Sunday, June 8, 2008

नल्लू पेन्नूगल और अडूर गोपाल कृष्णन


चार नहीं समाज की सभी औरतों की कहानी


गोवा में ही अजित राय ने अडूर की इस फिल्म की अहमियत समझा दी थी। मैं व्यस्तताओं की वजह से फिल्म देख नहीं पाया। टीवी में काम करना फिल्मोंत्सव कवरेज के दौरान भी फिल्म देखने की छूट कम ही देता है। बहरहाल, मन में साध थी, कि यह फिल्म देखूं। दिल्ली के जिस इलाके में रहता हूं वहां भी मलयाली लोग रहते हैं लेकिन सीडी किराये पर देने वाले के पास भी अडूर नहीं थे।


बहरहाल, रविवार को इंडिया हैबिटाट सेंटर में कवरेज के ही दौरान मैं दम साध कर कैमरामैन की तरफ बिना देखे.. पूरी फिल्म देख गया। कैमरामैन भी देख रहा था, मेरे ही साथ अगली सीट पर अडूर भी थे और नंदिता भी। नंदिता इस फिल्म में एक अहम रोल में हैं।


बहरहाल , नल्लू पेन्नूगल.. मेरे हिसाब से यही उच्चारण होना चाहिए ... यानी चार औरते केरल के एल्लेप्पी जिले के कुत्तांड के विभिन्न पृष्ठभूमि की चार महिलाओं की कहानी है। फिल्म टी शिवशंकर पिल्लई की चार अलग कहानियों पर आधारित है। अडूर ने कहा भी कि वह कहानियों से फिल्म बनाने में थोड़ी छूट ले गए हैं लेकिन यह छूट महज रचनात्मक छूट ही है। हर कहानी में आरोह, उत्थान और उपसंहार है । और हर कहानी आपको एक ऐसी जगह परले जाकर छोड़ देती है, जहां आप महज आह भरकर आगे की कल्पना ही कर सकते हैं।


पहली कहानी द प्रोस्टिट्यूट में वेश्या कुंजीपेन्नू की भूमिका में पद्मप्रिया हैं। कुंजीपेन्नू, पप्पूकुट्टी से शादी कर अपना धंधा छोड़कर आम जिंदगी जीना चाहती है। लेकिन समाज का दकियानूसी रवैया और शादी का कोई सुबूत न होना उनके गले की हड्डी बन जाता है। आखिरकार, पुलिस उन्हे पकड़ ले जाती है। जहां उन्हे ग़ैरक़ानूनी ढंग से यौन क्रिया का दोषी मानते हुए १५ दिन की जेल हो जाती है। अपने अच्छी ज़िंदगी(?) यानी मजदूरी के दौरान ठेकेदार का लोलुप रवैया और साथी मजदूरों की सहानुभूति कहीं न कहीं मार्क्सवाद के असर का परिणाम जान पड़ती है।


फिल्म में दूसरी कहानी है- द वर्जिन। फिल्म के इस हिस्से में गीता मोहन दास की मुख्य भूमिका है। वह धान के खेतों में काम करती है,और उपार्जित पैसे अपने दहेज के लिए बचा कर रखती है। लेकिन उसकी शादी एक ऐसे कंजूस और पेटू दुकानदार से हो जाती है। जिसे सेक्स में बिलकुल रुचि नहीं। और ेक दिन वह अचानक बिना कारण ही कुमारी को मायके छोड़ आता है। चरित्र पर बिना किसी तरह की सफाई दिए कुमारी फिर से खेतों में काम करने लग जाती है।


तीसरी कहानी एक घरेलू औरत की है। विवाह के कऊ साल बीत जाने के बाद भी मां नहीं बन पाती। ऐसे में उसका स्कूली दिनों का एक सीनियर आजा है। सीनियर उसका प्रैमी भी रहा होता है। वह उसे बच्चा होने का एक ऐसा तरीका बताता है, जिसे अनैतिक माना जाता है। बहरहाल, घरेलू स्त्री उसे नकार देती है और घर से निकल जाने को कहती है।


चौथी कहानी में काली कामाक्षी( नंदिता) के विवाह में आ रही अड़चनों का आख्यान है। उसे देखने आया लड़का उसीक छो़टी बहन को पसंद कर उससे विवाह कर लेता है। छोटे भाई की भी शादी हो जाती है, मां के मरने के बाद कामाक्षी अकेली हो जाती है। उसकी अपनी ही बहन अपने घर में पनाह देने को राजी नहीं, ऐसे में आखिर में कामाक्षी अपमी मर्जी से अकेलेपन को चुन लेती है।


पूरी फिल्म में कैमरा शानदार तरीके से वही दिखाता है,जिसकी कतहानी को ज़रूरत होती है। ज्यादा मूवमेंट किए बिना कैमरे में यथार्थवादी तरीके से किस्सागोई की गई है। अडूर का समांतर सिनेमा सोकॉल्ड बड़े फिल्मकारों की सोच से मीलों आगे है। और जो लोग अच्छी फिल्मों के दर्शकों के टोटे का रोना रोते हैं, उनके लिए तो अडूर एक सबक हैं। हमीं ने कभी अडूर से पूछा था, हिंदी में फिल्में क्यों नहीं बनाते.. सीधा जबाव था.. मलयालम में दर्शक मिल रहे हैं तो हिंदी के ढूंढने क्यों जाउँ?



1 comment:

mamta said...

हाँ ये फ़िल्म बहुत अच्छी है।