Monday, September 5, 2016

चीटरों के दौर में टीचर

मधुपुर मेरा जन्मस्थान तो है ही, इसने यह भी तय किया कि मैं किस तरह का इंसान बनने वाला हूं। अपने भैया मंगल ठाकुर को अपना पहला गुरु मानता हूं, जो मेरी हर कामयाबी पर उछले, हर नाकामी पर परेशान हुए।

फिर सुबल चंद्र सिंह, जिन्होंने अपने सभी छात्रों की सखुए की संटी से पीट-पीटकर बंदर से इंसान बनाने की कोशिश की। लेकिन हाय दैव, उनके ज्यादातर छात्र आज भी बंदर ही हैं। दिनेश सर, जो गणित को सरलता से समझा देते थे। 

व्रजनारायण झा, जिन्होंने मुझे संस्कृत पढ़ाते वक्त सीधा बता दिया, व्याकरण गणित की तरह है, लेकिन इसमें कुछ समझ न आए तो सीधा रट लो। एमएलजी उच्च विद्यालय, जहां मैने दसवीं तक पढ़ाई की, वहां अलाउद्दीन अंसारी सर इतिहास पढ़ाते थे। पढ़ाते वक्त संभवतया वह टाइम मशीन में बैठकर उस दौर में पहुंच जाते, जिस दौर का अध्याय वह पढ़ा रहे होते थे। अलाउद्दीन सर ने अपनी कक्षाओ में हमें शनिवार को आधी छुट्टी के बाद हमारे संभावित क्रिकेट मैच की योजना बनाने का पूरा मौका दिया। वह किताब में रमकर हमें अकबर, शाहजहां और बलबन के बारे में बताते रहते थे, और हम फुसुर-फुसर करके यह तय करते थे कि बैटिंग में किस नंबर पर कौन उतरेगा। 

अंग्रेजी पढ़ाते थे रफीक़ सर। उन दिनों बिहार (तब, आजकल वह इलाका झारखंड में आता है) में अंग्रेजी की छात्रों से मुठभेड़ छठी कक्षा में होती थी, और मान लिया जाता था कि पांचवी कक्षा तक तो छात्रों ने अंग्रेजी खुद-ब-खुद मां-बाप से सीख ही ली होगी। तो रफीक़ सर, अंग्रेजी पढ़ाते थे और यह मानते थे कि वह जो फर्राटेदार अंग्रेजी छठी-सातवीं-आठवीं के छात्रों के सामने बतियाते थे, तो यह सोचते थे कि इन सबको समझ में आ रहा होगा। अंग्रेजी बोलने का उनका  लहज़ा  खोरठानुमा था। खोरठा मधुपुर के आसपास बोली जाने वाली बोली है, जिसमें मैथिली-बांगला-और संताली के शब्द घुलेमिले होते हैं। बहरहाल, किसी का ध्यान भटकने पर रफीक़ सर ब्लैक बोर्ड के पास से ही चॉक फेंककर सीधे छात्र के मुंडी पर निशाना लगाते थे और कहतेः अंग्रेजी नहीं पढ़नी हो तो जाओ, गणेश की दुकान पर जाकर घुघनी-मूढ़ी खाओ। (घुघनीः काले चने के छोले, मूढ़ीः चावल के मुरमुरे)

मौलाना सर की फ़ारसी की क्लास में हम दुनिया के नक्शे के बारे में पढ़ते क्योंकि वह पिताजी के दोस्त भी थे और फ़ारसी की कक्षा के वक्त तक स्कूल में सारे बच्चे भाग निकलते थे।

बहुत शिक्षकों ने पढ़ाया, सिखाया, मुझे बनाने और बिगाड़ने में अपनी अहम भूमिका अदा की। इनमे आलोक बक्षी का नाम बहुत आदर से लेना चाहता हूं।

बाद में कई शिक्षक हुए जिन्होंने मुझे बनाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। उन सभी गुरुओ और सबसे बड़े गुरू वक्त के सामने सिर झुकाता हूं, जिसने दुनिया को समझने की थोड़ा सा सलीका मुझे सिखा दिया है। यह जरूर है कि अपनी बाजिव कीमत लेकर।

मंजीत