सारे देश के राजनीतिक पंडितों को यकीन है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता-विरोधी लहर होगी और पिछले दो दशकों से ज्यादा वक्त से वैकल्पिक रूप से सत्ता में आ रहे सपा-बसपा के मामले में इस बार बीजेपी का पलड़ा पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले ज्यादा मजबूत होगा।
कई जानकार इस दफा होने वाले चुनावों में अस्पष्ट जनादेश मिलने के आसार भी व्यक्त कर रहे थे। कई चुनाव-पूर्व सर्वे भी आए, जिसमें सपा को कम सीटें दी गई थीं।
चुनाव-पूर्व विवादों से वोटरों के तय समीकरणों में बदलाव आता है।
उत्तर प्रदेश के पिछले विवाद को याद कीजिए। बीजेपी के नेता ने मायावती के बारे में अपशब्दों का प्रयोग किया, बदले में उनकी पत्नी और बिटिया को गाली दी गई और उससे हुए विवाद और वितंडे के बाद दौड़ से बाहर चल रही बसपा चर्चा में आ गई और लगा कि प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बसपा बन जाएगी।
मुख्यमंत्री रहते, अखिलेश यादव ने युवाओं के नेता के रूप में खुद को स्थापित करने को प्रायः सफल चेष्टा की है लेकिन जोरदार मोदी लहर के अंधड़ में लोकसभा चुनावों के दौरान सब कुछ उड़ गया था। बसपा का तो सूपड़ा साफ हो गया था।
लेकिन समाजवादी पार्टी के अगुआ कुनबे में पैदा हुए विवाद के बाद फिलहाल फायदा तो अखिलेश यादव को होती दिख रही है। विवाद के पहले और आज की तारीख की तुलना की जाए तो अखिलेश यादव की इमेज लोगों की निगाह में काफी सुधरी है और यहां तक कि मुलायम सिंह यादव के मुकाबले अखिलेश को पसंद करने वालों की गिनती में तेजी से इजाफा हुआ है।
अखिलेश की लोकप्रियता उस वर्ग में बढ़ी है जो परंपरागत रूप से समाजवादी पार्टी के वोट बैंक माने जाते हैं। यानी यादवों और मुस्लिम मतदाताओं के बीच सितंबर की बनिस्बत अखिलेश अक्तूबर में ज्यादा लोकप्रिय हो गए हैं। और यह आंकड़े सी-वोटर के एक सर्वे में आए हैं।
गौर कीजिए कि लोकप्रियता के मामले में अखिलेश खुद सपा सुप्रीमो नेताजी के बरअक्स खड़े होने की राह पर हैं और शिवपाल तो उनके सामने कहीं नहीं ठहरते।
वैसे, समाजवादी पार्टी की छवि कानून-व्यवस्था के मामले कुछ अच्छी नहीं है, लेकिन सर्वे में शामिल लोगों ने यह माना है कि अखिलेश अपनी पार्टी की इमेज बदलने की कोशिश कर रहे हैं। परिवार के बवाल में दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप हुए, शिवपाल ने सार्वजनिक रूप से कहा कि मुख्यमंत्री झूठ कह रहे हैं, और सारे देश ने टीवी पर इसका तमाशा देखा, लेकिन इससे शिवपाल को कोई फायदा नहीं हुआ है। इमेज के मामले में, अखिलेश शिवपाल से इक्कीस तो थे ही, इस प्रकऱण में उनकी स्वीकार्यता, चुनावी गणित के लिहाज से पहले से अधिक है और युवाओं मे यह संदेश गया है कि परिवार की खातिर मुलायम अखिलेश पर दवाब डाल रहे हैं।
बहरहाल, इस पूरे विवाद की कड़वाहट में अखिलेश यादव के लिए अच्छी बात यह है कि मायावती खबरों की दौड़ से बाहर हो गई हैं और टेलिविज़न चैनलों पर खबरों में तीन दिनों तक लगातार छाए रहने के बाद उत्तर प्रदेश चुनाव में विमर्श का मुद्दा अखिलेश हैं। खबरों में बना रहना भी सियासी बढ़त ही है, फिलहाल अखिलेश ने बीजेपी की सत्ता में वापसी की कयासों के बीच खुद को दूसरे नंबर पर ले जाने की कवायद में अपना हाथ ऊपर किया है।
मंजीत ठाकुर
कई जानकार इस दफा होने वाले चुनावों में अस्पष्ट जनादेश मिलने के आसार भी व्यक्त कर रहे थे। कई चुनाव-पूर्व सर्वे भी आए, जिसमें सपा को कम सीटें दी गई थीं।
चुनाव-पूर्व विवादों से वोटरों के तय समीकरणों में बदलाव आता है।
