मुझे क्रिकेट पसंद है और धोनी भी। ऐसे में मुझे एस एम धोनीः द अनटोल्ड स्टोरी तो देखनी ही थी। मैंने फिल्म देर से देखी, और कायदे से देखी।
महेन्द्र सिंह धोनी, में अभी क्रिकेट काफी बाकी है और उनका स्टारडम खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में उन पर बनने वाली बायोपिक के रिलीज़ का यही सही वक्त है। मैं शर्तिया कह सकता हूं कि सचिन पर बने बायोपिक से बाजा़र सौ करोड़ कमाकर नहीं देगा।
बहरहाल, इस कमाऊ फ़िल्म से आप शिल्प और कला पक्ष की उम्मीद न करें, तो बेहतर। यह महेन्द्र सिंह धोनी के जीवन पर आधारित एक मनोरंजक फिल्म है, जिसकी पटकथा का बड़ा हिस्सा सतही है। धोनी का किरदार नीरज पांडे कायदे से रजत पट पर उकेर नहीं पाए हैं। जबकि, हमारी उम्मीदें उस निर्देशक से हद से ज्यादा थीं जिन्होंने इससे पहले अ वैडनेसडे और स्पेशल छब्बीस जैसी फिल्में दी हैं।
इस फिल्म को बायोपिक कहना गलत होगा क्योंकि धोनी की जिंदगी को यह कुछ बारीकी से पेश नहीं कर पाई है। जो बारीकी आपने भाग मिल्खा भाग या मैरी कॉम में देखी होगी, या पान सिंह तोमर में, वह सूक्ष्मता इस फिल्म से नदारद है। खबरें हैं कि नीरज पांडे ने शूट तो बहुत किया था, लेकिन धोनी ने फिल्म देखकर कट लगावा दिए। इस खबर की सच्चाई का कोई सुबूत नहीं है। सिवाय, इस बात के कि इंटरवल के बाद फिल्म में झटके आने शुरू हो जाते हैं और अलाय-बलाय शॉट और सीक्वेंस आते हैं।
जब नाम में लिखा हो अनटोल्ड स्टोरी, तो हम धोनी की जिंदगी के अनछुए पहलुओं से रू ब रू होने की उम्मीद बांधते हैं। एक हद तक पहले एक घंटे में यही सब होता है। धोनी के बचपन की कहानी दिलचल्प भी है और प्रेरणादायी भी।
फिल्म की शुरूआत बेहतरीन है। विश्वकप 2011 के फाइनल के मुसीबत भरे क्षणों से शुरू हुई इस फिल्म को फ्लैश-बैक तकनीक में फिल्माया गया है। दृश्य ड्रेसिंग रूम का है। अचानक धोनी फैसला लेते हैं कि युवराज की बजाय वे बल्लेबाजी के लिए जाएंगे।
यह सीन फिल्म का मूड सेट कर देता है। इसके बाद फिल्म सीधे 30 साल पीछे जाकर धोनी के जन्म से शुरू होती है। इसके बाद धोनी किस तरह क्रिकेट की दुनिया में धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाते हैं, उनके इस सफर को दिखाया गया है।
यह कहानी बताती है कि शुरू में धोनी फुटबॉलर थे, कि उन्हें क्रिकेट में रूचि नहीं थी, कि वह गोलकीपर थे, कि जब वह अच्छा खेलते थे स्कूल में छुट्टी हो जाती थी। यह फिल्म यह स्थापित करती है कि धोनी को धोनी बनाने में उनकी मां और उनके दोस्तों का कितना भारी योगदान है।
फिल्म बताती है कि धोनी, सचिन के भारी फैन थे, कि एक मैच में उनका युवराज सिंह से दिलचस्प तरीके से सामना होता है। कूचबिहार ट्रॉफी के दौरान युवराज सिंह से धोनी का सामना होता है। और खास बात यह कि युवराज के किरदार में हैरी टंगड़ी जबरदस्त लगे हैं। क्या देह-भाषा, क्या लाजवाब एंट्री...। वाह।
