अगर आप दिल्ली या मुंबई जैसे शहर में रहते हैं और एक दिन अचानक जब सुबह आप सोकर उठें तो न दूधवाला आपके लिए दूध लेकर आए, न सड़क पर रिक्शेवाले से आपकी मुलाक़ात हो..तो कैसा रहेगा? कहने का गर्ज़ ये कि सेवा के इन क्षेत्रों में आमतौर पर बिहारियों की भरमार है और ये भी कि असम से लेकर मुंबई तक नामालूम वजहों से इन्हें खदेड़ने की कोशिश की जा रही है।
हमारे कहने का यह कतई मतलब नहीं है कि रिक्शा चलाना या मज़दूरी करके पेट पालना या फिर सब्जी बेचना बिहारियों की महानता है, सवाल ये है कि क्या इस समुदाय को इस देश में रहने का बराबर हक़ है? क्या बंगलुरु सिर्फ कन्नड लोगों को वसीयत में मिला है, या फिर चंडीगढ़ पंजाबियों की निजी संपत्ति है? कुछ महीनों पहले मुंबईकर नेता राज ठाकरे का बयान आया था कि किसी वजह से अगर मुंबई में रहने वाले बिहारी आगा-पीछा करते हैं तो उनके कान के नीचे खींचा जाएगा। मानो बिहार से विस्थापित बेरोज़गार लोग न हुए, अजदहे हो गए। और ये स्थिति सिर्फ मुंबई ही नहीं दिल्ली में भी है जहां बिहारी शब्द एक गाली के तरह इस्तेमाल किया जाता है। अगर राज ठाकरे को बिहारियों से इतना ही ऐतराज है तो वे पहले महाराष्ट्र को भारत से अलग करवाने की मुहिम छेड़ दें। क्यों कि भारतीय संविधान में तो देश के अंदर कहीं भी रहने और आने-जाने की छूट है।
पिछले साल की बात है जब मैं एक दोस्त की शादी में शामिल होने इटावा जा रहा था तो बिहार जाने वाली एक ट्रेन के साधारण डब्बे में अलीगढ़ उतरने वाले कुछ लोगों ने निचली सीट पर बैठे मजदूरनुमा लोगों को जबरिया ऊपर बैठने के लिए मजबूर किया। वजह- इन दैनिक यात्रियों को ताश खेलने में दिक्कत हो रही थी। दिल्ली, महाराष्ट्र या फिर असम कहीं भी बिहारी अनवेलकम्ड विजिटर की तरह देखा जाता है। इन सब परिस्थितियों में याद आता है गिरिराज किशोर का उपन्यास पहला गिरमिटिया। शायद बिहार के लोग भी उसी स्थिति में हैं जैसी स्थिति में उनके पूर्वज २०० बरस पहले दक्षिण अफ्रीका या सूरीनाम, मारिशस जैसे देशों में थे। अंतर बस इतना है कि उत्तर प्रदेश और बिहार से गए ये पुरखे विदेशी ज़मीन पर संघर्ष कर रहे थे और इन बिहारियों को देश में ही परदेशीपन झेलना पड़ रहा है। निदा फाजली का एक शेर है, सफ़र है तो धूप भी होगी, जो चल सको तो चलो, बहुत हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो।
हर जगह मीडिया में भी बिहारियों की भाषा, इनके उच्चारण और रीति-रिवाजों पर ताने कसे जाते हैं। खान-पान और रहन-सहन का मज़ाक उड़ाया जाता है। अनुरोध है बंधुओं, कोई भी आदमी जानबूझकर गरीब नहीं होता। संतोष की बात ये है कि बिहार के लोग हर क्षेत्र में अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं। हां, थोड़ी मानसिकता सकारात्मक हो जाए तो शायद शिकायतें दूर हो जाएं। सकारात्मकता से मतलब है कि दकियानूसी बातों से थोड़ा परे होकर अगर हम सोच सकें, थोड़ा अपने-आप को उन बातों से ऊपर उठाएं जो हमें नीचे की तरफ ले जा रही है।
