अभिजीत पानी पीकर हैरत में था...उसने गौर से देखा...इस लड़के उगना को उसने कहीं देखा है। उसे लगा कि शायद उसका भ्रम हो... ये भ्रम नहीं था। ये तो वही लड़का है जो महंत जी की कुट्टी (कुटी)
में खबास (नौकर) है... अरे हां, इसे तो स्कूल पर मिडडे मील वाली भीड़ में भी देखा था।
भैंसवार छौंड़े (भैंस चराने वाले लड़के) के पीछे-पीछे जाता हुआ अभिजीत पाकड़ के पेड़ के पास पहुंच गया। वह अभिजीत की तरफ मुड़ा।
" हय मालिक, आप इहां हैं.." उसने लगभग हैरत से पूछा।
"क्यों...?"
" अरे, ऊधर आपको महंजी (महंतजी) खोज रहे थे और उधर मड़र काका भी..।" अपनी बात पूरी करने के बाद लड़का अपने वराहतुल्य दांतो को होंठों से ढंकने की पूरी कोशिश करने लगा। लेकिन अभिजीत ने देखा कि दांत होंठों के बीच से यूं उग आते हैं मानो बादलों को चीरकर सूरज भगवान निकल आए हों। अभिजीत पेशोपेश में पड़ गया, किधर जाए...
उसने शायद अभिजीत की असमंजस को भांप लिया, " अरे कोई बात नहीं है। महंजी पूजा पर बैठ गए होंगे, ऊ आपको सायद मुक्खे झा से मिलवाने वाले हैं।...अभी तो आप मड़र कक्का के डेरा पर चलिए।"
अभिजीत को भी लगा कि मड़र के घर ही चलना चाहिए। लड़का देह से कमज़ोर था। दोनों टांगे टिटहिरी जैसी, पतली। कदम ज़मीन पर ऐसे गिरते की दोनों एडियां आपस में टकरा जातीं। चलने का अंदाज़ अजीबोगरीब.. कदम बढाते ही वही हाथ आगे जाता, जो पैर आगे बढ़ रहा होता। काला खटखट। बिबाइयां फटे पैर, टूटी चप्पल। चप्पल के टूटे फीते को आलपिन से जोड़ा गया था।
" नाम क्या है तुम्हारा..?" अभिजीत ने पूछा। हालांकि नाम उसे पता ही था, फिर भी बातचीत के क्रम को आगे बढाने के लिए सवाला पूछा गया था।
" मेरा नाम.. ? वह चिंहुका। "... उगना.." उसने ऐसे बताया मानो नाम बताना नहीं चाह रहा हो। "..उगना.." अभिजीत ने दुहराया। हिंदी में उगना उदित होना होता है, मैथिली में दुलारा..।
" घर में कौन है उगना.." अभिजीत के स्वर में थोड़ा दुलार आ गया था।
" एक ठो बहिन है उसका नाम है आसाबरी.. एक ठो कुतवा (कुत्ता) है और बरद (बैल)"...कुतवा हमरे मीत (मित्र) भैरव का है।
" .. और मां-बाप.." अभिजीत ने ये सवाल ना मालूम क्यों पूछ डाला। " मां-बाप .. बहुत पहिले मर गए.. खजौली टिशन के पास जूता-चप्पल ठीक करने का दुकान था।"
बातें शायद और भी आगे चलतीं, लेकिन तब तक मड़र का घर आ गया था। अभिजीत ने देखा, उनकी बूढी मां बांस से बने दरवाजे के पास खड़ी थी। मड़र भी आ चुका था।
