समर पर समर फतह करती जा रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनाव के नतीजों के बाद शायद में कुछ कसमसाहट में आए. मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी है और मुकाबला बराबरी पर छूटा है. दोनों पार्टियों को 9-9 सीटें मिली हैं. एक सीट निर्दलीय के खाते में गई है.
भाजपा के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है. खासकर चुनावी साल में.
इस सूबे में असंतोष की वजह क्या है? खासकर, किसानों के बीच गुस्से की वजह को जानना बेहद जरूरी है. पिछले कुछ साल में मध्य प्रदेश की छवि कृषि उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने वाले सूबे की बनी है. यहां राज्य सरकार ने सिंचाई का रकबा बढ़ाने में भी जोरदार काम किया. फिर भी किसान दुखी और निराश क्यों है? पिछले साल जून के महीने से ही सूबे की किसान हितैषी छवि को धक्का लगना शुरू हुआ, जब मंदसौर में किसान आंदोलन पर उतर आए थे. पुलिस ने आंदोलनरत किसानों पर गोलीबारी भी की थी.
यह मानना गलत नहीं होगा कि भारत में खेती-बाड़ी अपने बुरे दौर से गुजर रही है और इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को धक्का पहुंचाया है. जाहिर है, कृषि और किसानों की समस्या अब सियासत के केंद्र में है.
कृषि की इन समस्याओं की वजह से ही गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को ग्रामीण सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा था. अब मध्य प्रदेश के निकाय चुनावों में औसत प्रदर्शन से भाजपा यह सोचने के लिए मजबूर होगी कि शिवराज सिंह चौहान के लगातार तीन बार के कार्यकाल से सत्ताविरोधी रुझान से निपटना एक चुनौती तो है ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लगे झटके के बाद ग्रामीण वोट संभाले रखना भी अहम है.
मध्य प्रदेश में करीब 72 फीसदी ग्रामीण वोट हैं. एक आंकड़ा बताता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 49 फीसद से अधिक किसानों ने एनडीए को वोट दिया था. साथ ही, एक तिहाई भूमिहीन बटाईदारों का वोट भी एनडीए को ही मिला था.
इन्हीं वोटों के दम पर शिवराज सिंह चौहान पिछले दो चुनावों में सत्ता-विरोधी रुझान को थामने में कामयाब रहे थे. लेकिन उन्हें याद रखना होगा कि 230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में से कम से कम 60-70 सीटें ऐसी थीं, जहां भाजपा ने थोड़े ही अंतर से जीत दर्ज की थी.
2013 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से इलाकावार तरीके से अगर भाजपा और कांग्रेस के सीटों को देखें तो यह अंतर साफ दिख जाएगा, जहां भाजपा को मामूली बढ़त मिली थी. साथ ही यह भी साफ होगा कि उत्तरी मालवा कैसे भाजपा के मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित हो गया था. 2013 में भाजपा को कुल 165, कांग्रेस को 58 और अन्य को 7 सीटें मिली थीं.
मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में कुल 34 विधानसभा सीटें हैं जहां भाजपा ने 20 सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस 12 सीटे लेकर आई थीं. लेकिन दोनों के वोट हिस्सेदारी में महज दो फीसदी का ही अंतर था. भाजपा को 37.9 फीसदी वोट मिले थे और कांग्रेस को 35.6 फीसदी.
विंध्य प्रदेश की 56 सीटों में से भाजपा को सीटें 36 सीटें और 39.1 फीसदी वोट मिले थे जबकि कांग्रेस कांग्रेस 18 सीटें और 33 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही थी.
महाकौशल इलाके में कुल 49 सीटें हैं. यहां वोट शेयर में दोनों पार्टियों में गहरा अंतर था. वोट शेयर में यह अंतर करीब दस फीसदी का था. यहां भाजपा ने 34 और कांग्रेस ने 14 सीटें जीती थीं.
उत्तरी मालवा में कुल 63 और जनजातीय मालवा इलाके में 28 सीटें हैं. इन दोनों इलाकों में भाजपा को क्रमशः 51.8 और 45.8 फीसदी वोट मिले थे. उत्तरी मालवा में भाजपा ने दबदबा कायम करते हुए 55 सीटें जीत ली थीं और कांग्रेस को महज 7 सीटों पर समेट दिया. कांग्रेस को वोट भी 37.8 फीसदी मिले. जनजातीय मालवा में भाजपा को 20 सीटें मिली थीं और कांग्रेस यहां भी सिर्फ 7 सीट ही जीत पाई थी. लेकिन उसे वोट करीब 40 फीसदी मिले थे.
