Saturday, August 22, 2009

कविता- पोशीदा रंग


परेशान हूं मैं, ......

रंगो के जटिल होते जाने से

रंग भी पेचीदा हो गए हैं

आसमां का रंग लगने लगा है

पडोसन की अलगनी पर सूखती रंग छुटी नाइटी की तरह

कभी-कभी पूछता हूं खुद से

क्या रंग है पसीने का.?

कौन-सा शेड है?.

पर्पल, पीच या टेरेकोटा?

और भी ना जाने क्या-क्या.

अक-बक सोचने लगा हूं.


ओसारे की चौकी मेंजेंटा धूप से रंगी है

-और भाभी मरुन शर्ट खरीद लाई है मेरे लिए।


तालाब मे गोता लगाकर आंखे खोलूं

तो कौन सा रंग है ये?

स्यैन और हरे का मिलाजुला ?


यूं तो दोपहर का रंग नहीं कहते आधुनिक है

पर, पेट भर खाकर झपकी लेने के सुख का क्या रंग हैं?

बॉस से पूछूंगा


फिर वही सवाल उठ खड़ा है मेरे सामने

ज़िंदगी में नए रंग आ गए हैं

या पहले से मौजूद रंगों मे बढ गई है पेचीदगी??

4 comments:

Anonymous said...

Ati sundar.
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

M VERMA said...

ज़िंदगी में नए रंग आ गए हैं
या पहले से मौजूद रंगों मे बढ गई है पेचीदगी??
पेचीदगी रंगो की. शायद जीवन की पेचीदगी रंगो के साथ जुडी है.
बहुत खूब

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी रचना..बधाई!!

डॉ .अनुराग said...

कमाल है !!!आज की कविता पढ़कर हमें यकीन हो गया है की फोटू खिचवाने की बुद्धिजीवी मुद्रा के आप यकीनन हक़दार है .कविता ने बहुत प्रभावित किया...उस पे रंग भी बहुत जम रहे है....