(साल भर हुए नॉन फिक्शन लिखते-लिखते खुद को जांचने के लिए क्या मैं फिक्शन भी लिख सकता हूं..मैंने एक कथा लिखनी शुरु की थी। कथा चार किस्त से आगे नहीं बढ़ पाई। यह मेरे स्वभाव का हिस्सा है। अब लगा कि उसे पूरा करना चाहिए। अब उसे थोड़े परिवर्तन के साथ फिर से लिख रहा हूं...नाम भी बदल दिया है। नॉन फिक्शन लिखने के मामले में हमेशा अपनी क्षमता पर संदेह रहा है। ऐसे में अपनी पहली कथा
एक प्रेम-कथा के रुप में लिख रहा हूं। मुझे इसकी गुणवत्ता और
साहित्यकता पर भी संदेह हैं..लेकिन बस अपनी कहानी रचने की
क्षमता का जांचने के लिए लिख रहा हूं। हां, ये भी
बता दूं लगे हाथ की इस कहानी में वर्णित सभी पात्र काल्पनिक हैं। घटनाएं सत्य
हैं लेकिन उनका किसी भी जीवित और मृत व्यक्ति से सीधा संबंध नही है- मंजीत)
बारिश भरी रात...बाहर बादलों का साम्राज्य था। बीच बीच में बिजली कड़क उठती। डॉप्लर प्रभाव का भौतिकी वाला सिद्धांत कोई भी पढ़ले...पहले रौशनी चमकती फिर जोर की गड़गड़ाहट। काले दिन भी गुजरे थे रातें भी काली ही थीं...बीच-बीच में झींगुरों का कोरस सुनाई दे रहा था। इन आवाजो से बेख़बर अभिजीत अभी-अभी सोया था। सोया क्या था..नींद की झोंके आए थे।
इन झोंके से ऐन पहले उसने प्रशांत के साथ
एंटीक्विटी की एक बोतल खाली की थी। यह भूलते हुए कि डॉक्टर ने
उसे दारु न पीने की उम्दा सलाह दी है। इस चेतावनी के साथ कि अगर उसे चार-पांच साल
और जीना है तो सिगरेट और शराब से परहेज करना ही होगा।.
लेकिन पांच पैग के बाद प्रशांत पलंग के नीचे ही घुलट गया। उसे सुबह की शिफ्ट में दफ्तर जाना था। अभिजीत को बचपन से ही जल्दी नींद नही आती। आखिरी पैग के बाद भी उसके ज्ञानचक्षु खुले ही थे। कि बस वाइव्रेशन मोड में किनारे पड़ा मोबाइल घुरघुराया...मृगांका का संक्षिप्त मेसेज था...अभि, फॉरगेट द पास्ट...।
गोल्ड फ्लेक के धुएं के बीच अभिजीत ने
दिमाग पर बहुत जोर डाला कि यह शब्द उसने कही और भी पढ़ा था। उसे से याद नहीं आया
था। फिर एंटीक्विटी के लार्ज पेगों ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया था। नींद
को झोंके आने लगे थे..मृगांका....
हालांकि बात करीब दो साल यानी सात सौ पैंतालीस दिन यानी सत्रह हजार आठ सौ अस्सी घंटे पहले मृगांका ने लगभग चीखते हुए कहा था...आई कांट गेट यू इन दिस लाइफ़। इस जन्म में मैं तुम्हे नहीं पा सकती। इतने लम्हों के बाद भी, जो सदियों की तरह भी लगते हैं और लगते हैं जैसे आज सुबह की ही बात हो।
मृगांका...। मृगांका...।
मृगांका उसकी जिंदगी का सबसे मुलायम लम्हा थी।
सबसे मुलायम गोकि अभिजीत की जिंदगी में मुलायम लम्हे कम ही आए थे। बेहद गरीबी में काटे दिन, पैसे-पैसे को मोहताज। कॉलेज के दिनों में ट्यूशन पढाकर अपनी पढाई पूरी करने वाले अभिजीत के लिए दिन मुलायम हो भी नही सकते थे।
पिता मास्टर थे, और उन्ही दिनों ईश्वर के पास चले गए, जब ऐसे घरों में फाकाकशी की नौबत आ जाने
की पूरी आशंका होती है।
...जस्ट फॉरगेट द पास्ट..
अतीत को भूलना इतना आसान भी नहीं होता।
मृगांका कोई कंटीले सौंदर्य की मलिका नहीं थी। लेकिन अभिजीत ने देखा तो बस देखता ही रह गया था। लगा, इस को पहले कहीं देखा है।
अभिजीत ने सुना था कहीं कि मृगांका नाम की एक लड़की ने हाल ही में जॉइन किया है। अभिजीत के ही
अखबार में, डेस्क पर। न्यूज़ रुम में एक कोने में क्वॉर्क एक्सप्रैस पर पेज बनाने में मशगूल डेस्क के पत्रकारों के हुजूम में उसने अपनी रिपोर्ट का जिक्र करते हुए यूं ही पूछ लिया था ये मृगांका कौन है?
अतीत के परते ऐसे ही खुलती जाती हैं
प्याज की तरह। हर तह में आपको रुलाती हुई।
मेसेज भेजने से क्या होता है, जस्ट फॉरगेट द पास्ट? और उसका क्या कि आई कांट गेट यू इन दिस लाइफ़। इस जन्म में नहीं पा सकने का दर्द तो उसी को होगा ना जो पाने की हसरत को असीम ऊंचाईयों तक मन में पाल ले।
झींगुरों की आवाज तेज हो गई थी और बाहर
बारिश भी।
"इस बार साली दिल्ली को बहा देंगे ये
भैनचो..बादल। साली इसी को तो कहते हैं जलवायु परिवर्तन...अप्रैल हो गई बारिश देखते जाओ। इस दिल्ली का तो कुछ है नहीं अपना, शिमले में बर्फ गिरे तो दिल्ली अकड़ जाए, राजस्थान में गरमी हो तो लू दिल्ली में चले। अब कश्मीर की घाटी में डिस्टरबेंस है बारिश दिल्ली में। हद हो गई चूतियापे की।" प्रशांत बुड़बुड़ा रहा था। पर्यावरण प्रेम से ज्यादा ऑफिस पहुंचने में
देरी से वह हलकान हो रहा था।
पिक-अप की कैब अभी तक आई नही थी।
जैसे ही अभिजीत ने पूछा था ये मृगांका कौन है...सलज्ज आंखों के एक जोड़े ने उसका पीछा किया था। इस उत्तर के साथ,...देख लो मै ही हूं मृगांका।
मृगांका, चांद? हुंह। ये तो सूरज है...पीले कपड़ों और लाल दुपट्टे में सजी मृगांका उसे सूरज-सी लगी। तेजस्विनी। अभिजीत मुस्कुरा उठा फिर से। सूरज तो पुलिंग है, ये सूरजमुखी ठीक है।
उसके बाद से अब तक अभिजीत के मन में मृगांका की वही छवि बस-सी गई। सूरजमुखी वाली।
जारी..
4 comments:
मधुर स्मृतियाँ अनियन्त्रित होती हैं, भला कैसे कोई भुला दे उन्हे..
उम्दा, अगले अंक अवश्य शीघ्र ही पढ्ने हेतु उपलब्ध होंगे।
अतीत के परते ऐसे ही खुलती जाती हैं प्याज की तरह। हर तह में आपको रुलाती हुई।
बेहतरीन विश्लेषण...
...........jaise sab-kuchh aankho ke saamne chal rha ho.......... "jhingooroo ka kores", atit ki parte "aise hi khulti hai pyaj ki tarah."
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