Monday, May 7, 2012

सुनो! मृगांका-पूछो न मैंने कैसे रैन गुजारी...

एकः पूछो न मैंने कैसे रैन गुजारी...

सूरजमुखी जैसी उस लड़की का घोषणापत्र था, मैं ही हूं मृगांका। 

इस आत्मविश्वास भरे घोषणापत्र के जवाब में
उस वक्त अभिजीत के पास कहने के लिए कुछ खास था भी नहीं, ना दिमाग में, ना ही ज़बान पर। मन ही मन नाम दोहराता वह सीढियों की ओर निकल गया। नीचे चाय की दुकान पर...दफ्तर के सामने ही, सप्तपर्णी के पेड़ हैं। जिनके नीचे बैठ कर चाय पीने का मजा ही कुछ और है।

सितंबर अक्तूबर में सप्तपर्णी उमक कर प्रेमासक्त नायिका की तरह खिलती है। उसकी मदमाती गंध अभिजीत को शुरु से पसंद रही है। आज वो गंध पता नहीं क्यों उसे बेहद याद आ रही थी। सप्तपर्णी पेड़ों के तने से टिककर सिगरेट सुलगाने और हरे-काले बैकग्राउंड में सफेद धुआं छोड़ने का मजा ही कुछ और है।

जब से सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान की मनाही हुई है, यह काम अभिजीत को बार-बार करने का मन करता है।

भिजीत को बचपन से ही हर ऐसे काम से रोका जाता रहा। बड़े भाई खानदान के पहले एमए पास थे। उन्हें पता था कि किस तरह की पढाई करने से दुनिया में चीजें मिलती हैं। बचपन से ही डॉक्टर बनने के ख्वाहिशमंद लड़के को गणित की ओर धकेला गया...अभिजीत को चित्रकारी का शौक था..बड़े भाई को लगता था कि पेंटिंग-वेंटिंग वक्त और करिअर दोनों की बरबादी है....।

अभिजीत की बरबादी वहीं से शुरु हुई थी...और आज मेट्रो, बसों और उनसे भी ज्यादा कारों की रेलमपेल से भरे शहर में एक मेसेज ने औपचारिक रुप से उसकी बरबादी का ऐलान कर दिया। हालांकि, यह सब कुछ बहुत दिनों से चल रहा था।

...
जस्ट फॉरगेट द पास्ट...

स्साला, जितना भी निकलना चाहो अतीत पीछा ही नही छोड़ता। उसे प्यास लग आई थी। ऐसी प्यास ...जिसे न दारू बुझा पाई..पानी-वानी से तो खैर ऐसी प्यासों का रिश्ता ही नहीं होता।

भिजीत लड़खड़ाते कदमों से किचन तक गया..फ्रिज से बोतल निकाल कर गटक गया। उसे लगा कि एक बार बाथरुम भी हो ही आना चाहिए। उसने पेट में जलन को नजरअंदाज करते हुए भी सोचा, "स्साला, अल्कोहल चीज ही ऐसी है।" यूरिनल में धार गिर रही थी और वह सोच रहा था....."अल्कोहल...वेसोप्रेसिन..एटीडाययूरेटिक....हाहाहा...नशे में हंसना कितना नशीला होता है...अतीत भी नशा ही है, शराबनोशी की तरह अतीत भी पीछा नही छोडती।

एक मेसेज से तमाम रिश्ते..तमाम वायदे...साथ गुजारे लम्हे..नही भुला सकते। मेसेजेज डिलीट किए जा सकते हैं...यादों को डिलीट करने का सॉफ्टवेयर है क्या किसी इंटेल-फिंटेल के पास..?."

