फलक (फेसबुक लघु कथाएं) के मंच पर लोग लगातार लिख रहे हैं। उम्दा लिख रहे हैं। हम उनमें से कुछ ताजा उम्दा रचनाओं को यहां आपके साथ साझा कर रहे हैं-गुस्ताख़
कथाः एक
बचपन
कथाकारः विजय राज सिंह
उसने फोन करके कहा, आज से मेरी छुट्टियां शुरू हैं, पापा मुझे यहाँ घूमने जाना, पापा मुझे अपने लिए स्केट ख़रीदने है आपमें वादा किया था कि हॉलिडेज में दिलाएंगे ... मुझे यह करना है मुझे वो करना है।
उसकी अपने मम्मी-पापा के साथ यह चर्चा सुनकर धीरे धीरे मैं भी अपने बचपन की यादों में खोता जा रहा था। अन्दर-अन्दर बचपन एक बार फिर से पैदा होने के लिए हिलोरें मार रहा था। लग रहा था काश एक बार बस एक बार मेरा बचपन लौट आये और मैं फिर से उससे जीभर कर जी लूं।
(विजय राज सिंह दूरदर्शन न्यूज़ में ब्रॉडकास्ट एक्जीक्यूटिव हैं)
कथाः दो
प्यार
कथाकारः सुशांत झा
गलती उसकी भी नहीं थी, उसने तीन साल तक इंतजार किया। गलती मेरी भी नहीं थी, इस तीन साल में जब-2 मैंने शादी का मन बनाया, मेरी नौकरी चली गई। यह अरेंज मैरेज का ही मामला था उसके पिता ने मेरे घर पैगाम भेजा था। हम फेसबुक फ्रेंड भी थे। यह कोई प्लेटोनिक लव नहीं था, एक भरोसा था जो धीरे-धीरे पनप रहा था। लेकिन आखिरकार उसने घरवालों के दवाब के आगे घुटना टेक दिया। बस, एक ही खुशी है कि उसे अच्छा लड़का मिला। एक ही खुशी है कि मैंने उसे अपने नौकरी के बारे में गलत जानकारी नहीं दी। धोखा नहीं दिया।
(सुशांत झा कई मीडिया संस्थानों में काम करने के बाद आजकल फ्रीलांसर हैं, रामचंद्र गुहा की किताब इंडियाः आफ्टर गांधी का उन्होंने हिंदी अनुवाद किया है। पेंग्विन से शीघ्र प्रकाश्य। अन्य किताबों में व्यस्त।)
हिपोक्रेसी
कथाकारः सिद्धार्थ श्रीवास्तव
साब! ठंढा ले लो, सफर की थकान दूर हो जाएगी। ठंढे वाले ने ओपेनर को बोतलों पे चला कर चिरपरिचित ठंढतरंग बजाई। इस ठंढतरंग से उसकी तंद्रा टूटी।
माई, ठंढा लेबे।
माँ ने इनकार मे सर हिला दिया। तू ले ला, थाक लाग गइल होई। उसने भी इनकार मे सर हिला दिया।
दोनों फिर से चिंताओ के सागर मे उतराने लगे। अब कुछ महीनों के लिए उसके हिस्से मे माँ है। माँ के रहने का मतलब व्यर्थ की खड़ी की गई शिकवा- शिकायतों मे फिर वो मथा जाएगा और उससे निकलने वाले हलाहल...... वो भी उसके ही भाग्य मे तो है।
बस स्टैंड से घर तक के रास्ते मे जगह-जगह मदर्स डे के बैनर-पोस्टर उसकी मजबूरी पर उसे बिराते हुए से लग रहे थे।
(सिद्धार्थ श्रीवास्तव उत्तराखंड में सरकारी नौकरी में हैं और फलक पर कहानियों का शतक जमा चुके हैं, हमारे स्टार कथाकार)
कथाः चार
भरोसा
कथाकारः दीपिका लाल
'सोना कहां हो.....?'
'ओटी में। काफी सिरियस केस आया हुआ है। एक्सीडेंट का। बाद में बात करता हूं।'
दो घंटे बाद... 'कहां हो सोना...?'
