उत्तर भारत का ब्राम्हण, क्यों नहीं दक्षिण के अपने सजातीय की तरह विकास कर पाया? मुझे लगता है कि घूम-फिरकर इसकी वजह वहीं जातीय जडता है जिसका शिकार उत्तर का ब्राह्मण रहा है।
सवाल यहां यह है कि ऐसा उत्तर में क्यों हुआ, जवकि ब्राह्मण तो दक्षिण के भी समान रुप से कूप-मंडूक और ओर्थोडोक्स थे। यहां मुझे लगता है कि संख्याबल काफी महत्वपूर्ण रहा है ओर दूसरा है अंग्रजों और अंग्रेजी का सानिद्ध्य। यह बात लगभग स्थापित हो चुकी है कि आर्य बाहर से गंगा की घाटी में आए और तब वो दक्षिण की तरफ गए। जाहिर सी बात है कि आर्यों के स्वयंभू नेता ब्राह्मणों की आबादी उत्तर में ज्यादा है और यहीं आवादी उनकी जडता के लिए उत्तरदायी है।
दक्षिण में कम आर्यन और ब्राह्मण आवादी की वजह से सामाजिक परिवर्तन पहले हो गया और पचास के दशक में ही व्राह्मणों को सत्ता से बेदखल कर दिया गया या वो उचित स्तर पर आ गये। लेकिन उत्तर में एसा नहीं हो पाया।
दक्षिण में पिछडों और दलितो के सशक्तिकरण ने शिक्षा से लेकर तमाम क्षेत्रों में बढत हासिल कर ली और ब्राह्मण वर्ग गांव छोड कर पचास के दशक में ही शहर में जा बसा। ये भी इस वर्ग के लिए फायदे के सौदा हो गया। भागा था वो ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन के डर से, लेकिन मद्रास से लेकर पूना और दिल्ली तक के तमाम आधुनिक ज्ञान के मंदिर उसके लिए खुलते चले गए। यह वर्ग तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण के चलते सिविल सेवा समेत तमाम केंद्रय सेवाओं में भर गया। और जव नव्वे के दशक में दक्षिण के राज्यों ने आइटी और उदारीकरण का फल चखना शुरु किया तो फिर से दक्षिण के ब्राह्मणों की चान्दी हो गयी।
तुलना किजीए, उत्तर के ब्राह्मणों का इससे...नव्वे के दशक तो तमाम झा जी, तिवारी जी और दूवे जी खेती ही कर रहे थे। कुछ लोग सरकारी सेवा में थे..और बाकी की हालत अपने पिछडे समकक्षों से थोडी ही अच्छी थी और इसकी वजह थी कि जमीन पर इनका कव्जा था और पिछडो के पास जमीन न के बराबर थी।
यहां ब्राह्मण से मेरा मतलब तमाम ब्राह्मण-टाइप जातियों से है। हां, उत्तर में बंगाली ब्रह्मण कुछ अच्छे थे और इसकी बहुत कुछ वजह उनका अंग्रेजों से संपर्क, पहले नवजागरण और वामपंथ का उस राज्य में प्रभाव होना हो सकता है। बाद बाकी तो उत्तर का ब्राह्मण अपने जडता,सामंती मानसिकता और समय के साथ न चलने की प्रवृति के कारण सिर्फ इस काविल रह गया कि उसे कोई भी लालू या मायावती आकर उसे गलिया सकता था। और यह होना ही था क्योंकि यह इतिहास का एक आवश्यक अध्याय था दक्षिण के ब्राह्मणों ने भी इसे पचास के दशक में झेला था।
जो पीढीगत बढत दक्षिण के ब्राह्मणो को मिल गयी है वह शायद इतना बडा गैप बना गया है कि अब उत्तर के ब्राह्मण, दक्षिण के ब्राह्मणों के साथ तुलना के योग्य नहीं है। वो इंफोसिस और सत्यम बनाने के स्टेज में है जवकि हमारे पास ढंग के इंजिनियरिंग कालेज तक नहीं।
हालत तो ये है कि अव दक्षिण के पिछडे भी उत्तर के अग़डों से आगे हैं। और मजे की बात तो यह है कि उत्तर में भी सत्ता में रहते हुए तमाम व्राह्मण या सवर्ण मलाई नहीं खा पाए- अलवत्ता बदनाम सब हो गए। कुछेक हजार ठेकेदार किस्म के ब्राह्मण या राजपूत ही माल बना पाए-हां मूंछे सबने जरुर फरकाई थी।
<(सुशांत झा इनफॉरमेशन टीवी में काम करते हैं। राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर उनकी गहरी पकड़ है। उनका यह वक्तव्य दिलीप मंडल के मोहल्ले पर दिए एक पोस्ट की प्रतिक्रिया या कहे समर्थन में आया । हमें लगा कि यह गुस्ताख़ की सोच से मेल खाती है। ऐसे में सुशांत जी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए हम एक बहस की शुरुआत करना चाह रहे हैं।)
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