" माई ने आज बगिया बनाया है, इसलिए आपको खिलाने के बारे में सोच रही थी। उसको लग रहा था कि पता नहीं सहर-बजार के आदमी हैं।... बढिया लगेगा कि नहीं, लेकिन हम तो जानते हैं आपको। हम बोले उगना से कि जाओ बुला लो सर को... आज गांव का बेंजन (व्यंजन) भी आपको खिला ही दें।"
वैसे रात में गांव की तरकारी का स्वाद अभिजीत पा चुका था और ईमानदारी से कही जाए तो इसका जायका उसे शहर के खाने से वाकई अच्छा लगा था।
अभिजीत, मड़र और उगना के साथ बैठा ही था कि मड़र ने उगना को कोई इशारा किया। उगना उठकर आंगन में खड़ा हो गया। एक औरत, आधा पल्लू सर पर ढांके, कुछ इस तरह कि परदा है भी और नहीं भी के अंदाज़ में..एक पीतल की थाली में सात-आठ इडली जैसी चीज़ रख गई। सफेद पकवान से भाप उठ रही थी और साथ में एक सोंधी सुगंध भी।
वह औरत मड़र की बीवी नहीं था। मड़र की मां शायद अभिजीत के सवालिया निगाहों को पहचान गई। बोली,--" ये बिसुआ (मड़र) की भावज है। मेरा दूसरा बेटा है न लखिन्दर, उसकी बहू।"
इतना परिचय काफी नही था। मड़र के बेटे, जीवछ ने और विस्तार से बताया,-" मेरे कक्का बंबई गए हैं। कमाने के लिए।"... जीवछ ने उस पकवान में दांत काटते हुए बताया कि बंबई में समुद्र है, हमारे महंजी पोखर (महंत जी वाले पोखरे) से बहुत बड़ा। इतना बड़ा कि उसमें सौ पोखर अंट जाएंगे। और ये भी उसके कक्का का नाम बाला लखिंदर है और काकी का नाम है बिहुला।
अभिजीत को लगा कि इस पकवान के साथ कोई चटनी भी होनी चाहिए, लेकिन जीवछ ने ऐसे ही दांतों से काटकर खाने का इशारा किया। जैसे ही अभिजीत ने दांत से पकवान में काटा, उसकी पूरी गाल गुड़ के सोंधे मीठेपन से भर गई।
ऐसा एक बार तब हुआ था, जब मृगांका के बहुत जोर देने पर उसने पित्सा खाया था। दांत से काटकर। खूब लोटपोट होकर हंसी थी मृगांका...खैर...।
उसे ख्याल आया कि उगना अभी नहीं खा रहा है। अभिजीत ने उसे बुलाया, वह हिचकिचा रहा था। मड़र समझ गया।
बिसेसर के घर से बगिया खाकर, अभिजीत फिर से मुखिया जी के घर की ओर गया। शाम गहराने लगी थी...घरो में लालटेने जल गई थी। बिहार में बदले हुए परिदृश्य में गांवों में बिजली के खंभे तो लग गए थे, लेकिन उन खंभों से लटके तार निष्प्राण थे।
मुखिया जी ने जोरदार स्वागत किया। अभिजीत ने देखा, उगना वहीं मुंह लटकाए खड़ा था, अभिजीत से पहले ही पहुंच चुका था वो...।
मुखिया जी ने हांक लगाई, रे उगना पानी ला रे।
