Wednesday, August 5, 2009

सफ़रनामा- इंसेफेलाइटिस के इलाके में


बनारस के हम निकले तो सुबह के ११ बज रहे थे। आलू के तीन परांठे चांपने के बाद और उस पर लस्सी गटकने के बाद सोने की तीव्र आकांक्षा मन में व्याप्त थी। किंतु समय का ख्याल रखते हुए हमें चल देना ही था। अस्तु..पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़मीन का जायज़ा लेते हुए आगे जाना था हमें।


बनारस के बाद हमने जी टी रोड अर्थात् एनएच-२ का दामन छोड़ दिया। गरमी और उमस के बारे में कुछ कहना नहीं चाहता, जो हमें महसूस हो रहा था, वह सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। उसे बताया नहीं जा सकता है।
हमने सारनाथ के रास्ते गोरखपुर जाने के लिए हमने एनएच-२९ पकड़ा। अब हम उत्तर की तरफ बढ़ रहे थे। गाज़ीपुर आते ही हमें हमारे एक प्रोड्यूसर दीपक राय याद आए। दीपक जी की भदेस गालियों की बौछार में जो प्यार होता है, उसे गाज़ीपुरिया महक होती है--माटी की ख़ुशबू..।


गाजीपुर शहर से बाहर निकलते वक्त एक दुकान पर हमने पकौडियां खाईं और जलेबी भी। चाय इतनी शानदार थी.. उसमें अब बिहार की मिट्टी का सोंधापन आने लगा था।


आज़मगढ़ पहुंचे तो एक नई स्टोरी हमारा इंतजार कर रही थी। आज़मगढ़ के गांवो में नई पीढी के लोग नहीं मिलते और आज़मगढ़ को जिस वजह से बदनाम किया जाता है उसका भी कोई निशां हमें दिखा नहीं।


आजमगढ़ की समस्या है जिसे अंग्रेजी में कहते हैं इंटरनल माइग्रेशन। क्या हिंदू क्या मुस्लिम..हर संप्रदाय के लोग रोज़गार के लिए इलाका छोड़ रहे हैं। लेकिन एक बदनामी है जिसकी वजह से नौकरी मिलती नहीं बाहर..। बनारस के बाद गोरखपुर तक हमें सारनाथ, सैदपुर, गाज़ीपुर, बिरनोन, मरदा, मऊनाथभंजन, घोसी, दोहरीघाट और चिल्लीपुर वगैरह पार करना पड़ा।


जहां तक मुझे याद है दोहरीघाट के पास हमारे कैमरामैन गंगा-गंगा करते शूट करने कार से उतर पड़े। लेकिन वह घाघरा नदी थी। पानी एक दम साफ। सुनील नहाने के मूड में आ गया और हमारा ड्राइवर भी। लेकिन मुझे लगा कि स्वाति के सामने नहाना.. ठीक नहीं रहेगा। कोई सिक्स पैक-वैक तो है नही हमारे पास। तो बेवजह अपने स्वास्थ्य पर तीखी टिप्पणियां क्यो सुनी जाए? आ बैल (गाय) मुझे मार वाले स्टाइल में।


बहरहाल, गोरखपुर के बारे में हमने सुन रखा था कि यहा जापानी बुखार का बड़ा कहर है। और हजारो बच्चों की जान हर साल चली जाती है।


गोरखपुर पहुंचे तो वहां के डॉक्टर आर एन सिंह से हमारी मुलाकात हुई। सिंह साहब ने इँसेफेलाइटिस के खिलाफ जंग छेड़ रखा है। गोरखपुर की हालत ये है कि वहां २००५ में ४ हजा़र से ज्यादा २००६ में करीब ५ हजार २००७ में साढे चार हजार और २००८ में दो हजार बच्चे काल के गाल में समा गए हैं। केंद्र ने टीकाकरण का काम किया है लेकिन एक बार टीकाकरण के बाद कर्तव्यों की इतिश्री मान ली गई। सूअर पालन पर कोई रोक वोट की वजह से नहीं लगाया जा रहा है।


क्या बिडंबना है..। अमीरो की बीमारी स्वाईन फ़्लू पर केंद्र का रुख देखिए और गरीबो और पूर्वांचल की बीमारी इंसेपेलाइटिस पर सरकार का रवैया..। स्वाइन फ्लू से अब तक मेरी अद्यतन और अधिकतम जानकारी से महज एक लड़की की मौत हुई है- पुणे में। कोई शुबहा नहीं, एक भी मत नहीं होनी चाहिए और स्वाइन फ्लू की रोकथाम होनी चाहिए। लेकिन इँसेफेलाइटिस पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की ज़रुरत है और अभी क्या ताजा़ आंकडा़ है बीमारों का इसका ख्याल रखा जाना चाहिए। न्यूज़ चैनल्स की तचरफ से भी अभी तक कोई फॉलो-अप नहीं है।

इँसेफेलाइटिस पानी से होने वाला रोग है। सूअर इसका वैक्टर है। ड़ॉ सिंह ने इसेक लिए ेक सस्ता उपाय हमें बताया। साफ बाल्टी में पानी को रख कर उसे कपड़े से ढंक दें और सूरज की रौशनी में २ घंटे छोड़ दें..इसमें इँसेफेलाइटिस के वायरस मर जाते हैं। इससे उबालने का खर्च भी नहीं।

ऊपर जो आंकड़े मैंने दिए हैं वह नजदीकी अंको तक साधे गए हैं और सरकारी अस्पतालों के हैं। असल आंकड़ा इसेस ज्यादा हो सकता है। डॉक्टर साहब के यहां से निकले तो चार बज गए थे शाम के। मेरी मंजिल थी बेतिया। जहां गेस्ट हाउस में ठहरने का इंतजाम मुन्ना ने किया था। मुन्ना डीडी के स्ट्रिंगर हैं बेतिया में और असरदार काम करते हैं। लेकिन गोरखपुर से आगे का हाल अगली पोस्ट में।

जारी...

4 comments:

sanjay vyas said...

एक यात्रा में बहुत सी बातें समेत ली आपने.
दिलचस्प भी है.इंतज़ार रहेगा आगे का.

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर ज्ञानवर्धक विवरण।
रक्षाबंधन पर शुभकामनाएँ! विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!

आलोक सिंह said...

रोमांचक यात्रा , पूर्वांचल की सैर का आनदं लिजीये .

sushant jha said...

good...i hav to learn the style of storytelling from u cos i spend more word while u create same impact in less word. It is really a mastery over the language...and second u have the 'Zameeni scent' in your language..i hav become technical. I feel jealous boss. congrats...keep it up.