'बाबू खाना खा रहा हूं।'
तीसरे घंटे- 'वेयर आर यू...?'
'इन हास्पीटल डीयर...'
'...और मैं तुम्हारे सामने हूं...!'
वो चौंका..... मैं सिर्फ शाक्ड थी। पिछले तीन घंटे वो रासलीला में मग्न था। मैं लगातार तीन घंटे से वहां खड़ी सब देख रही थी। उस पल के लिए उसकी नजरें नीचे झुक गई... और उम्र भर के लिए मेरा भरोसा...
लौटते समय उसकी आवाज सुनाई दे रही थी.... कम बैक.... लेकिन जाने कहां टकराकर लौट जा रही थी.... भरोसे का एक्सीडेंट हो चुका था.. इस केस को न तो ओटी में भेजा जा सकता था... न ही आपरेशन के बाद बचने का कोई चांस था....
(दीपिका लाल, दो अंग्रेजी अखबारों में रिपोर्टर रह चुकी हैं, फिलहाल ऑल इंडिया रेडियो में है।)
कथाः पांच
पटने के लड़के
कथाकारः अविनाश कुमार चंचल
हौज खास मेट्रो से मुनिरका तक ही दोनों को साथ जाना था। इतने में 511 बस आके रूकी। लड़का झट से बस में चढ़ गया। लड़की की नजर बस के डबल खाली सीट ढुंढ़ने लगी। इतने में लड़की ने लड़के का हाथ पकड़कर झट से नीचे खींच लिया। लड़का कहता रहा,"अरे। इसी से चलेंगे, हरी वाली है डीटीसी पास है टिकिट नहीं लेना पड़ेगा"
लड़की-''नहीं। बस में एक साथ दो सीट खाली नहीं है, ऑटो से चलेंगे''
लड़की ने ऑटो वाले से 40 रूपये में किराया फिक्स किया, इधर लड़का सोचता रहा,"इतने में तो जेएनयू में खाना खा लेते"
मुनीरका में बर्फ चुस्की खाने का प्लान बना।
"का, दस रूपये में एगो। एतना में तो दुनो आदमी खा लेंगे भाई"-लड़का बर्फ वाले से मोल-तोल करने में लगा था।
लड़की सोच रही थी-"उफ्फ! ये पटने के लड़के !(अविनाश कुमार चंचल भारतीय जनसंचार संस्थान से ताजा-ताजा निकरे हैं, फलक के सक्रिय सदस्य, बेहद
ऊर्जावान्)कथाः छह
आगजनी
मूल कथाः मंटो
संकलकः मंजीत ठाकुर
आग लगी तो सारा मुहल्ला जल गया--सिर्फ एक दुकान बच गई, जिसकी पेशानी पर यह बोर्ड लगा हुआ था---
'यहां इमारत-साज़ी का सारा सामान मिलता है'
कथाः एक
बचपन
विजय राज सिंह |
उसने फोन करके कहा, आज से मेरी छुट्टियां शुरू हैं, पापा मुझे यहाँ घूमने जाना, पापा मुझे अपने लिए स्केट ख़रीदने है आपमें वादा किया था कि हॉलिडेज में दिलाएंगे ... मुझे यह करना है मुझे वो करना है।
उसकी अपने मम्मी-पापा के साथ यह चर्चा सुनकर धीरे धीरे मैं भी अपने बचपन की यादों में खोता जा रहा था। अन्दर-अन्दर बचपन एक बार फिर से पैदा होने के लिए हिलोरें मार रहा था। लग रहा था काश एक बार बस एक बार मेरा बचपन लौट आये और मैं फिर से उससे जीभर कर जी लूं।
(विजय राज सिंह दूरदर्शन न्यूज़ में ब्रॉडकास्ट एक्जीक्यूटिव हैं)
कथाः दो
प्यार
कथाकारः सुशांत झा
सुशांत झा |
(सुशांत झा कई मीडिया संस्थानों में काम करने के बाद आजकल फ्रीलांसर हैं, रामचंद्र गुहा की किताब इंडियाः आफ्टर गांधी का उन्होंने हिंदी अनुवाद किया है। पेंग्विन से शीघ्र प्रकाश्य। अन्य किताबों में व्यस्त।)
