Monday, March 14, 2016

बंगाल का रणघोष

चुनाव का शंखनाद हो गया है। पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुदुचेरी इन पांच राज्यों में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। एक बार फिर मैं बंगाल पहुंच गया हूं। मैंने 2009 के लोकसभा से लेकर अभी तक बंगाल के तमाम चुनावों को नजदीक से देखा है। मैंने बंगाल में पोरिबोर्तन (परिवर्तन) को देखा है।

लेकिन इस बार बंगाल कि फिज़ा अलग है। बंगाल का नज़ारा बहुत ही दिलचस्प है। ममता बनर्जी जानती हैं कि लोगों के जेहन से अभी 33 साल के वाम शासन की यादें मिटी नहीं है और वह इस डर को, जो वाम की अकड़ की वजह से पैदा हुई थी, और ममता बनर्जी उस डर को एक दफा फिर से भुनाने में लगी हैं।

कांग्रेस के सामने चुनौती है कि वह अपने छीज चुके जनाधार को किसी तरह बचा ले। कांग्रेस का आधार ऐसे भी सिर्फ बंगाल के उत्तरी इलाके में बचा है, जो मरहूम एबीए गनी खान चौधरी दीपा दासमुंशी, अभिजीत मुखर्जी और अधीर रंजन चौधरी का इलाका है।

वाम मोर्चे के जनाधार में जबरदस्त सेंध लगी थी और पिछले विधानसभा के बाद लोकसभा चुनाव में भी वाम मोर्चा औंधे मुंह गिरा था। पांच साल बाद भी, वाम मोर्चा बंगाल में खुद को व्यवस्थित नहीं कर पाया है।

ममता बनर्जी ने चुनाव की तैयारी बहुत पहले से करनी शुरू कर दी थी। उन्होंने चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा भी कर दी। ममता दी की सूची में फुटबॉल खिलाड़ी वाइचुंग भूटिया से लेकर रहीम नबी और क्रिकेटर लक्ष्मी रतन शुक्ला से लेकर पत्रकार प्रवीर घोषाल जैसे नाम है।

शुरूआती अनुमानों के मुताबिक, हालांकि मैंने अभी पूरे सूबे का जायज़ा नही लिया है, लेकिन ममता बनर्जी के बारे में यहां के राजनीतिक पंडित फिलहाल यही उचार रहे हैं कि इस बार उनकी सीटें पिछली बार से अधिक होंगी। यानी ममता बनर्जी के लिए सत्ता विरोधी लहर काम नहीं करेगा इस बार।

इधर, देशद्रोह के आरोप में जेल जाने के बाद कन्हैया वाम दलों के लिए हॉट केक बन चुके हैं और सीताराम येचुरी ने कह दिया है कि कन्हैया बंगाल में प्रचार करेंगे।

लेकिन, येचुरी के लिए बंगाल में अच्छा प्रदर्शन करना बहुत जरूरी है क्योंकि माकपा महासचिव बनने के बाद यह उनके लिए पहला चुनाव है। लेकिन येचुरी के लिए आगे की राह कठिन है। वाम दल अंदरूनी विवादों के बावजूद कांग्रेस के साथ गठजोड़ की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। वाम मोर्चे के कई दल इस गठबंधन से खुश नहीं हैं। लोकसभा चुनाव 2014 में वाम दलों को 27 फीसद वोट मिले थे और कांग्रेस दस फीसद वोट के साथ दो सीटें हासिल कर पाई थी।

इसी तर्क के आधार पर कांग्रेस ने बंगाल में एक सौ सीटें मांग ली हैं और सीपीएम को कांग्रेस की यह मांग नाजायज़ लग रही है।

गौरतलब है कि साल 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की एक लहर उठी थी और उनकी पार्टी 184 सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी।

लेकिन बंगाल में ममता बनर्जी का हाथ ऊपर बताया जा रहा है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि ममता ने विकास के दिखने वाले काम कर दिखाए हैं। सड़के, पानी, बिजली। यानी विकास का वही बिपाशा समीकरण। गांव के लोग खुश हैं कि पिछले साठ साल में जो सड़क नहीं बनी, जिन गांवो में बिजली नहीं थी, वहां यह सब हुआ है। ममता की वजह से हुआ है।

तो नीतीश मॉडल पर अगर बंगाल में भी ममता वापस आएँ तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। राजनीतिक पंडित तो यह भी कह रहे हैं कि इस बार ममता बनर्जी की सीटें पिछली दफा के 184 से भी अधिक आएंगी। वाम मोर्चे के लिए चिंता का एक सबब भारतीय जनता पार्टी भी है।

पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 6.5 फीसद के आसपास वोट आए थे। लोकसभा में मोदी लहर में यह बढ़कर 17 फीसद हो गया था।

इस बार बीजेपी इसे थोड़ा और आगे खिसकाने के प्रयास में है। झारखंड से लगते इलाकों और मालदा, मुर्शिदाबाद के मुस्लिम बहुल इलाकों में बीजेपी की पैठ पहले से अधिक हुई है, और उसका असर चुनावी नतीजों पर पड़ेगा।

लेकिन बंगाल राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक है और यहां बिहार या यूपी की तरह वोटों का जातिगत बंटवारा नहीं होता है। हुगली और भागीरथी में पानी बहुत तेजी से बहता है, ममता के लिए 294 में से 220 सीटों की भविष्यवाणी भी अभी भविष्य के गर्त में ही है। चुनावी कवरेज के क्लीशे अपनी जगह, लेकिन ममता की ही दोबारा राइटर्स बिल्डिंग में ताजपोशी होगी, यह तय है।

मंजीत ठाकुर

1 comment:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सुखों की परछाई - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !