Friday, May 18, 2012

श्रीमंत की सड़क

मेरे दफ्तर के से निकलिए और बाएं हाथ को चलते चलेंगे तो इंडिया गेट तक आ जाएंगे। उससे पहले कई भवन है, पंजाब भवन, महाराष्ट्र भवन...हरियाणा भवन। मेरे एक मित्र इन भवनों को देखते हैं तो कहते हैं वाह! ये है प्रजातंत्र। थोड़ी दूर जाओ तो संसद, इधर आ जाओ तो इंडिया गेट, इनके बीच अपने राज्यों के भवन। लगता है अपना भारत सचमुच का लोकतंत्र हो गया है।

लोकतंत्र सचमुच का है कि झूठमूठ का ये तो वही परम आशावादी मित्र जानें। मेरे उऩ मित्र की नजर में राज्यों के ये भवन इसलिए भी महानता के प्रतीक हैं क्योंकि अपने दफ्तर के मुकाबले इन भवनों में भोजन सलीके का मिल जाता है।

मेरी नजर में खाने से ज्यादा इंपॉर्टेंट पीना हैं। बकौल रवीन्द्र कालिया हम खाते-पीते परिवार का होने की बजाय पीते-पीते परिवार का होना ज्यादा पसंद करते।

बहरहाल, मेरी छिद्रान्वेषी नजर बारंबार एक सड़क पर जाकर टिक जाती है। कॉपरनिकस मार्ग को जसवंत सिंह मार्ग से जोड़ने वाली सड़क है श्रीमंत माधव राव सिंधिया मार्ग। नीले रंग के बोर्ड पर सफेद अक्षरों से मुझे बहुत गुस्सा आता है। आखिर लोकतंत्र में इस 'श्रीमंत ' का क्या तात्पर्य?

हमारी सामंती मानसिकता या पता नहीं क्या है। साहित्य अकादमी से उधर फिक्की की ओर गोल चक्कर काटें तो नेपाल के दूतावास के कोने पर अलेक्जेन्द्र पुश्किन की कद्दावर मूर्ति है। हालांकि एक सुकून है पुश्किन है, वरना इनका बस चले तो ज़ार की मूर्ति लगा दें।

आखिर, बाबर रोड, अकबर रोड, शाहजहां रोड, औरंगजेब रोड और बहादुर शाह जफ़र मार्ग है ही। पृथ्वीराज रोड भी है हालांकि हर्षवर्धन के नाम पर रोड नहीं है। अशोक रोड है लेकिन चंद्रगुप्त को इस लायक नहीं समझा गया। कूटनीति के लिए महत्वपूर्ण चाणक्य के नाम पर पूरी 'पुरी' है। लेकिन विजेता समुद्रगुप्त कूड़ेदान में।

हर दूसरे भवन का नाम इंदिरा-नेहरु के नाम पर, केन्द्र सरकार की 53 योजनाएं राजीव गांधी के नाम पर, लेकिन एक तो कबीर के नाम पर सड़क बना देते, एक तो प्रेमचंद को भी पुरी देते। रहीम खानेखाना, बिस्मिल्लाह खां, कोई नहीं मिला। जबकि, टॉल्सटॉय, टीटो, कर्नल नासिर और आर्क बिशपों तक तो आपने जगह दी है।

सवाल ये नहीं कि आखिर सड़को के नाम विदेशियों के नाम पर रखने पर कोई उज्र है क्या? कोई उज्र नहीं, आप चाहें तो हर सड़क का नाम राजीव गांधी रोड रख दें। परेशानी इस बात पर है कि आखिर सड़कों के नामों पर राजाओं का कब्जा क्यों है।

आखिर विद्यापति, तिरुवल्लुवर, रहीम, तुलसी, प्रेमचंद (मैं टैगोर की बात नहीं कर रहा) के नामों पर सड़कें क्यों नहीं। आखिर सड़कों के नाम श्रीमंतों के नाम पर कब तक रखे जाते रहेंगे।

लोकतंत्र है तो एक ईमानदार ऑटोवाले के नाम पर एक गली का नाम क्यों नहीं रख देते। हालांकि, सड़कों के नाम शनैः शनैः अप्रासंगिक होते जाएंगे। लेकिन बात नाम की नहीं, बात उस मंशे की है, जिसकी वजह से आपने लोकतंत्र को एक खास तबके की जागीर में तब्दील कर दिया है।

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

उनके भी दिन आयेंगे,
अपनों से दिल घबरायेगा,
सहता समाज तब,
उनके ही गुण गायेगा।

sushant jha said...

मंजीत, तुमने जरूरी सवाल उठाए हैं। दरअसल, इन राजा-महाराजाओं को इनकी पुरानी उपाधि, ओहदे आदि धारण करने की और अपने नाम के साथ इस्तेमाल करने की छूट है। इसलिए जब भी कभी इनके नाम पर सड़क का नामकरण होता है तो पूरी उपाधि घुसेड़ दी जाती है। पहले जरूरत है कि प्रिविपर्स के समय की उस गलती को दूर किया जाए कि राजा-महाराजाओं के नाम के पीछे जो उपाधि लगाने की उनको छूट गई थी उसे वापस लिया जाए। अब काहे का महाराजा और काहे का नवाब। बाकी बात तो सही है कि हमारे यहां कबीर या विद्यापति मार्ग नहीं होता। सिर्फ शाहजहां या पृथ्वीराज मार्ग होता है।