कथाः तीन
हिपोक्रेसी
कथाकारः सिद्धार्थ श्रीवास्तव
सिद्धार्थ श्रीवास्तव |
माई, ठंढा लेबे।
माँ ने इनकार मे सर हिला दिया। तू ले ला, थाक लाग गइल होई। उसने भी इनकार मे सर हिला दिया।
दोनों फिर से चिंताओ के सागर मे उतराने लगे। अब कुछ महीनों के लिए उसके हिस्से मे माँ है। माँ के रहने का मतलब व्यर्थ की खड़ी की गई शिकवा- शिकायतों मे फिर वो मथा जाएगा और उससे निकलने वाले हलाहल...... वो भी उसके ही भाग्य मे तो है।
बस स्टैंड से घर तक के रास्ते मे जगह-जगह मदर्स डे के बैनर-पोस्टर उसकी मजबूरी पर उसे बिराते हुए से लग रहे थे।
(सिद्धार्थ श्रीवास्तव उत्तराखंड में सरकारी नौकरी में हैं और फलक पर कहानियों का शतक जमा चुके हैं, हमारे स्टार कथाकार)
कथाः चार
भरोसा
दीपिका लाल |
'सोना कहां हो.....?'
'ओटी में। काफी सिरियस केस आया हुआ है। एक्सीडेंट का। बाद में बात करता हूं।'
दो घंटे बाद... 'कहां हो सोना...?'
'बाबू खाना खा रहा हूं।'
तीसरे घंटे- 'वेयर आर यू...?'
'इन हास्पीटल डीयर...'
'...और मैं तुम्हारे सामने हूं...!'
वो चौंका..... मैं सिर्फ शाक्ड थी। पिछले तीन घंटे वो रासलीला में मग्न था। मैं लगातार तीन घंटे से वहां खड़ी सब देख रही थी। उस पल के लिए उसकी नजरें नीचे झुक गई... और उम्र भर के लिए मेरा भरोसा...
लौटते समय उसकी आवाज सुनाई दे रही थी.... कम बैक.... लेकिन जाने कहां टकराकर लौट जा रही थी.... भरोसे का एक्सीडेंट हो चुका था.. इस केस को न तो ओटी में भेजा जा सकता था... न ही आपरेशन के बाद बचने का कोई चांस था....
(दीपिका लाल, दो अंग्रेजी अखबारों में रिपोर्टर रह चुकी हैं, फिलहाल ऑल इंडिया रेडियो में है।)
कथाः पांच
पटने के लड़के
कथाकारः अविनाश कुमार चंचल
अविनाश कुमार चंचल |
लड़की-''नहीं। बस में एक साथ दो सीट खाली नहीं है, ऑटो से चलेंगे''
लड़की ने ऑटो वाले से 40 रूपये में किराया फिक्स किया, इधर लड़का सोचता रहा,"इतने में तो जेएनयू में खाना खा लेते"
मुनीरका में बर्फ चुस्की खाने का प्लान बना।
"का, दस रूपये में एगो। एतना में तो दुनो आदमी खा लेंगे भाई"-लड़का बर्फ वाले से मोल-तोल करने में लगा था।
लड़की सोच रही थी-"उफ्फ! ये पटने के लड़के !(अविनाश कुमार चंचल भारतीय जनसंचार संस्थान से ताजा-ताजा निकरे हैं, फलक के सक्रिय सदस्य, बेहद
ऊर्जावान्)कथाः छह
आगजनी
मूल कथाः मंटो
संकलकः मंजीत ठाकुर
आग लगी तो सारा मुहल्ला जल गया--सिर्फ एक दुकान बच गई, जिसकी पेशानी पर यह बोर्ड लगा हुआ था---
'यहां इमारत-साज़ी का सारा सामान मिलता है'
5 comments:
behtreen abhivaykti...
रोचक अतिलघु कहानियाँ..
सभी लघुकथा बेहतरीन
सुन्दर कथाये ..
सभी लघु कथाएं रोचक हैं ...बहुत खूब सभी लेखकों को बधाई
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