भारत में जिस तरह अर्थव्यवस्था झटकों से उबरने की कोशिश कर रही है और जिस तरह कृषि की विकास दर भी गोते लगा रही थी, किसान अधिक उपजाने पर भी संकट में था और कम उपजाकर भी, ऐसे में खेती-किसानी की तुलना कुछ लोग ब्लू व्हेल गेम से करने लगे थे, जिसमें आखिर में आकर मौत ही हासिल होनी है.
ऐसे में, लग रहा था कि इकोनॉनोमिक सर्वे 2017-18 में इस पर गंभीरता से कुछ कहा जाएगा. लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ तथ्य प्रधानमंत्री मोदी के लिए चिंता का सबब होना चाहिए, जिसमें खेती पर जलवायु परिवर्तन के असर को रेखांकित करने की कोशिश की गई है.
बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का एक लक्ष्य तय किया. अब भारत में खेती से जुड़े तमाम कार्यक्रम और योजनाओं की रुख इसी तरफ मुड़ गया लगता है.
आर्थिक सर्वेक्षण "मध्यकालिक अवधि में खेती से होने वाली आमदनी 20 से 25 फीसदी तक घटने" की चेतावनी देता है. देश में खेती सबसे अधिक रोजगार देने वाला सेक्टर है और ऐसी चेतावनियां खेतिहरों की आमदनी दोगुनी करने के दिशा में कोशिशों पर पानी फेर सकती हैं.
आर्थिक सर्वे यह भी कहता है कि सरकार का खेतिहरों की मुश्किल दूर करने और उनकी आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए लगातार फॉलो अप करना होगा, जिसमें किसानों तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी पहुंचाने के लिए फैसलाकुन कोशिशें भी करनी होंगी. बिजली और उर्वरक पर दी जा रही सब्सिडी की जगह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिए मदद पहुंचानी होगी.
आर्थिक सर्वेक्षण साफ करता है कि मौसम में तापमान में अत्याधिक उतार-चढ़ाव से किसानों की आमदनी में खरीफ की फसल के दौरान 4.3 फीसदी की कमी आई है, जबकि रबी की फसल के दौरान यह कमी 4.1 फीसदी रही है. जबकि ज्यादा बारिश ने आमदनी को क्रमशः 13.7 और 5.5 फीसदी कम कर दिया.
किसानों की आमदनी पर मौसम की मार असिंचित इलाकों में अधिक रही है. गौतरलब है कि देश के 60 फीसद रकबे में सिंचाई का जरिया महज बारिश ही है. आर्थिक सर्वे में कहा गया है, 'एक बार फिर, इन औसतों ने विविधता पर असर डाला. मौसम में बदलाव का असर असिंचित इलाकों में ज्यादा रहा.
अभी यह स्पष्ट नहीं कि कृषि राजस्व किस तरह मुड़ना चाहिए--एक तरफ तो उपज में कमी आई दूसरी तरफ, कम आपूर्ति से स्थानीय रूप से कीमतों में उछाल आई. ऐसे में नतीजे साफ तौर पर संकेत दे रहे हैं कि "आपूर्ति पर दुष्प्रभाव" ज्यादा जोरदार रहा है--उपज में कमी ने राजस्व को कम कर दिया.'
सर्वे के मुताबिक, इन सालों में जब तापमान औसत से एक डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, वर्षा सिंचित जिलों में खरीफ के दौरान किसानों की आमदनी 6.2 फीसदी कमी हुई, जबकि रबी की फसल में यह कमी 6 फीसदी रही. इसी तरह, उन वर्षों में जब बरसात की मात्रा औसत से 100 मिलीमीटर कम रही, किसानों की आय में खरीफ के दौरान 15 फीसदी और रबी के दौरान 7 फीसदी की कमी दर्ज की गई है.
अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से किसानों की आमदनी में औसतन 15 से 18 फीसदी की कमी आई है. वर्षासिंचित इलाकों में यह औसत 20 से 25 फीसदी तक हो सकती है. यह तथ्य वाक़ई चिंताजनक हैं क्योंकि भारत में खेती से आय पहले ही काफी कम है.
इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि सरकार का किसानों की आमदनी बढ़ाने का लक्ष्य भी अप्रासंगिक हो जाएगा. अगर सरकारी आंकड़ों में जलवायु परिवर्तन की वजह से हुए नुकसान को शामिल कर लिया जाए तो कहानी सिरे से बदल जाएगी.