...उगना से याद आया अभिजीत बाबू, उगना की कहानी आपने सुनी या नहीं..। अभिजीत ने इनकार में सर हिला दिया। ले भला, चलिए सुनाते हैं...। मुखिया जी ने हथेली पर मसले जा रहे खैनी को चुटकी बनाकर निचले होठों के बीच सुरक्षित पहुंचा दिया, और दास्तानगोई शुरु हो गई।
दिल्ली, मृगांका का घर
कमरा सूना तो था, लेकिन अब बेजान नहीं था। मृगांका ने कुछ आलमारियां खोल रखी थीं, प्रशांत अवाक् सा देख रहा था। सब आलमारियों में अभिजीत की लिखी किताबों की कई प्रतियां थी। कुछ पर अभिजीत के हस्ताक्षर भी थे, जो उसने खुद मृगांका को भेंट किए थे।
प्रशांत अभिजीत का बहुत नजदीती दोस्त था।
प्रशांत, तुम्हें पता है, अभिजीत की लिखावट में क्या खास होता था? मृगांका ने लगभग रूंधी हुआ आवाज में पूछा था।
प्रशांत और अभिजीत तबसे दोस्त थे, जब अभिजीत दिल्ली आया ही था। युगों पुरानी दोस्ती, साथ खाना और साथ पीना। लेकिन लिखावट...। अभिजीत का हस्तलेख पहतान सकता था प्रशांत लेकिन...लिखावट में क्या खास था।
मृगांका ने एक पुरानी पतली-सी किताब निकाली, आखिरी पेज पर एक शेर लिखा था...प्रशांत बेवकूफ की तरह उस लिखावट को देखता रह गया...लिखावट तो अभिजीत की ही है लेकिन इसमें खास क्या है। वह चुप ही रहा।
देखो गौर से, अभिजीत बिंदियों की जगह बड़ा-सा गोला बनाता है। और वह र कैसे लिखता है...मृगांका और न जाने क्या-क्या ब्योरा देती रही। हर बारीक ब्योरा प्रशांत के मन में, अपराधबोध भरता गया।
मृगांका भाभी, मुझे माफ कर दो।
प्लीज प्रशांत, भाभी भी कह रहे हो, और तुमने मुझे अंधेरे में रखा। कहां गुम हो गया है तुम्हारा भाई और तु्म एक फोन नहीं कर सकते थे।
मैं बाहर चला गया था, मेरे पीछे पता नहीं...
चुप रहो,.....मृगांका कुछ और कहने ही वाली थी कि अचानक उसके पिताजी कमरे में आए। बेटा, देखो ड्राइंगरूम में...अभिजीत की मां तुमसे मिलने आईं है।
अभिजीत की मां? मृगांका और प्रशांत दोनों के लिए हैरत की बात थी। दोनों ड्राइंग रूम की तरफ दौड़ पड़े।
जारी.....
भैंसवार छौंड़े (भैंस चराने वाले लड़के) के पीछे-पीछे जाता हुआ अभिजीत पाकड़ के पेड़ के पास पहुंच गया। वह अभिजीत की तरफ मुड़ा।
" हय मालिक, आप इहां हैं.." उसने लगभग हैरत से पूछा।
"क्यों...?"
" अरे, ऊधर आपको महंजी (महंतजी) खोज रहे थे और उधर मड़र काका भी..।" अपनी बात पूरी करने के बाद लड़का अपने वराहतुल्य दांतो को होंठों से ढंकने की पूरी कोशिश करने लगा। लेकिन अभिजीत ने देखा कि दांत होंठों के बीच से यूं उग आते हैं मानो बादलों को चीरकर सूरज भगवान निकल आए हों। अभिजीत पेशोपेश में पड़ गया, किधर जाए...