यहां आकर फिल्मकार स्थापित कर देता है कि बड़े शहरों के बच्चों की केयरलेस एट्टीट्यूड से कैसे छोटे शहरों के बच्चे धराशायी हो जाते हैं। यह फिल्म यह भी बताती है कि धोनी ने हेलिकॉप्टर शॉट लगाना अपने दोस्त संतोष लाल से सीखा था। संतोष इसे थप्पड़ शॉट कहते थे। लेकिन फिल्म में यह बात मिसिंग लिंक की तरह है। अगर धोनी हेलिकॉप्टर शॉट लगाना सीखते दिखाए गए हैं तो किसी मैच में उस शॉट को खेलते भी दिखाना चाहिए था।
फिल्म हमें बताती है कि दलीप ट्रॉफी में धोनी विमान मिस कर देते हैं। वहीं फिल्मकार किरदार उभारने में यह सीन भी रख सकते हैं कि बाद में उनके बड़े बनने के बाद विमान ने उनका इंतजार भी किया था। लेकिन यह मिसिंग है।
नीरज पांडे ने फिल्म को रियल लोकेशन पर शूट किया है इससे फिल्म विश्वनीय दिखती है। खासकर, धोनी के बचपन का घर, उनकी मां (बहुत शानदार सरलता के साथ) उनकी बहनों के साथ बरताव...सब कुछ नीरज पांडे शैली में विश्वसनीय है। लेकिन फिल्म में कहीं भी धोनी के भाई नरेन्द्र सिंह धोनी का जिक्र भी नहीं। क्यों...यह तो नीरज पांडे ही बता पाएंगे या फिर खुद धोनी।
टीसी की नौकरी में धोनी की कुंठा को अच्छे से दिखाया है जब वह पूरा दिन रेलवे प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हैं और शाम को मैदान में पसीना बहाते हैं। उसका टीम में चयन नहीं होता तो वह रात में टेनिस बॉल से खेले जाने वाले टूर्नामेंट में खेल कर अपने गुस्से को बाहर निकालता है। एक दिन दिल की बात सुन कर वह नौकरी छोड़ देता है।
धोनी के मन का यह फ्रस्टेशन फिल्माने में नीरज पांडे पूरी तरह कामयाब हुए हैं और इन क्षणों को जीवंत करने कि लिए सुशांत सिंह बधाई के पात्र हैं। फिल्म में धोनी की जद्दोजहद को बखूबी उभारा गया है। कई छोटे-छोटे दृश्य प्रभावी हैं। धोनी के अच्छे इंसान होने के गुण भी इन दृश्यों से सामने आते हैं। लेकिन आह, इंटरवल के बाद फिल्म लड़खड़ाने लगती है।
लेकिन, फिल्म कहीं से भी धोनी के कैप्टन कूल स्थापित नहीं करती। हम फिल्म में प्रायः धोनी को टूटते, रोते और रुआंसा होते देखते हैं। चाहे विमान छूटने की घटना हो या टीम में चयन नहीं होने की खबर हो या फिर पहली प्रेमिका प्रियंका झा की मौत की खबर। लेकिन मैदान पर हमेशा भावनाविहीन और संतुलित कप्तान वह कैसे बने रहते हैं इसका कहीं जिक्र नहीं, कोई उल्लेख नहीं।
दर्शकों की उत्सुकता यह जानने में रहती है कि ड्रेसिंग रूम के अंदर क्या होता था? धोनी किस तरह से बतौर कप्तान अपनी रणनीति बनाते थे? करोड़ों उम्मीद का तनाव 'कैप्टन कूल' किस तरह झेलते थे? अपने खिलाड़ियों के साथ किस तरह व्यवहार करते थे? उन्हें क्या टिप्स देते थे? सीनियर खिलाड़ियों को कैसे नियंत्रित करते थे? सीनियर खिलाड़ियों को टीम से बाहर करने का जिक्र एक बार जरूर आता है, लेकिन बिना किसी रेफरेंस के।
धोनी के कत्पान बनने का ब्योरा गायब है, फिर टेस्ट में नंबर एक टीम बनने का कहीं उल्लेख नहीं। टी-ट्वेंटी में फाइनल जीत है लेकिन उसकी तैयारियां...वह कहां हैं? याद कीजिए भाग मिल्खा भाग...उस फिल्म में योगराज सिंह के साथ फरहान अख्तर की ट्रैनिंग के दृश्य और जोशीले गीत से क्या आपका एड्रेनलिन नहीं बढ़ गया था?
