पर उतारू हैं।

हिन्दी आज बाज़ार की भाषा है। इसलिए मैं इसे कामयाब कह रहा हूं। हालांकि कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि हिंदी की स्थिति आज भी कुछ वैसी ही है और उसी मुहाने पर है जैसी आजादी के वक्त थी। कुछ लोग इंटरनेट गवर्नेंस फोरम के एक सर्वे का हवाला देते हैं जिसमें भारतीय इंटरनेट यूजर की प्राथमिकता का भाषा का विकल्प आने पर 99 फीसद लोगों ने अंग्रेजी को चुना था। इसी सर्वे में लोगो ने जवाब दिया कि वह सीखना भी अंग्रेजी ही चाहते हैं और इंटरनेट पर इस्तेमाल होने वाली भाषा भी अंग्रेजी ही है।

हो सकता है कि इंटरनेट पर हुए इस सर्वे में अंग्रेजी बाजी मार गई हो। लेकिन सवाल अंग्रेजी और हिन्दी या बाकी की भारतीय भाषाओं के बीच स्पर्धा का है ही नहीं। 

मुझे नहीं मालूम कि इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले कितने फीसद हिन्दीभाषियों को इस सर्वे में शामिल किया गया था। लेकिन फेसबुक पर मेरे 5 हजार दोस्त हैं, मैं फेसबुक लघुकथाओं का फलक नाम का एक समूह चलाता हूं जिसमें 15 हजार सदस्य हैं। इनमें से लगभग 99 फीसद लोग हिन्दी लिखते हैं। फेसबुक पर भी और ट्विटर पर भी। इनमें से जो लोग देवनागरी में हिन्दी नहीं लिखते वे लोग रोमन में हिन्दी लिखते हैं।

बहरहाल मैं इस बात की तस्दीक कर सकता हूं कि इंटरनेट पर हिन्दी या बाकी की भारतीय भाषाओं का चलन बढ़ा है। दूसरी तरफ, एफएम रेडियो के जॉकी जो शोर मचाते हैं उनमें अहमदाबाद हो या गोहाटी, पटना हो या पुणे, मुंबई हो या दिल्ली या फिर बठिंडा, स्थानीय बोली के पुट के साथ मूल भाषा तो हिन्दी ही होती है।

अगले पोस्ट में जारी...
मंजीत ठाकुर

4 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

आपकी बात से सहमत हूँ। मैंने भी ये अक्सर देखा है कि जो लोग अंग्रेजी का बड़ा शब्द देखकर उसके मतलब को जानने के लिये लालायित रहते हैं वही लोग अगर हिंदी में कोई बड़ा शब्द देख लें तो ये परेशानी व्यक्त करते हैं कि हिंदी तो सरल होनी चाहिए।हाँ, रेडियो में ये बात लाजमी हो सकती है कि उधर हिंदी सरल हो। ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि उस वक्त कहानी प्रस्तुत करने वाले के पास इतना समय नहीं होता कि वो कठिन शब्दों का अर्थ फुटनोट में दे सके या बता सके। इसलिए उम्मीद है नीलेश जी, इन कहानियों को जब पुस्तकों के रूप में छापेंगे(जो कि अक्सर होता है), तो उसमे कहानी को बिना एमटीवीकरण के छापेंगे।
आने वाले लेख का इन्तजार रहेगा।

ब्लॉग बुलेटिन said...

आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १२५० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " ब्लॉग बचाओ - ब्लॉग पढाओ: साढे बारह सौवीं ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

मुकेश कुमार सिन्हा said...

सहमत

कविता रावत said...

इंटरनेट पर निसंदेह हिंदी का बहुत प्रसार हुआ है . ..
बहुत बढ़िया विश्लेषण ..