उसने शायद अभिजीत की असमंजस को भांप लिया, " अरे कोई बात नहीं है। महंजी पूजा पर बैठ गए होंगे, ऊ आपको सायद मुक्खे झा से मिलवाने वाले हैं।...अभी तो आप मड़र कक्का के डेरा पर चलिए।"
अभिजीत को भी लगा कि मड़र के घर ही चलना चाहिए। लड़का देह से कमज़ोर था। दोनों टांगे टिटहिरी जैसी, पतली। कदम ज़मीन पर ऐसे गिरते की दोनों एडियां आपस में टकरा जातीं। चलने का अंदाज़ अजीबोगरीब.. कदम बढाते ही वही हाथ आगे जाता, जो पैर आगे बढ़ रहा होता। काला खटखट। बिबाइयां फटे पैर, टूटी चप्पल। चप्पल के टूटे फीते को आलपिन से जोड़ा गया था।
" नाम क्या है तुम्हारा..?" अभिजीत ने पूछा। हालांकि नाम उसे पता ही था, फिर भी बातचीत के क्रम को आगे बढाने के लिए सवाला पूछा गया था।
" मेरा नाम.. ? वह चिंहुका। "... उगना.." उसने ऐसे बताया मानो नाम बताना नहीं चाह रहा हो। "..उगना.." अभिजीत ने दुहराया। हिंदी में उगना उदित होना होता है, मैथिली में दुलारा..।
" घर में कौन है उगना.." अभिजीत के स्वर में थोड़ा दुलार आ गया था।
" एक ठो बहिन है उसका नाम है आसाबरी.. एक ठो कुतवा (कुत्ता) है और बरद (बैल)"...कुतवा हमरे मीत (मित्र) भैरव का है।
" .. और मां-बाप.." अभिजीत ने ये सवाल ना मालूम क्यों पूछ डाला। " मां-बाप .. बहुत पहिले मर गए.. खजौली टिशन के पास जूता-चप्पल ठीक करने का दुकान था।"
बातें शायद और भी आगे चलतीं, लेकिन तब तक मड़र का घर आ गया था। अभिजीत ने देखा, उनकी बूढी मां बांस से बने दरवाजे के पास खड़ी थी। मड़र भी आ चुका था।
" माई ने आज बगिया बनाया है, इसलिए आपको खिलाने के बारे में सोच रही थी। उसको लग रहा था कि पता नहीं सहर-बजार के आदमी हैं।... बढिया लगेगा कि नहीं, लेकिन हम तो जानते हैं आपको। हम बोले उगना से कि जाओ बुला लो सर को... आज गांव का बेंजन (व्यंजन) भी आपको खिला ही दें।"
वैसे रात में गांव की तरकारी का स्वाद अभिजीत पा चुका था और ईमानदारी से कही जाए तो इसका जायका उसे शहर के खाने से वाकई अच्छा लगा था।
अभिजीत, मड़र और उगना के साथ बैठा ही था कि मड़र ने उगना को कोई इशारा किया। उगना उठकर आंगन में खड़ा हो गया। एक औरत, आधा पल्लू सर पर ढांके, कुछ इस तरह कि परदा है भी और नहीं भी के अंदाज़ में..एक पीतल की थाली में सात-आठ इडली जैसी चीज़ रख गई। सफेद पकवान से भाप उठ रही थी और साथ में एक सोंधी सुगंध भी।
वह औरत मड़र की बीवी नहीं था। मड़र की मां शायद अभिजीत के सवालिया निगाहों को पहचान गई। बोली,--" ये बिसुआ (मड़र) की भावज है। मेरा दूसरा बेटा है न लखिन्दर, उसकी बहू।"
इतना परिचय काफी नही था। मड़र के बेटे, जीवछ ने और विस्तार से बताया,-" मेरे कक्का बंबई गए हैं। कमाने के लिए।"... जीवछ ने उस पकवान में दांत काटते हुए बताया कि बंबई में समुद्र है, हमारे महंजी पोखर (महंत जी वाले पोखरे) से बहुत बड़ा। इतना बड़ा कि उसमें सौ पोखर अंट जाएंगे। और ये भी उसके कक्का का नाम बाला लखिंदर है और काकी का नाम है बिहुला।
अभिजीत को लगा कि इस पकवान के साथ कोई चटनी भी होनी चाहिए, लेकिन जीवछ ने ऐसे ही दांतों से काटकर खाने का इशारा किया। जैसे ही अभिजीत ने दांत से पकवान में काटा, उसकी पूरी गाल गुड़ के सोंधे मीठेपन से भर गई।
