मैं समाचारों की दुनिया से जुड़ा हूं तो जाहिर है 'उड़ता पंजाब' को लेकर चल रही हर ख़बर पर मेरी नज़र थी। पिछले कुछ सालों में इससे अधिक चर्चा में कोई भी फिल्म नहीं रही थी।
जहां तक अश्लीलता की बात है, यह फिल्म मस्तीज़ादे या हेट स्टोरी जैसी फिल्मों से कम और टीवी पर चल रहे कई कॉमिडी शोज़ से--जिसमें कॉमेडियन द्विअर्थी संवादो के ज़रिए भद्देी बातें करते हैं--कम अश्लील है
आप चाहें इस फिल्म का लाख डॉक्यू-ड्रामा कह लें, क्योंकि फिल्म देखने से पहले मेरे कई साथियों ने मुझे आगाह किया था, लेकिन फिल्म में एक साथ चार किरदारों की कहानियां चलती हैं। और उन सबको एक साथ जोड़ता है ड्रग्स।
अभिषेक चौबे के इस उड़ते पंजाब में न तो भांगड़ा-गिद्धा है न हरे-भरे खेतों में रंगीन चुनर उड़ाती मक्के दी रोटी और सरसों का साग और लस्सी वाले पंजाबी खुशहाल किसान है। यह हरित क्रांति के दौर में बनी पंजाब की पुख्ता छवि तो तार-तार करने वाली फिल्म है। उड़ता पंजाब का पंजाब पॉप्युलर कल्चर की नजर से अब तक ओझल रहा पंजाब है।
शाहिद कपूर के लिए कहना होगा कि वह अपनी हर अगली फिल्म के साथ निखरते जा रहे हैं। उनके इमोशनल आर्क पर लेखक और निर्देशक ने खास ध्यान दिया है। हर अगले दृश्य के साथ टॉमी सिंह बने शाहिद कपूर की उलझने साफ उनके चेहरे पर दिखती हैं। आज के मुख्य धारा के नायकों में शाहिद ने अपनी अलग पहचान बना ली है, जिसमें उनकी अच्छी एक्टिंग का कमाल है। आखिर उन्हें एक्टिंग विरासत में जो मिली है (लेकिन हर एक्टर के लिए यह सही नहीं है)
सबसे सहज लगे हैं दलजीत दोसांझ, जो इस फिल्म में एएसआई की भूमिका में हैं। पंजाबी स्थानीयता उनके चेहरे पर साफ दिखती है और लगता नहीं कि वह एक्टिंग कर रहे हों।
तारीफ करनी होगी आलिया भट्ट की। अपनी शहरी देहभाषा और ज़बान के बावजूद वह बिहारन मजदूर के किरदार में ढल गई हैं। ग्लैमरविहीन किरदार में आलिया का यह अवतार अच्छा लगता है। और याद आता है कि किस तरह फिल्म प्रहार में नाना पाटेकर माधुरी दीक्षित को बिना मेकअप परदे पर लाए थे।
लेकिन आलिया भट्ट कई जगह बेहद लाउड हैं, देहभाषा में भी और संवाद अदायगी में भी। यह खलता है। उन्हें यह सब सीखना होगा।
फिल्म में करीना कपूर भी हैं, जिनका किरदार पूरे फिल्म में अंडर प्ले ही रह जाता है। दलजीत और करीना के बीच पैदा हुए प्रेम को परदे पर निर्देशक कायदे से उकेर नहीं पाए हैं। इसलिए जब भी कहानी डॉ प्रीत और सरताज के प्रेम पर आती है, तो फिल्म थोड़ी बिखरी हुई लगती है।
उड़ता पंजाब की कहानी उस पंजाब की कहानी है, जो हम लोग परदे पर नहीं आम जनजीवन में देखते हैं। यह वही कहानी है, जिसकी वजह से बठिंडा से बीकानेर तक जाने वाली ट्रेन कैंसर एक्सप्रेस में बदल जाती है। यही वह कहानी है जिसकी वजह से यह एक राजनीतिक मुद्दा बनना चाहिए लेकिन बन नहीं पाता। फिल्म उस गहरे सियासी चक्र को छूती तो है लेकिन उसको खोलती नहीं है।
अभिषेक चौबे की इस फिल्म को हालांकि सराहना बहुत मिल रही है, संपादन और संगीत दुरुस्त है, कहानी में रिसर्च तगड़ा है, लेकिन गैंग्स ऑफ वासेपुर वाली बात इसमें बन नहीं पाई है। अधिकतर संवाद पंजाबी में हैं, जो स्वाभाविक ही है, और इस वजह से खांटी हिन्दी वालों को शायद संवाद समझने में मुश्किलें हों।
सेंसर बोर्ड के साथ विवाद की वजह से इस फिल्म को अधिक हवा मिल गई लेकिन ऐसा कुछ भी इस फिल्म के साथ नहीं जो असाधारण है। कुल मिलाकर फिल्म अच्छी है, और बढ़िया विषय पर सलीके से बनी हुई फिल्म है। इसमें सियासी दांवपेंच खोजना अच्छा नहीं है न सियासत के लिए न सिनेमा के लिए।
मंजीत ठाकुर
जहां तक अश्लीलता की बात है, यह फिल्म मस्तीज़ादे या हेट स्टोरी जैसी फिल्मों से कम और टीवी पर चल रहे कई कॉमिडी शोज़ से--जिसमें कॉमेडियन द्विअर्थी संवादो के ज़रिए भद्देी बातें करते हैं--कम अश्लील है