उत्तर प्रदेश के पिछले विवाद को याद कीजिए। बीजेपी के नेता ने मायावती के बारे में अपशब्दों का प्रयोग किया, बदले में उनकी पत्नी और बिटिया को गाली दी गई और उससे हुए विवाद और वितंडे के बाद दौड़ से बाहर चल रही बसपा चर्चा में आ गई और लगा कि प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बसपा बन जाएगी।
मुख्यमंत्री रहते, अखिलेश यादव ने युवाओं के नेता के रूप में खुद को स्थापित करने को प्रायः सफल चेष्टा की है लेकिन जोरदार मोदी लहर के अंधड़ में लोकसभा चुनावों के दौरान सब कुछ उड़ गया था। बसपा का तो सूपड़ा साफ हो गया था।
लेकिन समाजवादी पार्टी के अगुआ कुनबे में पैदा हुए विवाद के बाद फिलहाल फायदा तो अखिलेश यादव को होती दिख रही है। विवाद के पहले और आज की तारीख की तुलना की जाए तो अखिलेश यादव की इमेज लोगों की निगाह में काफी सुधरी है और यहां तक कि मुलायम सिंह यादव के मुकाबले अखिलेश को पसंद करने वालों की गिनती में तेजी से इजाफा हुआ है।
अखिलेश की लोकप्रियता उस वर्ग में बढ़ी है जो परंपरागत रूप से समाजवादी पार्टी के वोट बैंक माने जाते हैं। यानी यादवों और मुस्लिम मतदाताओं के बीच सितंबर की बनिस्बत अखिलेश अक्तूबर में ज्यादा लोकप्रिय हो गए हैं। और यह आंकड़े सी-वोटर के एक सर्वे में आए हैं।
गौर कीजिए कि लोकप्रियता के मामले में अखिलेश खुद सपा सुप्रीमो नेताजी के बरअक्स खड़े होने की राह पर हैं और शिवपाल तो उनके सामने कहीं नहीं ठहरते।
वैसे, समाजवादी पार्टी की छवि कानून-व्यवस्था के मामले कुछ अच्छी नहीं है, लेकिन सर्वे में शामिल लोगों ने यह माना है कि अखिलेश अपनी पार्टी की इमेज बदलने की कोशिश कर रहे हैं। परिवार के बवाल में दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप हुए, शिवपाल ने सार्वजनिक रूप से कहा कि मुख्यमंत्री झूठ कह रहे हैं, और सारे देश ने टीवी पर इसका तमाशा देखा, लेकिन इससे शिवपाल को कोई फायदा नहीं हुआ है। इमेज के मामले में, अखिलेश शिवपाल से इक्कीस तो थे ही, इस प्रकऱण में उनकी स्वीकार्यता, चुनावी गणित के लिहाज से पहले से अधिक है और युवाओं मे यह संदेश गया है कि परिवार की खातिर मुलायम अखिलेश पर दवाब डाल रहे हैं।
बहरहाल, इस पूरे विवाद की कड़वाहट में अखिलेश यादव के लिए अच्छी बात यह है कि मायावती खबरों की दौड़ से बाहर हो गई हैं और टेलिविज़न चैनलों पर खबरों में तीन दिनों तक लगातार छाए रहने के बाद उत्तर प्रदेश चुनाव में विमर्श का मुद्दा अखिलेश हैं। खबरों में बना रहना भी सियासी बढ़त ही है, फिलहाल अखिलेश ने बीजेपी की सत्ता में वापसी की कयासों के बीच खुद को दूसरे नंबर पर ले जाने की कवायद में अपना हाथ ऊपर किया है।
मंजीत ठाकुर
1 comment:
अभी के हालात में तो किसी भी पार्टी को बहुमत मिलने की संभावना नहीं हैं , अभी तो यू पी में बहुत कुछ होना बाकि है , इसलिए यह तो केवल कयास लगा कर वक्त बिताने का ही समय है , अभी हमारे शातिर राजनीतिज्ञ कई चले चलेंगे , और चुनाव जितने के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं चूकेंगे , इसलिए अभी हो रहे सर्वे भी व्यर्थ के ही हैं , कहना तो यह चाहिए कि ये सर्वे भी पार्टियों के द्वारा ही वोट बैंक को प्रभावित करने के लिए कराये जा रहे हैं , इस बीच पंजाब का चुनाव भी कुछ सीमा तक जनमत को प्रभावित करेगा ,कोई बड़ी बात नहीं कि मुलायम अखिलेश की तकरार भी स्क्रिप्टेड ही हो , क्योंकि पांच साल तक स पा ने भी कोई दुबारा जीतने जैसा कार्य नहीं किया है , तो यह चुनावी हथकंडा भी हो सकता है
Post a Comment