फिल्म में कुछ दृश्य बेवजह लगते हैं। मसलन, धोनी से मिलने आए उनके टीसी दोस्त का होटल में आना। उस सीन को कोई रेफरेंस नहीं मिलता और आने की वजह से किरदार या फिल्म आगे बढ़ती हो, इसके सुबूत भी हासिल नहीं होते।
फिल्म तीन घंटे से भी ज्यादा लंबी है फिर भी ज्यादातर वक्त दर्शकों को बांधे रखती है। बीच-बीच में ऐसे कई दृश्य हैं जो धोनी के फैंस को सीटी और ताली बजाने पर मजबूर कर देते हैं। धोनी के जीवन में परिवार, दोस्त, प्रशिक्षक और रेलवे में काम करने वाले उनके साथियों का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस बात को उन्होंने अच्छे से रेखांकित किया है।
आमतौर पर फिल्मों में खेल वाले दृश्य कमजोर पड़ जाते हैं, लेकिन इस मामले में फिल्म बेहतरीन है। सुशांत सिंह राजपूत पूरी तरह क्रिकेटर लगते हैं। हालांकि तकनीकी रूप से कुछ खामियां भी हैं जैसे धोनी को कम उम्र में रिवर्स स्वीप मारते दिखाया गया है। उस समय शायद ही कोई यह शॉट खेलता हो और खुद धोनी भी यह शॉट खेलना पसंद नहीं करते हैं।
एक्टिंग के मामले में फिल्म लाजवाब है। सुशांत सिंह राजपूत में पहली फ्रेम से ही धोनी दिखाई देने लगते हैं। बॉडी लैंग्वेज में उन्होंने धोनी को हूबहू कॉपी किया है। क्रिकेट खेलते वक्त वे एक क्रिकेटर नजर आएं। इमोशनल और ड्रामेटिक सीन में भी उनका अभिनय देखने लायक है।
जो भी हो, फिल्म में इंटरवल के बाद बारीक ब्योरों की कमी है फिर भी फिल्म मनोरंजक है। भारतीय फिल्मों में शायद यह पहली फिल्म है जिसने बिना किसी खान के सौ करोड़ की कमाई का बुलंद आंकड़ा छुआ है। जाहिर है, धोनी की स्टार हैसियत किसी खान से कम नहीं।
अनुपम खेर, भूमिका चावला, कुमुद मिश्रा, राजेश शर्मा, दिशा पटानी, किआरा आडवाणी ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है।
महेंद्र सिंह धोनी हमारी पीढ़ी के क्रिकेटर हैं। उनने हमें गर्व के कई मौके दिए हैं और फिल्म में उन्हें दोबारा जीना बहुत अच्छा लगता है। कलात्मकता के तौर पर फिल्म से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा, लेकिन बायोपिक की विधा में बावजूद कई खामियो के यह फिल्म (कमाई के मामले में) मील का पत्थर है।
महेन्द्र सिंह धोनी, में अभी क्रिकेट काफी बाकी है और उनका स्टारडम खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में उन पर बनने वाली बायोपिक के रिलीज़ का यही सही वक्त है। मैं शर्तिया कह सकता हूं कि सचिन पर बने बायोपिक से बाजा़र सौ करोड़ कमाकर नहीं देगा।
बहरहाल, इस कमाऊ फ़िल्म से आप शिल्प और कला पक्ष की उम्मीद न करें, तो बेहतर। यह महेन्द्र सिंह धोनी के जीवन पर आधारित एक मनोरंजक फिल्म है, जिसकी पटकथा का बड़ा हिस्सा सतही है। धोनी का किरदार नीरज पांडे कायदे से रजत पट पर उकेर नहीं पाए हैं। जबकि, हमारी उम्मीदें उस निर्देशक से हद से ज्यादा थीं जिन्होंने इससे पहले अ वैडनेसडे और स्पेशल छब्बीस जैसी फिल्में दी हैं।
इस फिल्म को बायोपिक कहना गलत होगा क्योंकि धोनी की जिंदगी को यह कुछ बारीकी से पेश नहीं कर पाई है। जो बारीकी आपने भाग मिल्खा भाग या मैरी कॉम में देखी होगी, या पान सिंह तोमर में, वह सूक्ष्मता इस फिल्म से नदारद है। खबरें हैं कि नीरज पांडे ने शूट तो बहुत किया था, लेकिन धोनी ने फिल्म देखकर कट लगावा दिए। इस खबर की सच्चाई का कोई सुबूत नहीं है। सिवाय, इस बात के कि इंटरवल के बाद फिल्म में झटके आने शुरू हो जाते हैं और अलाय-बलाय शॉट और सीक्वेंस आते हैं।