ऐसा एक बार तब हुआ था, जब मृगांका के बहुत जोर देने पर उसने पित्सा खाया था। दांत से काटकर। खूब लोटपोट होकर हंसी थी मृगांका...खैर...।
उसे ख्याल आया कि उगना अभी नहीं खा रहा है। अभिजीत ने उसे बुलाया, वह हिचकिचा रहा था। मड़र समझ गया।
बिसेसर के घर से बगिया खाकर, अभिजीत फिर से मुखिया जी के घर की ओर गया। शाम गहराने लगी थी...घरो में लालटेने जल गई थी। बिहार में बदले हुए परिदृश्य में गांवों में बिजली के खंभे तो लग गए थे, लेकिन उन खंभों से लटके तार निष्प्राण थे।
मुखिया जी ने जोरदार स्वागत किया। अभिजीत ने देखा, उगना वहीं मुंह लटकाए खड़ा था, अभिजीत से पहले ही पहुंच चुका था वो...।
मुखिया जी ने हांक लगाई, रे उगना पानी ला रे।
...उगना से याद आया अभिजीत बाबू, उगना की कहानी आपने सुनी या नहीं..। अभिजीत ने इनकार में सर हिला दिया। ले भला, चलिए सुनाते हैं...। मुखिया जी ने हथेली पर मसले जा रहे खैनी को चुटकी बनाकर निचले होठों के बीच सुरक्षित पहुंचा दिया, और दास्तानगोई शुरु हो गई।
दिल्ली, मृगांका का घर
कमरा सूना तो था, लेकिन अब बेजान नहीं था। मृगांका ने कुछ आलमारियां खोल रखी थीं, प्रशांत अवाक् सा देख रहा था। सब आलमारियों में अभिजीत की लिखी किताबों की कई प्रतियां थी। कुछ पर अभिजीत के हस्ताक्षर भी थे, जो उसने खुद मृगांका को भेंट किए थे।
प्रशांत अभिजीत का बहुत नजदीती दोस्त था।
प्रशांत, तुम्हें पता है, अभिजीत की लिखावट में क्या खास होता था? मृगांका ने लगभग रूंधी हुआ आवाज में पूछा था।
प्रशांत और अभिजीत तबसे दोस्त थे, जब अभिजीत दिल्ली आया ही था। युगों पुरानी दोस्ती, साथ खाना और साथ पीना। लेकिन लिखावट...। अभिजीत का हस्तलेख पहतान सकता था प्रशांत लेकिन...लिखावट में क्या खास था।
मृगांका ने एक पुरानी पतली-सी किताब निकाली, आखिरी पेज पर एक शेर लिखा था...प्रशांत बेवकूफ की तरह उस लिखावट को देखता रह गया...लिखावट तो अभिजीत की ही है लेकिन इसमें खास क्या है। वह चुप ही रहा।
देखो गौर से, अभिजीत बिंदियों की जगह बड़ा-सा गोला बनाता है। और वह र कैसे लिखता है...मृगांका और न जाने क्या-क्या ब्योरा देती रही। हर बारीक ब्योरा प्रशांत के मन में, अपराधबोध भरता गया।
मृगांका भाभी, मुझे माफ कर दो।
प्लीज प्रशांत, भाभी भी कह रहे हो, और तुमने मुझे अंधेरे में रखा। कहां गुम हो गया है तुम्हारा भाई और तु्म एक फोन नहीं कर सकते थे।
मैं बाहर चला गया था, मेरे पीछे पता नहीं...
चुप रहो,.....मृगांका कुछ और कहने ही वाली थी कि अचानक उसके पिताजी कमरे में आए। बेटा, देखो ड्राइंगरूम में...अभिजीत की मां तुमसे मिलने आईं है।
अभिजीत की मां? मृगांका और प्रशांत दोनों के लिए हैरत की बात थी। दोनों ड्राइंग रूम की तरफ दौड़ पड़े।
जारी.....
2 comments:
कहानी का अंत नजदीक है... जो भी हो आपकी कहानी की घटनाएं बहुत जीवित सी लगती है। सजीव सी......बेहतरीन....
बढि्या चल रही है कहानी
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