Saturday, June 28, 2008

नौकरी- एक कविता


मैं फिर से मां की आंखों का तारा हो गया हूं,
बहनों का दुलारा हो गया हूं,
झिड़कियां थमती नहीं थी जिनकी,
नौकरी मिली,

तो उन सबका प्यारा हो गया हूं।

10 comments:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

वाह-वाह

डॉ .अनुराग said...

kabhi kisi ne kaha hai aapse ki aap bahut achha likhte hai.....

Anonymous said...

bhut khub.jari rhe.

यती said...

badiya

Manjit Thakur said...

dr saa'b kisi ne yahi baat abhi tak nahi kahi hai

sushant jha said...

लजवाब...मंजीत..

Udan Tashtari said...

माँ की आँखों के तारे तो आप हर हाल में रहोगे.

महेन said...

भईया पुराने दिन याद दिला दिये आपने… अच्छा किया/नहीं किया।
शुभम।

Anonymous said...

ekaangi dristkon.bhartiy savytaa me
maata -bahne paiso se nahee apne beto &bhaion se pyaar kartee hai.jaisa maine dekha hai.dhanybad

Dr. Shashi Singhal said...

भई वाह ! आपने तो गागर मे सागर भर दिए है । सचमुच आज का माहौल ही कुछ ऎसा है कि यदि आप कमा रहे है तो सभी लोग , फिर वह माता या बहने हो ।
शशि सिन्घल
www.meraashiyana.blogspot.com