लेकिन इस बार शिवराज सिंह चौहान के लिए चुनौती ज्यादा कठिन है क्योंकि ग्रामीण मध्य प्रदेश का बड़ा तबका उनसे नाराज है. खासकर, जिस सीमांत भूमिहीन किसान और छोटी जोत वाले किसानों ने भाजपा को वोट दिया था, वह उससे बिदके हुए लग रहे हैं.
असल में, मध्य प्रदेश के किसानों की आमदनी कम बारिश और बदलते मौसम की वजह से खराब होती फसलों की वजह से पिछले दो सालों से कम होती गई है. उनकी हालत 2013-14 से ही खराब होनी शुरू हुई है जब खेती का जीडीपी सिकुड़कर 1.14 फीसदी रह गया और उसके अगले साल यह बढ़कर 4.6 फीसदी तो हुआ लेकिन फिर 2015-16 में घटकर 1.7 फीसदी ही रह गया. अब आंकड़ों में एक जादुई उछाल दिखा, जब 2016-17 के आंकड़ों ने इस वृद्धि को 22 फीसदी से अधिक बता दिया.
इसके पीछे सामान्य वजह थी कि एक साल पहले के खराब उत्पादन के बाद बंपर उपज ने वृद्धि के आंकड़े को आसमान तक पहुंचा दिया. लेकिन नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उपज की कीमतों को धराशायी कर दिया. ऐसे में किसान चाहते हैं कि सरकार उनकी लागत का डेढ़ गुना कीमत दिलवाने का आश्वासन दे और उनके सारे कर्ज माफ कर दिए जाएं.
हालांकि, शिवराज सिंह चौहान इस गुस्से को थामने के लिए कोशिश कर रहे हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री भावांतर भुगतान योजना शुरू की है, जिसके तहत बादजार में उपज बेच पाने में नाकाम किसानों को सीधे सरकार मूल्य देगी. फिर भी किसान असंतुष्ट हैं और ऐसे मौके पर, जब चुनाव को बहुत ज्यादा वक्त नहीं बचा है, भाजपा को अपनी रणनीति को अलग नजरिए के साथ तैयार करना होगा.
आखिर कांग्रेसमुक्त भारत का सपना देखने वाली भाजपा के लिए शिवराज समस्यामुक्त मध्य प्रदेश तो बनाना ही चाहेंगे.
भाजपा के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है. खासकर चुनावी साल में.
इस सूबे में असंतोष की वजह क्या है? खासकर, किसानों के बीच गुस्से की वजह को जानना बेहद जरूरी है. पिछले कुछ साल में मध्य प्रदेश की छवि कृषि उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने वाले सूबे की बनी है. यहां राज्य सरकार ने सिंचाई का रकबा बढ़ाने में भी जोरदार काम किया. फिर भी किसान दुखी और निराश क्यों है? पिछले साल जून के महीने से ही सूबे की किसान हितैषी छवि को धक्का लगना शुरू हुआ, जब मंदसौर में किसान आंदोलन पर उतर आए थे. पुलिस ने आंदोलनरत किसानों पर गोलीबारी भी की थी.
यह मानना गलत नहीं होगा कि भारत में खेती-बाड़ी अपने बुरे दौर से गुजर रही है और इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को धक्का पहुंचाया है. जाहिर है, कृषि और किसानों की समस्या अब सियासत के केंद्र में है.
कृषि की इन समस्याओं की वजह से ही गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को ग्रामीण सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा था. अब मध्य प्रदेश के निकाय चुनावों में औसत प्रदर्शन से भाजपा यह सोचने के लिए मजबूर होगी कि शिवराज सिंह चौहान के लगातार तीन बार के कार्यकाल से सत्ताविरोधी रुझान से निपटना एक चुनौती तो है ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लगे झटके के बाद ग्रामीण वोट संभाले रखना भी अहम है.
मध्य प्रदेश में करीब 72 फीसदी ग्रामीण वोट हैं. एक आंकड़ा बताता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 49 फीसद से अधिक किसानों ने एनडीए को वोट दिया था. साथ ही, एक तिहाई भूमिहीन बटाईदारों का वोट भी एनडीए को ही मिला था.
इन्हीं वोटों के दम पर शिवराज सिंह चौहान पिछले दो चुनावों में सत्ता-विरोधी रुझान को थामने में कामयाब रहे थे. लेकिन उन्हें याद रखना होगा कि 230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में से कम से कम 60-70 सीटें ऐसी थीं, जहां भाजपा ने थोड़े ही अंतर से जीत दर्ज की थी.
