डाॅ.उत्तम पीयूष
1970 के जमाने से लेकर 1980 तक के जमाने तक, मधुपुर में विधिवत् हिंदी साहित्य की परंपरा ठीक ठाक नजर नहीं आती। उससे पहले तो और भी कठिन था मधुपुर के हिंदी का साहित्यिक परिदृश्य।
पर ,एक भाषा के तौर पर हिंदी का प्रयोग स्वतंत्रता पूर्व के कुछ प्रकाशित दस्तावेजों से पता चलता है जिसमें 1935 में कोलकाता के हैरिसन प्रेस से प्रकाशित राष्ट्रीय शाला "तिलक विद्यालय " से संबंधित दस्तावेज महत्वपूर्ण हैं।और कुछ हैं जिनकी अलग से चर्चा करूंगा।
पर आज तो उन दो गुरूओं को स्मरण करने का प्रयास कर रहा हूं जिन्होंने अपनी निष्ठा से अलग अलग तरीके से "हिंदी" की अद्भुत सेवा की थी।
इन दोनों शिक्षकों ने 1965/70से लेकर 1975/80 तक के जमाने को अलग अलग तरीके से हिंदी को काफी समृद्ध किया था। स्व. रामदेव ठाकुर कला, भाषा और साहित्य के 'जीनियस 'थे। वे भूगोल पढाते थे। संस्कृत उनकी जिह्वा पर थी। हाथ में ब्रश या रंगीन चाॅक आ जाए तो चित्र उभरने लगते थे।
और यदि आपने श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय भवन का मुख्य हाॅल देखा होगा पहले कभी तो देखा होगा कि उस हाल की दीवारों पर देश के महान लोगों के एक से एक चित्र लगे थे। (अभी क्या स्थिति है नहीं मालूम )।पर, इसी भव्य हाॅल में प्रत्येक साल स्रावन शुक्ल सप्तमी को एक विराट "तुलसी जयंती समारोह "का आयोजन हुआ करता। आयोजनकर्ता होते अनन्य हिंदी प्रेमी शिवसहाय शर्मा जी। छात्रों की भीड ,एक से एक विद्वानों की गरिमामयी उपस्थिति और संत तुलसी दास पर विद्वानों के विचार।मन रम जाता और शर्मा जी आह्लादित होते।
हिंदी को हिंदी विचारों ,समारोहों और आयोजनों के जरिए इन गुरूओं ने मधुपुर में जो एक माहौल बनाया था -जिसमें बौद्धिकता भी थी और सहृदयता और सरलता भी -आज के मधुपुर को इनका आभारी होना चाहिए और इन सहित ऐसे तमाम हिंदी सेवियों का पुनरस्मरण करना चाहिए।
1970 के जमाने से लेकर 1980 तक के जमाने तक, मधुपुर में विधिवत् हिंदी साहित्य की परंपरा ठीक ठाक नजर नहीं आती। उससे पहले तो और भी कठिन था मधुपुर के हिंदी का साहित्यिक परिदृश्य।
पर ,एक भाषा के तौर पर हिंदी का प्रयोग स्वतंत्रता पूर्व के कुछ प्रकाशित दस्तावेजों से पता चलता है जिसमें 1935 में कोलकाता के हैरिसन प्रेस से प्रकाशित राष्ट्रीय शाला "तिलक विद्यालय " से संबंधित दस्तावेज महत्वपूर्ण हैं।और कुछ हैं जिनकी अलग से चर्चा करूंगा।
पर आज तो उन दो गुरूओं को स्मरण करने का प्रयास कर रहा हूं जिन्होंने अपनी निष्ठा से अलग अलग तरीके से "हिंदी" की अद्भुत सेवा की थी।
एक थे खजौली (ग्राम ठाहर) से आये मोहन लाल गुटगुटिया उच्च विद्यालय के भूगोल के शिक्षक स्व. रामदेव ठाकुर और दूसरे आरा की ओर से आए श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य शिव सहाय शर्मा जी।
इन दोनों शिक्षकों ने 1965/70से लेकर 1975/80 तक के जमाने को अलग अलग तरीके से हिंदी को काफी समृद्ध किया था। स्व. रामदेव ठाकुर कला, भाषा और साहित्य के 'जीनियस 'थे। वे भूगोल पढाते थे। संस्कृत उनकी जिह्वा पर थी। हाथ में ब्रश या रंगीन चाॅक आ जाए तो चित्र उभरने लगते थे।
उनके बनाये भित्ति चित्र आज भी मेरी आंखों में पैबस्त हैं। वो दीवार पर बना उनके हाथ का ताजमहल! अंग्रेजी वैसे ही पढाते जैसे अंग्रेजी के टीचर हों। पर जब बात हिंदी की होती तो उनको सुनने का अलग ही आनंद था।
उनसे विद्यापति, सूर, मीरा, जायसी, रहीम और रसखान के साथ तुलसी के दोहों के अर्थ समझना अलग ही मायने रखता। स्पष्ट और गूंजती आवाज, विशद ज्ञान और उनका वह वाग्वैदग्ध्य!
हिंदी भाषा में उनके कहने के उस अंदाज को आज भी याद करके रोमांचित भी होता हूं और प्रेरित भी। बहुत कम लोग हिंदी का इतना इफैक्टिव प्रयोग कर पाते हैं। आज भी कहीं मेरे जन्मदिवस पर दिए उनके शब्द उद्गार सुरक्षित हैं। हिंदी भाषा के इस महान 'मास्टर मैन' को मेरा नमन है।
और यदि आपने श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय भवन का मुख्य हाॅल देखा होगा पहले कभी तो देखा होगा कि उस हाल की दीवारों पर देश के महान लोगों के एक से एक चित्र लगे थे। (अभी क्या स्थिति है नहीं मालूम )।पर, इसी भव्य हाॅल में प्रत्येक साल स्रावन शुक्ल सप्तमी को एक विराट "तुलसी जयंती समारोह "का आयोजन हुआ करता। आयोजनकर्ता होते अनन्य हिंदी प्रेमी शिवसहाय शर्मा जी। छात्रों की भीड ,एक से एक विद्वानों की गरिमामयी उपस्थिति और संत तुलसी दास पर विद्वानों के विचार।मन रम जाता और शर्मा जी आह्लादित होते।
हिंदी को हिंदी विचारों ,समारोहों और आयोजनों के जरिए इन गुरूओं ने मधुपुर में जो एक माहौल बनाया था -जिसमें बौद्धिकता भी थी और सहृदयता और सरलता भी -आज के मधुपुर को इनका आभारी होना चाहिए और इन सहित ऐसे तमाम हिंदी सेवियों का पुनरस्मरण करना चाहिए।
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