आप चाहें इस फिल्म का लाख डॉक्यू-ड्रामा कह लें, क्योंकि फिल्म देखने से पहले मेरे कई साथियों ने मुझे आगाह किया था, लेकिन फिल्म में एक साथ चार किरदारों की कहानियां चलती हैं। और उन सबको एक साथ जोड़ता है ड्रग्स।
अभिषेक चौबे के इस उड़ते पंजाब में न तो भांगड़ा-गिद्धा है न हरे-भरे खेतों में रंगीन चुनर उड़ाती मक्के दी रोटी और सरसों का साग और लस्सी वाले पंजाबी खुशहाल किसान है। यह हरित क्रांति के दौर में बनी पंजाब की पुख्ता छवि तो तार-तार करने वाली फिल्म है। उड़ता पंजाब का पंजाब पॉप्युलर कल्चर की नजर से अब तक ओझल रहा पंजाब है।
शाहिद कपूर के लिए कहना होगा कि वह अपनी हर अगली फिल्म के साथ निखरते जा रहे हैं। उनके इमोशनल आर्क पर लेखक और निर्देशक ने खास ध्यान दिया है। हर अगले दृश्य के साथ टॉमी सिंह बने शाहिद कपूर की उलझने साफ उनके चेहरे पर दिखती हैं। आज के मुख्य धारा के नायकों में शाहिद ने अपनी अलग पहचान बना ली है, जिसमें उनकी अच्छी एक्टिंग का कमाल है। आखिर उन्हें एक्टिंग विरासत में जो मिली है (लेकिन हर एक्टर के लिए यह सही नहीं है)
सबसे सहज लगे हैं दलजीत दोसांझ, जो इस फिल्म में एएसआई की भूमिका में हैं। पंजाबी स्थानीयता उनके चेहरे पर साफ दिखती है और लगता नहीं कि वह एक्टिंग कर रहे हों।
तारीफ करनी होगी आलिया भट्ट की। अपनी शहरी देहभाषा और ज़बान के बावजूद वह बिहारन मजदूर के किरदार में ढल गई हैं। ग्लैमरविहीन किरदार में आलिया का यह अवतार अच्छा लगता है। और याद आता है कि किस तरह फिल्म प्रहार में नाना पाटेकर माधुरी दीक्षित को बिना मेकअप परदे पर लाए थे।
लेकिन आलिया भट्ट कई जगह बेहद लाउड हैं, देहभाषा में भी और संवाद अदायगी में भी। यह खलता है। उन्हें यह सब सीखना होगा।
फिल्म में करीना कपूर भी हैं, जिनका किरदार पूरे फिल्म में अंडर प्ले ही रह जाता है। दलजीत और करीना के बीच पैदा हुए प्रेम को परदे पर निर्देशक कायदे से उकेर नहीं पाए हैं। इसलिए जब भी कहानी डॉ प्रीत और सरताज के प्रेम पर आती है, तो फिल्म थोड़ी बिखरी हुई लगती है।
उड़ता पंजाब की कहानी उस पंजाब की कहानी है, जो हम लोग परदे पर नहीं आम जनजीवन में देखते हैं। यह वही कहानी है, जिसकी वजह से बठिंडा से बीकानेर तक जाने वाली ट्रेन कैंसर एक्सप्रेस में बदल जाती है। यही वह कहानी है जिसकी वजह से यह एक राजनीतिक मुद्दा बनना चाहिए लेकिन बन नहीं पाता। फिल्म उस गहरे सियासी चक्र को छूती तो है लेकिन उसको खोलती नहीं है।
अभिषेक चौबे की इस फिल्म को हालांकि सराहना बहुत मिल रही है, संपादन और संगीत दुरुस्त है, कहानी में रिसर्च तगड़ा है, लेकिन गैंग्स ऑफ वासेपुर वाली बात इसमें बन नहीं पाई है। अधिकतर संवाद पंजाबी में हैं, जो स्वाभाविक ही है, और इस वजह से खांटी हिन्दी वालों को शायद संवाद समझने में मुश्किलें हों।
सेंसर बोर्ड के साथ विवाद की वजह से इस फिल्म को अधिक हवा मिल गई लेकिन ऐसा कुछ भी इस फिल्म के साथ नहीं जो असाधारण है। कुल मिलाकर फिल्म अच्छी है, और बढ़िया विषय पर सलीके से बनी हुई फिल्म है। इसमें सियासी दांवपेंच खोजना अच्छा नहीं है न सियासत के लिए न सिनेमा के लिए।
मंजीत ठाकुर
4 comments:
जय मां हाटेशवरी...
अनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 24/06/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
इस movie को देखने के बाद मैं भी आपसे सहमत हूॅ. इस movie में पंजाब के जीवन की ऐसी सचाई दिखाई गयी है जो हमारी आखें खोल देती है. इसमें एक संजीदा मुद्दें को रोचक शिल्प में प्रस्तुत किया गया है.
फिल्म देखने लायक है ! साथ ही सबजेक्ट बेजोड़ है और रही बात गालियों की तो फिल्म उसके बिना अधूरी लगेगी !
फिल्म देखने लायक है ! साथ ही सबजेक्ट बेजोड़ है और रही बात गालियों की तो फिल्म उसके बिना अधूरी लगेगी !
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