तीन तलाक़ का मसला सांप्रदायिक रंग लेने लगा है। लेकिन तीन तलाक़ का मामला ना मीडिया ने उठाया था और ना बीजेपी ने। हम मुख्य धारा की मीडिया की बहसों या सोशल मीडिया में इसे ऐसी बिनाह पर खारिज नहीं कर सकते। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है। बाकी याचिकाओं के साथ, इस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने खुद संज्ञान लिया और सरकार से इस पर उसका रूख पूछा था।
फिर सरकार ने इस पर अपनी राय हलफनामे के रूप में रखी। सात अक्तूबर को सरकार ने सुप्रीम को दिए अपने हलफनामे में कहा कि ‘तीन तलाक़ के मसले के लिए संविधान में कोई जगह नहीं है। पुरूषों की एक से अधिक शादी की इजाजत भी संविधान नहीं देता और तीन तलाक़ और बहुविवाह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।‘
क्योंकि संविधान सभी लोगों की समानता की बात करता है और तीन तलाक़ मर्दो और औरतों के बीत गैर-बराबरी वाली परंपरा है ऐसे में केन्द्र सरकार का हलफनामा भारत के इतिहास का पहला दस्तावेज़ बन गया है जब सरकार मुस्लिमों के तीन तलाक़, हलाला और बहुविवाह को धर्मनिरपेक्षता और लैंगिक समानता के खिलाफ बताया है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तमाम मुस्लिम संगठन केन्द्र के इस हलफनामे को मुस्लिम-विरोधी और समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ा एक कदम मान रहे हैं। फिर भी, हलफनामे के बाद जिस तरह से मुस्लिम संगठन हो-हल्ला कर रहे हैं, उसकी वजहों को तलाशना कोई रॉकेट साइंस नहीं हैं।
वैसे भी, समान नागरिक संहिता देश में क्यों लागू नहीं हो सकता यह बहस का विषय तो है। वैसे भी सुधार की प्रक्रियाएं धीमी चलती हैं। खासकर, वह प्रक्रियाएं अगर धर्म से जुड़ी हों। जैन धर्म से जुड़ी संथारा प्रथा को रोकने के लिए भी मामला सुप्रीम कोर्ट में है।
फिलहाल, उत्तर प्रदेश चुनाव के सिर पर आने की पृष्ठभूमि में इस मामले के आने और हो-हल्ले में ज्यादातर प्रगतिशील लोगों का चेहरा खुलकर सामने आ गया है। कल तक महिला प्रगतिशीलता की बात करने वाले लोग, आज इसे धर्म पर सरकार का हमला मानने लगे हैं और नरेन्द्र मोदी पर निजी कटाक्ष कर रहे हैं।
एक निजी अंग्रेजी खबरिया चैनल में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक साहब ने खम ठोंककर कह ही दियाः वह पहले मुसलमान हैं फिर भारतीय। और वह भारतीय संविधान नहीं मानते। ठीक है। लेकिन संविधान की जिस धारा 25 के तहत वह धार्मिक परंपराएं मानने की आजादी का अधिकार मांगा जाता है, वह भी तो संविधान प्रदत्त ही है। जिस संविधान के तहत आप अधिकार का उपभोग करते हैं, वह अधिकार भी तभी मिलेगा जब आप संविधान को मानेंगे। सुविधाजनक बातें हमेशा अच्छी लगती हैं।
तीन तलाक़ देना अगर धर्म के लिहाज़ से ज़रूरी है, फिर तो पाकिस्तान, मोरक्को, ट्यूनीशिया और मिस्र जैसे एक दर्जन इस्लामी देशों के लोग मुसलमान ही नहीं है, जहां तीन तलाक़ खत्म भले ही नहीं किया गया हो, लेकिन एक हद तक नियंत्रित कर दिया गया है।
गलत परंपराओं की लड़ाई लंबी होती है और कानून एक मज़बूत हथियार होता है लड़ने के लिए। इसलिए तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह पर कानूनी प्रतिबंध ज़रूरी है।
कई मुस्लिम धर्मगुरूओ ने कहा कि तीन तलाक़ की प्रथा पर बंदिश लगते ही महिलाओं पर रेप, हमले और अपराध बढ़ जाएंगे। कोई बताएगा कि यह कैसे होगा? वैसे आधिकारिक तो नहीं, लेकिन एक अध्ययन बताता है कि हिन्दू समुदाय में जहां तलाक के आंकड़े जहां सवा दो फीसद के आसपास हैं, वहीं यह मुस्लिम समुदाय में पांच फीसद के आसपास है।
हम मानते हैं कि यूपी में इलेक्शन पास है, और इलेक्शन, इश्क़ और लड़ाई में सब जायज़ होता है। इसके लिए आप सुप्रीम कोर्ट के एक सुधारवादी कदम को धर्म के खिलाफ साजिश करार देकर चीख सकते हैं, लेकिन सच यही है कि यह मसला महिला अधिकार बनाम पुरूष वर्चस्व भर का है।
मंजीत ठाकुर
फिर सरकार ने इस पर अपनी राय हलफनामे के रूप में रखी। सात अक्तूबर को सरकार ने सुप्रीम को दिए अपने हलफनामे में कहा कि ‘तीन तलाक़ के मसले के लिए संविधान में कोई जगह नहीं है। पुरूषों की एक से अधिक शादी की इजाजत भी संविधान नहीं देता और तीन तलाक़ और बहुविवाह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।‘