2013 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से इलाकावार तरीके से अगर भाजपा और कांग्रेस के सीटों को देखें तो यह अंतर साफ दिख जाएगा, जहां भाजपा को मामूली बढ़त मिली थी. साथ ही यह भी साफ होगा कि उत्तरी मालवा कैसे भाजपा के मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित हो गया था. 2013 में भाजपा को कुल 165, कांग्रेस को 58 और अन्य को 7 सीटें मिली थीं.
मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में कुल 34 विधानसभा सीटें हैं जहां भाजपा ने 20 सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस 12 सीटे लेकर आई थीं. लेकिन दोनों के वोट हिस्सेदारी में महज दो फीसदी का ही अंतर था. भाजपा को 37.9 फीसदी वोट मिले थे और कांग्रेस को 35.6 फीसदी.
विंध्य प्रदेश की 56 सीटों में से भाजपा को सीटें 36 सीटें और 39.1 फीसदी वोट मिले थे जबकि कांग्रेस कांग्रेस 18 सीटें और 33 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही थी.
महाकौशल इलाके में कुल 49 सीटें हैं. यहां वोट शेयर में दोनों पार्टियों में गहरा अंतर था. वोट शेयर में यह अंतर करीब दस फीसदी का था. यहां भाजपा ने 34 और कांग्रेस ने 14 सीटें जीती थीं.
उत्तरी मालवा में कुल 63 और जनजातीय मालवा इलाके में 28 सीटें हैं. इन दोनों इलाकों में भाजपा को क्रमशः 51.8 और 45.8 फीसदी वोट मिले थे. उत्तरी मालवा में भाजपा ने दबदबा कायम करते हुए 55 सीटें जीत ली थीं और कांग्रेस को महज 7 सीटों पर समेट दिया. कांग्रेस को वोट भी 37.8 फीसदी मिले. जनजातीय मालवा में भाजपा को 20 सीटें मिली थीं और कांग्रेस यहां भी सिर्फ 7 सीट ही जीत पाई थी. लेकिन उसे वोट करीब 40 फीसदी मिले थे.
लेकिन इस बार शिवराज सिंह चौहान के लिए चुनौती ज्यादा कठिन है क्योंकि ग्रामीण मध्य प्रदेश का बड़ा तबका उनसे नाराज है. खासकर, जिस सीमांत भूमिहीन किसान और छोटी जोत वाले किसानों ने भाजपा को वोट दिया था, वह उससे बिदके हुए लग रहे हैं.
असल में, मध्य प्रदेश के किसानों की आमदनी कम बारिश और बदलते मौसम की वजह से खराब होती फसलों की वजह से पिछले दो सालों से कम होती गई है. उनकी हालत 2013-14 से ही खराब होनी शुरू हुई है जब खेती का जीडीपी सिकुड़कर 1.14 फीसदी रह गया और उसके अगले साल यह बढ़कर 4.6 फीसदी तो हुआ लेकिन फिर 2015-16 में घटकर 1.7 फीसदी ही रह गया. अब आंकड़ों में एक जादुई उछाल दिखा, जब 2016-17 के आंकड़ों ने इस वृद्धि को 22 फीसदी से अधिक बता दिया.
इसके पीछे सामान्य वजह थी कि एक साल पहले के खराब उत्पादन के बाद बंपर उपज ने वृद्धि के आंकड़े को आसमान तक पहुंचा दिया. लेकिन नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उपज की कीमतों को धराशायी कर दिया. ऐसे में किसान चाहते हैं कि सरकार उनकी लागत का डेढ़ गुना कीमत दिलवाने का आश्वासन दे और उनके सारे कर्ज माफ कर दिए जाएं.
हालांकि, शिवराज सिंह चौहान इस गुस्से को थामने के लिए कोशिश कर रहे हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री भावांतर भुगतान योजना शुरू की है, जिसके तहत बादजार में उपज बेच पाने में नाकाम किसानों को सीधे सरकार मूल्य देगी. फिर भी किसान असंतुष्ट हैं और ऐसे मौके पर, जब चुनाव को बहुत ज्यादा वक्त नहीं बचा है, भाजपा को अपनी रणनीति को अलग नजरिए के साथ तैयार करना होगा.
आखिर कांग्रेसमुक्त भारत का सपना देखने वाली भाजपा के लिए शिवराज समस्यामुक्त मध्य प्रदेश तो बनाना ही चाहेंगे.
No comments:
Post a Comment