सर्वे की चेतावनी और भी चिंताजनक है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान असली असर से थोड़ा कम ही सामने आया है. आखिर भविष्य में तापमान बढ़ने की दुश्चिंता भरी भविष्यवाणियां भी हैं. नीति नियंताओं के लिए यह तथ्य उनके सिर का तापमान बढ़ाने वाला साबित हो सकता है.
ऐसे में, लग रहा था कि इकोनॉनोमिक सर्वे 2017-18 में इस पर गंभीरता से कुछ कहा जाएगा. लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ तथ्य प्रधानमंत्री मोदी के लिए चिंता का सबब होना चाहिए, जिसमें खेती पर जलवायु परिवर्तन के असर को रेखांकित करने की कोशिश की गई है.
बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का एक लक्ष्य तय किया. अब भारत में खेती से जुड़े तमाम कार्यक्रम और योजनाओं की रुख इसी तरफ मुड़ गया लगता है.
आर्थिक सर्वेक्षण "मध्यकालिक अवधि में खेती से होने वाली आमदनी 20 से 25 फीसदी तक घटने" की चेतावनी देता है. देश में खेती सबसे अधिक रोजगार देने वाला सेक्टर है और ऐसी चेतावनियां खेतिहरों की आमदनी दोगुनी करने के दिशा में कोशिशों पर पानी फेर सकती हैं.
आर्थिक सर्वे यह भी कहता है कि सरकार का खेतिहरों की मुश्किल दूर करने और उनकी आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए लगातार फॉलो अप करना होगा, जिसमें किसानों तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी पहुंचाने के लिए फैसलाकुन कोशिशें भी करनी होंगी. बिजली और उर्वरक पर दी जा रही सब्सिडी की जगह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिए मदद पहुंचानी होगी.
आर्थिक सर्वेक्षण साफ करता है कि मौसम में तापमान में अत्याधिक उतार-चढ़ाव से किसानों की आमदनी में खरीफ की फसल के दौरान 4.3 फीसदी की कमी आई है, जबकि रबी की फसल के दौरान यह कमी 4.1 फीसदी रही है. जबकि ज्यादा बारिश ने आमदनी को क्रमशः 13.7 और 5.5 फीसदी कम कर दिया.
किसानों की आमदनी पर मौसम की मार असिंचित इलाकों में अधिक रही है. गौतरलब है कि देश के 60 फीसद रकबे में सिंचाई का जरिया महज बारिश ही है. आर्थिक सर्वे में कहा गया है, 'एक बार फिर, इन औसतों ने विविधता पर असर डाला. मौसम में बदलाव का असर असिंचित इलाकों में ज्यादा रहा.
अभी यह स्पष्ट नहीं कि कृषि राजस्व किस तरह मुड़ना चाहिए--एक तरफ तो उपज में कमी आई दूसरी तरफ, कम आपूर्ति से स्थानीय रूप से कीमतों में उछाल आई. ऐसे में नतीजे साफ तौर पर संकेत दे रहे हैं कि "आपूर्ति पर दुष्प्रभाव" ज्यादा जोरदार रहा है--उपज में कमी ने राजस्व को कम कर दिया.'
सर्वे के मुताबिक, इन सालों में जब तापमान औसत से एक डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, वर्षा सिंचित जिलों में खरीफ के दौरान किसानों की आमदनी 6.2 फीसदी कमी हुई, जबकि रबी की फसल में यह कमी 6 फीसदी रही. इसी तरह, उन वर्षों में जब बरसात की मात्रा औसत से 100 मिलीमीटर कम रही, किसानों की आय में खरीफ के दौरान 15 फीसदी और रबी के दौरान 7 फीसदी की कमी दर्ज की गई है.
अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से किसानों की आमदनी में औसतन 15 से 18 फीसदी की कमी आई है. वर्षासिंचित इलाकों में यह औसत 20 से 25 फीसदी तक हो सकती है. यह तथ्य वाक़ई चिंताजनक हैं क्योंकि भारत में खेती से आय पहले ही काफी कम है.
इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि सरकार का किसानों की आमदनी बढ़ाने का लक्ष्य भी अप्रासंगिक हो जाएगा. अगर सरकारी आंकड़ों में जलवायु परिवर्तन की वजह से हुए नुकसान को शामिल कर लिया जाए तो कहानी सिरे से बदल जाएगी.
सर्वे की चेतावनी और भी चिंताजनक है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान असली असर से थोड़ा कम ही सामने आया है. आखिर भविष्य में तापमान बढ़ने की दुश्चिंता भरी भविष्यवाणियां भी हैं. नीति नियंताओं के लिए यह तथ्य उनके सिर का तापमान बढ़ाने वाला साबित हो सकता है.
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