क्योंकि संविधान सभी लोगों की समानता की बात करता है और तीन तलाक़ मर्दो और औरतों के बीत गैर-बराबरी वाली परंपरा है ऐसे में केन्द्र सरकार का हलफनामा भारत के इतिहास का पहला दस्तावेज़ बन गया है जब सरकार मुस्लिमों के तीन तलाक़, हलाला और बहुविवाह को धर्मनिरपेक्षता और लैंगिक समानता के खिलाफ बताया है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तमाम मुस्लिम संगठन केन्द्र के इस हलफनामे को मुस्लिम-विरोधी और समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ा एक कदम मान रहे हैं। फिर भी, हलफनामे के बाद जिस तरह से मुस्लिम संगठन हो-हल्ला कर रहे हैं, उसकी वजहों को तलाशना कोई रॉकेट साइंस नहीं हैं।
वैसे भी, समान नागरिक संहिता देश में क्यों लागू नहीं हो सकता यह बहस का विषय तो है। वैसे भी सुधार की प्रक्रियाएं धीमी चलती हैं। खासकर, वह प्रक्रियाएं अगर धर्म से जुड़ी हों। जैन धर्म से जुड़ी संथारा प्रथा को रोकने के लिए भी मामला सुप्रीम कोर्ट में है।
फिलहाल, उत्तर प्रदेश चुनाव के सिर पर आने की पृष्ठभूमि में इस मामले के आने और हो-हल्ले में ज्यादातर प्रगतिशील लोगों का चेहरा खुलकर सामने आ गया है। कल तक महिला प्रगतिशीलता की बात करने वाले लोग, आज इसे धर्म पर सरकार का हमला मानने लगे हैं और नरेन्द्र मोदी पर निजी कटाक्ष कर रहे हैं।
एक निजी अंग्रेजी खबरिया चैनल में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक साहब ने खम ठोंककर कह ही दियाः वह पहले मुसलमान हैं फिर भारतीय। और वह भारतीय संविधान नहीं मानते। ठीक है। लेकिन संविधान की जिस धारा 25 के तहत वह धार्मिक परंपराएं मानने की आजादी का अधिकार मांगा जाता है, वह भी तो संविधान प्रदत्त ही है। जिस संविधान के तहत आप अधिकार का उपभोग करते हैं, वह अधिकार भी तभी मिलेगा जब आप संविधान को मानेंगे। सुविधाजनक बातें हमेशा अच्छी लगती हैं।
तीन तलाक़ देना अगर धर्म के लिहाज़ से ज़रूरी है, फिर तो पाकिस्तान, मोरक्को, ट्यूनीशिया और मिस्र जैसे एक दर्जन इस्लामी देशों के लोग मुसलमान ही नहीं है, जहां तीन तलाक़ खत्म भले ही नहीं किया गया हो, लेकिन एक हद तक नियंत्रित कर दिया गया है।
गलत परंपराओं की लड़ाई लंबी होती है और कानून एक मज़बूत हथियार होता है लड़ने के लिए। इसलिए तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह पर कानूनी प्रतिबंध ज़रूरी है।
कई मुस्लिम धर्मगुरूओ ने कहा कि तीन तलाक़ की प्रथा पर बंदिश लगते ही महिलाओं पर रेप, हमले और अपराध बढ़ जाएंगे। कोई बताएगा कि यह कैसे होगा? वैसे आधिकारिक तो नहीं, लेकिन एक अध्ययन बताता है कि हिन्दू समुदाय में जहां तलाक के आंकड़े जहां सवा दो फीसद के आसपास हैं, वहीं यह मुस्लिम समुदाय में पांच फीसद के आसपास है।
हम मानते हैं कि यूपी में इलेक्शन पास है, और इलेक्शन, इश्क़ और लड़ाई में सब जायज़ होता है। इसके लिए आप सुप्रीम कोर्ट के एक सुधारवादी कदम को धर्म के खिलाफ साजिश करार देकर चीख सकते हैं, लेकिन सच यही है कि यह मसला महिला अधिकार बनाम पुरूष वर्चस्व भर का है।
मंजीत ठाकुर
1 comment:
देश में जान बूझ कर ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश की जा रही है , तथाकथित सेक्युलरवादियों द्वारा इस को हवा दी जा रही है , लेकिन यह पासा सम्भवतः उनको उल्टा पड़ सकता है , मुस्लिम नेता अपनी मनमानी को खतरे में पड़ता महसूस कर रहे हैं जो कि मात्र उनका भय है , आज यदि तीन तलाक का मामला महिलाओं के हक में आ गया तो समाज में एकाएक तो कोई परिवर्तन आ नहीं जाएगा , जरूर होगा कि पुरुष वर्ग की बेहूदी हरकतों पर कुछ नियंत्रण लग जाएगा , आज हिन्दू समाज में भी तो तलाक होते ही हैं , ऐसा तो नहीं कि उस समाज में कोई रोक हो गयी हो ,महिलाओं की जागरूकता से वह डर रहे हैं, यह समझने की कोशिश नहीं कर रहे कि मुस्लिम समाज के विकास में एक बाधा महिलाओं का पिछड़ापन व शमन भी है , दकियानुसी व कठमुल्लापन मुल्ला मौलवियों की विरासत रहा है और इस विरासत पर ही कुरान की वे अनुचित व्याख्या कर देते हैं , जब की इस्लाम जैसा समानता के आधार वाला धर्म यह बातें कतई नहीं कहता ,यदि ऐसा होता तो इस्लामिक देश इस प्रकार की व्यवस्था पर प्रतिबंध न लगाते
लेकिन हर बात को राजनीतिक रंग दे कर सरकार को बदनाम करना एक ढर्रा बन गया है , कांग्रेस, स पा , बी स पा जैसे साम्प्रदायिक दल वोटों की राजनीती लिए कभी मौन रहकर तो कभी सामान संहिंता के नाम पर इसका विरोध करते हैं
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