जब नाम में लिखा हो अनटोल्ड स्टोरी, तो हम धोनी की जिंदगी के अनछुए पहलुओं से रू ब रू होने की उम्मीद बांधते हैं। एक हद तक पहले एक घंटे में यही सब होता है। धोनी के बचपन की कहानी दिलचल्प भी है और प्रेरणादायी भी।
फिल्म की शुरूआत बेहतरीन है। विश्वकप 2011 के फाइनल के मुसीबत भरे क्षणों से शुरू हुई इस फिल्म को फ्लैश-बैक तकनीक में फिल्माया गया है। दृश्य ड्रेसिंग रूम का है। अचानक धोनी फैसला लेते हैं कि युवराज की बजाय वे बल्लेबाजी के लिए जाएंगे।
यह सीन फिल्म का मूड सेट कर देता है। इसके बाद फिल्म सीधे 30 साल पीछे जाकर धोनी के जन्म से शुरू होती है। इसके बाद धोनी किस तरह क्रिकेट की दुनिया में धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाते हैं, उनके इस सफर को दिखाया गया है।
यह कहानी बताती है कि शुरू में धोनी फुटबॉलर थे, कि उन्हें क्रिकेट में रूचि नहीं थी, कि वह गोलकीपर थे, कि जब वह अच्छा खेलते थे स्कूल में छुट्टी हो जाती थी। यह फिल्म यह स्थापित करती है कि धोनी को धोनी बनाने में उनकी मां और उनके दोस्तों का कितना भारी योगदान है।
फिल्म बताती है कि धोनी, सचिन के भारी फैन थे, कि एक मैच में उनका युवराज सिंह से दिलचस्प तरीके से सामना होता है। कूचबिहार ट्रॉफी के दौरान युवराज सिंह से धोनी का सामना होता है। और खास बात यह कि युवराज के किरदार में हैरी टंगड़ी जबरदस्त लगे हैं। क्या देह-भाषा, क्या लाजवाब एंट्री...। वाह।
यहां आकर फिल्मकार स्थापित कर देता है कि बड़े शहरों के बच्चों की केयरलेस एट्टीट्यूड से कैसे छोटे शहरों के बच्चे धराशायी हो जाते हैं। यह फिल्म यह भी बताती है कि धोनी ने हेलिकॉप्टर शॉट लगाना अपने दोस्त संतोष लाल से सीखा था। संतोष इसे थप्पड़ शॉट कहते थे। लेकिन फिल्म में यह बात मिसिंग लिंक की तरह है। अगर धोनी हेलिकॉप्टर शॉट लगाना सीखते दिखाए गए हैं तो किसी मैच में उस शॉट को खेलते भी दिखाना चाहिए था।
फिल्म हमें बताती है कि दलीप ट्रॉफी में धोनी विमान मिस कर देते हैं। वहीं फिल्मकार किरदार उभारने में यह सीन भी रख सकते हैं कि बाद में उनके बड़े बनने के बाद विमान ने उनका इंतजार भी किया था। लेकिन यह मिसिंग है।
नीरज पांडे ने फिल्म को रियल लोकेशन पर शूट किया है इससे फिल्म विश्वनीय दिखती है। खासकर, धोनी के बचपन का घर, उनकी मां (बहुत शानदार सरलता के साथ) उनकी बहनों के साथ बरताव...सब कुछ नीरज पांडे शैली में विश्वसनीय है। लेकिन फिल्म में कहीं भी धोनी के भाई नरेन्द्र सिंह धोनी का जिक्र भी नहीं। क्यों...यह तो नीरज पांडे ही बता पाएंगे या फिर खुद धोनी।
टीसी की नौकरी में धोनी की कुंठा को अच्छे से दिखाया है जब वह पूरा दिन रेलवे प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हैं और शाम को मैदान में पसीना बहाते हैं। उसका टीम में चयन नहीं होता तो वह रात में टेनिस बॉल से खेले जाने वाले टूर्नामेंट में खेल कर अपने गुस्से को बाहर निकालता है। एक दिन दिल की बात सुन कर वह नौकरी छोड़ देता है।
धोनी के मन का यह फ्रस्टेशन फिल्माने में नीरज पांडे पूरी तरह कामयाब हुए हैं और इन क्षणों को जीवंत करने कि लिए सुशांत सिंह बधाई के पात्र हैं। फिल्म में धोनी की जद्दोजहद को बखूबी उभारा गया है। कई छोटे-छोटे दृश्य प्रभावी हैं। धोनी के अच्छे इंसान होने के गुण भी इन दृश्यों से सामने आते हैं। लेकिन आह, इंटरवल के बाद फिल्म लड़खड़ाने लगती है।