ऱवीश कुमार का एक लेख पढ़ा था, -जूते माऱुं या छोड़ दूं- इसमें एक गांव के शिकायती लोगों का क़िस्सा था। वे विकास नहीं होने की शिकायत तो कर रहे थे, लेकिन वोट अपनी जाति के नेता को ही देने वाले थे। यह कहानी उत्तर प्रदेश की थी। लेकिन बिहार जातिवाद के इस कोढ़ से अलग नहीं है। बल्कि हमारा मानना है कि जातिवाद बिहार में और ज़्यादा खतरनाक स्तर पर है। जाति के चक्कर से अलग रहकर ही विकास हो सकता है। दूसरी बात ये कि राजनीति बिहार के गांव और चौपाल का सबसे अहम शगल है। चौक पर बैठे नौजवान अंतरराष्ट्रीय से लेकर परिवार तक की सारी खबरों पर चर्चा कर लेते हैं। हम अपने विकास से ज़्यादा सरोकार दूसरों में रखने लग गए हैं।
तीसरी बात जिसकी चर्चा ज़रूर करनी होगी, वो है अडंगेबाज़ी की। स्कूल से लेकर सचिवालय तक हर काम में अडंगा लगाना जिस दिन कम हो जाएगा, हम नई राह पर चल सकेंगे।
ऐसा नहीं है कि बिहारी मूढ़मति हैं और बिल्कुल बदलना ही नहीं चाहते। इस समुदाय के लोग जहां भी गए, वहां की संस्कृति को अपनाने में कोई हिचक नहीं रही है इनमें। बल्कि कई बार तो मूल निवासियों से के साथ फर्क करने में भी दिक़्क़त पेश आती है। लेकिन यह समानता केवल ऊपरी तौर पर है। लोग उनकी बोली, चाल-ढाल और कपड़े तो अपना लेते हैं लेकिन नज़रिए को नहीं। जबकि ज़रूरत ठीक इसके उलट है।
बिहारी समुदाय को काम के प्रति उनका नज़रिया और अपनी संस्कृति बनाए रखनी होगी। क्योंकि दोष संस्कृति में नहीं, नज़रिए में है। आप ही देखिए .. बंगाली या कोई भी दूसरी भाषा को जानने वाले दो लोग मिलते हैं तो आपस में बातचीत अपनी भाषा में ही करते हैं। लेकिन बिहारियों में भाषा के प्रति ऐसा लगाव कम ही देखने को मिलता है।प्रिय बिहारियों... विकास की संभावनाओं को देखिए। विकास किसी एक इलाक़े या एक दिशा में सीमित रहने वाली चीज़ नहीं है। यह कहीं से शुरु होकर कहीं तक जा सकती है। अगर पंजाब के किसान सफलता की इबारत लिख सकते हैं तो हम क्यों नहीं। विकास की भागदौड़ में कोई काम छोटा या बड़ा नहीं। ज़रूरत है सिर्फ ईमानदार कोशिश की। बिहार का मज़दूर अगर फिजी का प्रधानमंत्री बन सकता है, सूरीनाम का उद्योगपति हो सकता है, तो भारत में, बल्कि बिहार में क्यों नहीं। सच पूछिए तो ज़रूरत सिर्फ इसी की है कि हम वापस लौटें और ज़ड़ से चीज़ों को ठीक करने की शुरुआत करें। यह मान कर कि सफ़र है तो धूप भी होगी। आमीन.......
(यहां बिहारी का मतलब बिहार की भौगोलिक सीमा के लोग ही नहीं है, बिहारी होना एक फिनोमिना है। मैं भी मूलतः बिहारी हूं और झारखंड, फश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों, मध्य प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को भी इसी समुदाय का मानता हूं। इस लेख में प्रयुक्त बिहारी शब्द उन सभी राज्यों के निवासियों के लिए माना जाना चाहिए।)- गुस्ताख़
3 comments:
यह बात केवल बिहारियों के लिए नहीं अपितु इस महानगर में उप्र वालों के लिए भी लागू होती है, जबकि यहां राजस्थानी और गुजराती भी बिहारियों और उप्र वालों की तरह बाहर से ही आएं है लेकिन यहां की अर्थव्यवस्था में या कहें अमीरों की तादाद में मारवाड़ी या गुजरात आते हैं तो इस लिए इन्हें निशाना नहीं बनाया जाता है, जबकि बिहारी और उप्र वालों पर इस लिए निशाना बनाया जाता है क्योंकि वह मजदूरी जैसा काम करते हैं
भाई साहब, छत्तीसगढ़ से महानगरों में आजीविका कमाने की कोशिश में गए मजदूर लौटकर बताते हैं कि उन्हें भी वहां बिहारी या "भइये" कहकर ही संबोधित और लतियाया जाता रहा है।
अच्छा लेख!
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