अभिजीत ने दवाओं के ढेर की तरफ देखा। वह हंसा। रात को तो दवा लेना भूल ही गया था। मृगांका..होती तो भड़क जाती, होती क्या ...है ही...दो साल से ज्यादा हो गए...पता नहीं कहांहो। बाल-बच्चेदार होगी...ढेर सारी कड़वाहट उसकी ज़बान पर उतर आई..लगा किसी ने खाली पेट में ही नीट पिला दिया हो।

ड़े भाई और भाभी के सामने उसकी रुह कांपती थी। उसकी मां को अचारों के मर्तबान, लाल मिर्ची, दालों और चनों को धूप में रखने, शाम को वापस छत से उतार लाने, और व्रत उपवास अंजाम देने के सिवा दुनिया से कोई और मतलब नही था।

मेट्रिक और फिर बारहवी में वह कुछ ठीक-ठाक नंबरों से पास हो गया था। भाई साहब ने डिमांड रखी, आईआईटी की परीक्षा में बैठो। लेकिन परीक्षा में शामिल होना एक बात होती है, उसमें कामयाब होना दूसरी। अभिजीत को न कामयाबी मिलनी थी और ना ही मिली।

एआई ट्रिपल ई में फिसड्डी रैंक के बावजूद दोयम दर्जे के कॉलेज में इंजीनियरिंग में दाखिला मिल ही गया। यह दाखिला भी उसके लिए कोई यातना से कम न था..लेकिन घर के माहौल से, घुटन से मुक्ति थी। एक उजास-सा आ गया कॉलेज के हॉस्टल में आने से।

पूरब में उजास छा रहा था। अभि की नींद खुल गई। सिर दर्द से भारी हो रहा था। प्रशांत आज तो नही आएगा। आज वह अकेला हो जाएगा फिर..से...

और अकेले में खाना बहुत बड़ी मुश्किल होती है। डॉक्टर की तमाम हिदायतों के बावजूद वह हर तरह का खाना खा लेता है क्योकि ढाबों के मेन्यू में सादा खाना बमुश्किल ही शामिल होता है।

तो अकेले में खाना बहुत मुश्किल होता था...

कैंटीन में खाना...शोरगुल। कैंटीन की हवा में खाने की बू होती थी। अभिजीत से बर्दाश्त नहीं होती थी ये बू। इस गंध में मसाल-डोसा से लेकर ऑमलेट तक सब शामिल होते थे। सामने वाली टेबल पर मृगांका बैठी थी...अपने दोस्तों के साथ। अभिजीत देखता रहा। मृगांका की आंखें भी उठीं, अभिजीत पर टिकी और टिकी ही रह गई। सिनेमा होता तो कट पर ये शॉट लगते।

कट टू मृगांका -लॉन्ग शॉट
कट टू अभिजीत- मिड शॉट
कट टू मृगांका -क्लोज अप 
कट टू मृगांका -एक्सट्रीम क्लोज अप

भिजीत देखता ही रह गया। सिनेमैटिक साइलेंस। दो मिनट तक। पलकें झुकी नहीं। पलके गिरी नहीं। पता नहीं क्यों पहले पलकें अभिजीत ही हटा ले गया। आमतौर पर बदतमीज माने जाने वाले अभिजीत से इस तरह लजाने की उम्मीद कोई भी नही करता था।

आमतौर पर बदतमीज माने जाने वाले अभिजीत से इस तरह लजाने की उम्मीद कोई भी नही करता था। पास में मेट्रो का निर्माण का काम चल रहा है। पत्थर तोड़ने का काम चल रहा है।

पेड़ भी काट डाले गए हैं। कुल्हाडियां चल रही हैं..खट्...खट्...खट्।

जारी...

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

घटनायें भूलने और याद रखने की जद्दोजहद में निकल जाती है ज़िन्दगी।

दीपक बाबा said...

धाँसू शुरुआत,



कहानी में गुस्ताखी की उम्मीद रखेंगे,

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प..........अब तुम्हारी लेखनी में निखार आ गया है सच मुच !

डा. गायत्री गुप्ता 'गुंजन' said...

बड़े भाई को लगता था कि पेंटिंग-वेंटिंग वक्त और करिअर दोनों की बरबादी है....।

अभिजीत की बरबादी वहीं से शुरु हुई थी...

;)