लेकिन, फिल्म कहीं से भी धोनी के कैप्टन कूल स्थापित नहीं करती। हम फिल्म में प्रायः धोनी को टूटते, रोते और रुआंसा होते देखते हैं। चाहे विमान छूटने की घटना हो या टीम में चयन नहीं होने की खबर हो या फिर पहली प्रेमिका प्रियंका झा की मौत की खबर। लेकिन मैदान पर हमेशा भावनाविहीन और संतुलित कप्तान वह कैसे बने रहते हैं इसका कहीं जिक्र नहीं, कोई उल्लेख नहीं।
दर्शकों की उत्सुकता यह जानने में रहती है कि ड्रेसिंग रूम के अंदर क्या होता था? धोनी किस तरह से बतौर कप्तान अपनी रणनीति बनाते थे? करोड़ों उम्मीद का तनाव 'कैप्टन कूल' किस तरह झेलते थे? अपने खिलाड़ियों के साथ किस तरह व्यवहार करते थे? उन्हें क्या टिप्स देते थे? सीनियर खिलाड़ियों को कैसे नियंत्रित करते थे? सीनियर खिलाड़ियों को टीम से बाहर करने का जिक्र एक बार जरूर आता है, लेकिन बिना किसी रेफरेंस के।
धोनी के कत्पान बनने का ब्योरा गायब है, फिर टेस्ट में नंबर एक टीम बनने का कहीं उल्लेख नहीं। टी-ट्वेंटी में फाइनल जीत है लेकिन उसकी तैयारियां...वह कहां हैं? याद कीजिए भाग मिल्खा भाग...उस फिल्म में योगराज सिंह के साथ फरहान अख्तर की ट्रैनिंग के दृश्य और जोशीले गीत से क्या आपका एड्रेनलिन नहीं बढ़ गया था?
फिल्म में कुछ दृश्य बेवजह लगते हैं। मसलन, धोनी से मिलने आए उनके टीसी दोस्त का होटल में आना। उस सीन को कोई रेफरेंस नहीं मिलता और आने की वजह से किरदार या फिल्म आगे बढ़ती हो, इसके सुबूत भी हासिल नहीं होते।
फिल्म तीन घंटे से भी ज्यादा लंबी है फिर भी ज्यादातर वक्त दर्शकों को बांधे रखती है। बीच-बीच में ऐसे कई दृश्य हैं जो धोनी के फैंस को सीटी और ताली बजाने पर मजबूर कर देते हैं। धोनी के जीवन में परिवार, दोस्त, प्रशिक्षक और रेलवे में काम करने वाले उनके साथियों का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस बात को उन्होंने अच्छे से रेखांकित किया है।
आमतौर पर फिल्मों में खेल वाले दृश्य कमजोर पड़ जाते हैं, लेकिन इस मामले में फिल्म बेहतरीन है। सुशांत सिंह राजपूत पूरी तरह क्रिकेटर लगते हैं। हालांकि तकनीकी रूप से कुछ खामियां भी हैं जैसे धोनी को कम उम्र में रिवर्स स्वीप मारते दिखाया गया है। उस समय शायद ही कोई यह शॉट खेलता हो और खुद धोनी भी यह शॉट खेलना पसंद नहीं करते हैं।
एक्टिंग के मामले में फिल्म लाजवाब है। सुशांत सिंह राजपूत में पहली फ्रेम से ही धोनी दिखाई देने लगते हैं। बॉडी लैंग्वेज में उन्होंने धोनी को हूबहू कॉपी किया है। क्रिकेट खेलते वक्त वे एक क्रिकेटर नजर आएं। इमोशनल और ड्रामेटिक सीन में भी उनका अभिनय देखने लायक है।
जो भी हो, फिल्म में इंटरवल के बाद बारीक ब्योरों की कमी है फिर भी फिल्म मनोरंजक है। भारतीय फिल्मों में शायद यह पहली फिल्म है जिसने बिना किसी खान के सौ करोड़ की कमाई का बुलंद आंकड़ा छुआ है। जाहिर है, धोनी की स्टार हैसियत किसी खान से कम नहीं।
अनुपम खेर, भूमिका चावला, कुमुद मिश्रा, राजेश शर्मा, दिशा पटानी, किआरा आडवाणी ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है।
महेंद्र सिंह धोनी हमारी पीढ़ी के क्रिकेटर हैं। उनने हमें गर्व के कई मौके दिए हैं और फिल्म में उन्हें दोबारा जीना बहुत अच्छा लगता है। कलात्मकता के तौर पर फिल्म से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा, लेकिन बायोपिक की विधा में बावजूद कई खामियो के यह फिल्म (कमाई के मामले में) मील का पत्थर है।
1 comment:
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-10-2016) के चर्चा मंच "रावण कभी नहीं मरता" {चर्चा अंक- 2495} पर भी होगी!
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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